यह जानते हुए भी कि लिखने और विचारने के नाम पर नया और मौलिक कहीं, कुछ भी नहीं है, फिर भी यह कुछ-कुछ ‘आत्म ज्ञान प्राप्ति’ जैसा रहा।
श्री अनुराग शर्मा के ब्लॉग ‘बर्ग वार्ता’ की दो पोस्टों (शब्दों के ये अजीबोगरीब टुकड़े और शब्दों के टुकड़े - भाग 2 ) में प्रकाशित ‘सूत्र’ मुझे बहुत अच्छे लगे। लगा कि इन्हें तो अधिकाधिक प्रचारित/प्रसारित किया जाना चाहिए। सो, ‘साप्ताहिक उपग्रह’ में अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में मैंने इन्हें ‘‘अनुराग’ की अनुभूत पूँजी’’ शीर्षक से, 5-11 मई वाले अंक में छापा। पहला फोन भैया साहब सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ का आया। कह रहे थे कि इनमें से कुछ सूत्र उन पर लागू होते हैं। मैंने कहा कि उन पर तो ‘कुछ’ ही लागू होते हैं किन्तु मुझ पर अधिकांश लागू होते हैं। भैया साहब बोले - ‘मैं तो अपनी बात कर रहा हूँ।’ उन्हें रोकते हुए मैंने कहा - ‘मैं भी तो अपनी बात कह रहा हूँ।’ और हम दोनों अपनी-अपनी सुनाने पर आमादा हो गए। परिणामस्वरूप न तो मैंने उनकी कोई बात सुनी और न उन्होंने मेरी। हम दोनों की बातें, हमारे ही पास रह गईं। अनसुनी।
इस ‘वाणी विलास’ (मुझे आपकी शालीनता और संस्कारशीलता पर भरोसा है कि आप इसे ‘लफ्फाजी’ या कि ‘जुगाली’ नहीं कहेंगे) से ही मन में एक के बाद एक बातें आनी शुरु हो गईं।
हम खुद से आगे कभी कुछ शायद ही सोचते हैं। ‘व्यक्ति से समष्टि’ वाला जुमला भी अन्ततः व्यक्ति पर ही आ जाता है। तब यह ‘व्यक्ति से व्यक्ति बरास्ता समष्टि’ जैसा कुछ हो जाता है। हम बात भले ही जमाने की करें किन्तु केन्द्र में हम खुद ही होते हैं। बातों का आधार भी हम ही होते हैं। हम खुद से शुरु होते हैं और खुद पर ही समाप्त करते हैं।
हमें वही आदमी अच्छा लगता है जो हमारी सुने, हममें रुचि ले, हमें सराहे, हमारी प्रशंसा करे। ऐसे आदमी के पास बैठना और उसे अपने पास बैठाना हमें अतिप्रिय लगता है। इसके विपरीत हम ऐसे आदमी से बचते हैं, कन्नी काटते हैं जो अपनी हाँकता रहता है, अपना रोना रोता रहता है। ऐसे आदमी को सामने से आता देखकर हम सँकरी गली में घुस कर रास्ता बदल लेते हैं।
भरपूर नम्रता, शालीनता, भलमनसहात, शराफत आदि-आदि बरतते हुए हम भले ही ‘नानक दुखिया सब संसार’ कहते हुए खुद को दुनिया के तमाम दुखियों से जोड़ें लेकिन वास्तविकता तो यही होती है कि हमें खुद से अधिक दुखी और कोई नजर नहीं आता। तब हमें लगता है कि सुख बाँटने में ईश्वर ने हमारी अनदेखी कर दी, पक्षपात कर दिया। हमें खुद से अधिक बुद्धिमान कोई नजर नहीं आता। यदि आता भी है तो या तो स्वार्थवश या फिर दुनिया के सामने भला आदमी बनने की मजबूरी में।
जलजी ठीक ही कहते हैं। आदमी सबसे अधिक प्यार खुद से करता है। कोई समूह चित्र (ग्रुप फोटो) सामने आते ही हम सबसे पहले अपने चेहरेे को ही तलाशते हैं। किसी से मिलने गए और उसने विवाह या किसी अन्य आयोजन के चित्रों का भारी भरकम एलबम सामने सरकाया तो हम अपनेवाला चित्र तलाश कर, उसे देखकर, एलबम को बन्द कर देते हैं। अब क्या देखना? देख लिया जो देखना था! गोया मैं, मैं नहीं हुआ, पूरी दुनिया हो गया।
चलिए। छोड़िए भी। क्या रखा है इन बातों में? ये तो प्याज के छिलके हैं। उतारते जाईए, कुछ भी हाथ नहीं आनेवाला। मुद्दे की बात मैं कह ही चुका हूँ। आँख मूँदकर उसे मान लीजिए और याद रखिए। शंका करने की कोई जरूरत नहीं। फिर भी कोई शंका हो तो किसी और के चक्कर में बिलकुल मत पड़िएगा। मुझसे मिल लीजिएगा।
मैं हूँ ना!
विष्णु जी,
ReplyDeleteअच्छे लोगों की यही विशेषता है कि वे दूसरों की मामूली विशेषतायें जितने गर्व से बता सकते हैं, उतनी ही सहजता से अपनी कमियाँ भी। वैसे कहावत भी है: (मेरी) जान है तो जहान है - निष्कर्ष: दुनिया है क्योंकि मैं हूँ।
हूँ तो खैर मैं भी...मगर....आपके सामने और अनुराग के सामने....वो भी इस दुनिया में...भला मेरी क्या बिसात! :)
ReplyDeleteसच है, मैं हूँ तो जगत है, पर जगत है।
ReplyDeleteसमीर भाई, टांगखिंचाई के लिये आज कोई और नहीं मिला क्या? हम तो आपकी छत्रछाया (उत्तर अमेरिका) में हैं।
ReplyDeleteultimate quotations
ReplyDeleteWonderful post ....... Beautiful expression.
ReplyDeleteपढ़ने की रौ में मैं ऐसा बहा कि जहाँ ठहरा, वहाँ लिखा था-‘‘मैं हँू ना.’ यह कारीगरी ‘मैं हँू ना’ ही कर सकता है मैं नहीं. साधुवाद! एकोऽहम्.
ReplyDeleteरोचक आलेख है
ReplyDeleteमनोरंजन भी,,,, सन्देश भी ....
अभिवादन .
अपने जैसे ही पंसद आते है लोगों को।
ReplyDeleteइस तरह के ''आप'' से मिलना भाया.
ReplyDeleteसच है,
ReplyDeleteलेख अच्छा लगा -अपना दुखडा रोने की आदत कम करेंगे।ईश्वर को दोष नहीं देंगे कि पक्षपात किया।एलवम मंे अपना फोटो नहीं तलाशेंगे। शंका ही नहीं शंकायें है। अब किसी के चक्कर में नहीं पडेंगे आपसे अवश्य मुलाकात होगी उम्मीद है।
ReplyDeleteनिंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय ....ऐसे ही नहीं खा गया था .आदमी हर तरफ अपना ही तो प्रोजेक्शन ,अपना ही तो अक्स देखना चाहता है .बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका शुक्रिया !
ReplyDeleteGustakhi Muaaf -
ReplyDeleteकांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह घर पहुंचे तो भीग चुके थे. बीवी-क्या बाहर बारिश हो रही है. दिग्गी-नहीं, क्या बताऊं..जहां कही से भी गुज़र रहा हूं, लोग थू-थू कर रहे हैं