पर पीड़ा से उपजा सुख

पर पीड़ा का भी कोई सुख हो सकता है? हाँ। ‘हो सकता’ नहीं, होता है। यह मैंने पहली बार, आज भोगा। ‘मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है’ वाला जुमला मैंने प्रयुक्त तो कई बार किया किन्तु उसे साकार होते पहली बार देखा-अनुभव किया।मुझे यह सुख दिया चाँदनीवालाजी ने।


चाँदनीवालाजी आयु में मुझसे यद्यपि छोटे हैं किन्तु उनकी विद्वत्ता, नम्रता और शालीनता उन्हें आदरणीय और प्रणम्य बनाती है। कहने को तो वे मेरे कस्बे के एक शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य मात्र हैं किन्तु उनकी सृजनशीलता, संस्कृत पर उनका अधिकार, उन पर सरस्वती-कृपा उनके इस पद को कोसों पीछे छोड़ती है। इतना पीछे कि ‘प्राचार्य पद’ बहुत-बहुत बौना हो जाता है। उन्होंने वेद ऋचाओं की पुनर्रचना का श्रमसाध्य और यशस्वी काम किया है। वे अच्छे कवि-नाटककार हैं। उनकी कविताएँ आए दिनों, मालवांचल के अग्रणी, प्रतिष्ठित अखबारों के परिशिष्टों में प्रमुखता से स्थान पाती रहती हैं। मेरे कस्बे के अभिरुचीय कार्यक्रम उनकी उपस्थिति के बिना अधूरे होते हैं।


उनके कुल नाम (चाँदनीवाला) से हर कोई उन्हें प्रथमदृष्टया बोहरा समुदाय का ही मानता है किन्तु जैसे ही पूरा नाम सुनता है तो अविश्वास और आश्चर्य उसके विस्फारित नेत्रों का आकार बढ़ा देते हैं। उनका पूरा नाम है - डॉक्टर मुरलीधर चाँदनीवाला। वे मूलतः धार के हैं। उनके पिताजी स्वर्गीय श्री कमलाकान्तजी जोशी, धार रियासत के राज ज्योतिषियों के दल के सदस्य थे। इस दल में एकाधिक ‘जोशी’ थे। ‘कौन से जोशी की बात की जा रही है?’ - यह स्पष्ट करने के लिए धार नरेश ने प्रत्येक ‘जोशी’ को कोई न कोई पहचान दे दी। पूरे धार में कमलाकान्तजी का मकान एकमात्र ऐसा मकान था जिस पर पक्की चाँदनी थी। धार नरेश ने इस हेतु उन्हें विशेष अनुमति दी थी ताकि कमलाकान्तजी, अपने मकान की चाँदनी पर खड़े होकर रात में तारों का अध्ययन कर सकें। सो, कमलाकान्तजी ‘चाँदनीवाला’ हो गए। अब न तो धार नरेश हैं न कमलाकान्तजी लेकिन ‘चाँदनीवाला’ बना हुआ है।


ये ही चाँदनीवालाजी मेरे सामने बैठे हुए थे। दुःखी थे और इनके दुःख का कारण जानकर मैं सुखी हुआ जा रहा था। हालाँकि बात न बात का नाम लेकिन बात थी कुछ ऐसी ही।

चाँदनीवालाजी आए और बैठते-बैठते ही उनकी नजर, मेरी टेबल पर रखे एक बहुरंगी, आकर्षक, मँहगे, चार पृष्ठीय निमन्त्रण-पत्र पर पड़ी। कार्यक्रम उसी दिन था। एक धर्म-पुरुष का सम्मान कर अभिनन्दन-पत्र दिया जाना था। चाँदनीवालाजी असहज हो गए। मिलने की गर्मजोशी, तपते तवे पर पड़ी पानी की बूँद की तरह ‘छन्न’ से, हवा हो गई। निमन्त्रण-पत्र को पढ़ते, उलटते-पुलटते, असहज नजरों से मुझे देखते हुए पूछा - ‘आप जा रहे हैं इस कार्यक्रम में?’ मैंने इंकार में ‘मुण्डी’ हिलाई। चाँदनीवालाजी खुश हुए या नहीं किन्तु उनकी असहजता में कमी अनुभव हुई। मालूम हुआ, वे भी नहीं जा रहे हैं। मुझे अचरज हुआ। आयोजन चाँदनीवालाजी की मानसिकता के अत्यधिक अनुकूल जो था। मैंने पूछा - ‘स्कूल में कोई निरीक्षण-विरीक्षण है क्या?’ बोले - ‘कैसा निरीक्षण? आपको याद नहीं रहता। आज तो छुट्टी है।’ मेरा अचरज बढ़ गया। पूछा तो उदास और वीरान आवाज में उत्तर मिला - ‘मुझे निमन्त्रण नहीं मिला।’ मुझे आश्चर्य तो हुआ किन्तु कभी-कभी ऐसा हो जाता हे कि आँखों के सामनेवाला ही अनदेखा रह जाता है। उनकी उदासी कम करने की नियत से मैंने कुतर्की प्रश्न किया - ‘आप अपने आप को इतना महत्वपूर्ण क्यों मानते हैं?’ इस बार चाँदनीवालाजी ‘क्षुब्ध’ से तनिक आगे बढ़कर ‘भावकुल’ हो गए। बोले - ‘मैं खुद को महत्वपूर्ण नहीं मानता। किन्तु इस आयोजन का अभिनन्दन-पत्र मैंने लिखा है। आयोजकों ने पीछे पड़कर मुझसे लिखवाया। मैंने अपना काम छोड़कर, अपनी नींद और भूख को परे रखकर यह अभिनन्दन-पत्र लिखा। और लिखा ही नहीं, इसकी भाषिक शुद्धता और निर्दोषिता सुनिश्चित करने के लिए आयोजकों ने दो-दो बार इसकी प्रूफ रीडिंग मुझसे कराई। मुझे अपेक्षा थी कि मुझे भी बुलाया जाएगा।’ मुझे धक्का लगा। ऐसा कैसे हो सकता है? यह अनुचित है। सम्भावना के आकाश में मैंने अनुमान की कंकरी उछाली - ‘उन्होंने आपको पारिश्रमिक दे दिया होगा। बात खतम। उसके बाद आपको बुलाना, न बुलाना, उनकी मर्जी और उनका अधिकार।’ इस बार चाँदनीवालाजी व्यथित हो गए। बोले - ‘आपने क्या बात कर दी? अव्वल तो अपने यहाँ पारिश्रमिक देने का चलन ही नहीं। फिर, ऐसे धार्मिक काम के लिए मैं पारिश्रमिक लूँगा? आप पारिश्रमिक की बात कर रहे हैं? उन्होंने तो धन्यवाद भी नहीं दिया।’ इस बार मुझे दुःख नहीं हुआ। बुरा लगा। यह तो शोषण ही नहीं, अभद्रता और अशिष्टता भी है। मैंने टटोला - ‘पहली बार ऐसा हुआ है?’ जवाब मिला - ‘नहीं। पहले भी दो-तीन बार ऐसा हो चुका है। एक बार तो ऐसा हुआ कि दो दिन लगा कर एक अभिनन्दन-पत्र बनाया। उस दौरान आयोजक मानो धरना देकर मेरे घर बैठे रहे। लेकिन काम हो जाने के बाद उन्होंने पलट कर नहीं देखा। लेकिन इससे भी बुरा उन्होंने यह किया कि मेरा लिखा अभिनन्दन-पत्र निरस्त कर दिया और इसके लिए खेद प्रकट भी नहीं किया।’ मैंने ‘मिजाजपुर्सी’ करते हुए कहा - ‘तो फिर आपको तो आदत हो जानी चाहिए ऐसे कामों की और ऐसे व्यवहार की। आपने अपेक्षा क्यों की? जब कर ही ली तो भुगतिए!’ आहत और पीडा़भरी नजरों से मेरी आँखों में भेदते हुए चाँदनीवालाजी बोले - ‘जानता हूँ कि अपेक्षा ही दुःखों का मूल है और मैंने इससे बचना चाहिए। किन्तु क्या करूँ। कोशिश करूँगा कि आगे से यह चूक नहीं करूँ।’ चाँदनीवालाजी चुप हो गए।


किन्तु इसमें मेरा सुख कहाँ है? है। इस पूरे बखान में चाँदनीवालाजी के नाम के स्थान पर मेरा नाम पढ़ लें। ऐसी ‘दुर्घटनाओं’ के सैंकड़ों संस्मरण मेरे खजाने में जमा हैं। कोई आठ-दस बरस पहले तक भाई लोग मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा दिया करते थे और मैं था कि उतरता ही नहीं। वहीं टँगा रहता था। हजारों नहीं तो सैंकड़ों की संख्या तो तय है। ऐसे काम मैंने खूब किए, बार-बार किए, लगातार किए। हर बार लगा कि मुझे ‘पत्रं-पुष्पम्’ मिलेंगे। किन्तु एक बार भी ‘लक्ष्मी-दर्शन’ नहीं हुए। हाँ, एक बार अवश्य शाल-श्रीफल से मुझे सम्मानित किया गया। मैंने भी हर बार अपेक्षा की और हर बार दुःखी हुआ। दो-चार बार तो रोना भी आया। उसके बाद अपनी मूर्खताओं से अकल हासिल की। दृढ़तापूर्वक मना करना शुरु कर दिया।


जब चाँदनीवालाजी अपनी ‘करुण कथा’ बाँच रहे थे तब मुझे अपना ‘गुजरा जमाना’ याद आ रहा था। चाँदनीवालाजी के प्रति सहानुभूति और सम्वेदना उमड़ रही थी, किन्तु उसके समानान्तर मैं अपने अतीत को सजीव देख रहा था। यह देखकर मुझे सचमुच में बड़ा सुख मिला - मैं अकेला नहीं हूँ। विद्वान्, अनुभवी, परिपक्व और हर मायने में मुझसे बेहतर लोग भी जब इस दशा को प्राप्त हो जाते हैं तो मैं भला क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा?


मैंने चाँदनीवालाजी से कहा - ‘तनिक व्यापारी की तरह सोचिए। आप लिख कर ही मुक्त हो गए। शुक्र मनाइए कि आयोजकों ने आपसे चन्दा नहीं लिया। उपभोक्ता की इस बचत पर तो आपका खुश होना बनता ही बनता है।’ चाँदनीवालाजी मुस्कुरा दिए।


उसी क्षण मैंने उनकी यह तस्वीर ली।

5 comments:

  1. मैं सोचता था- 'नेकी कर दरिया में डाल' क्‍यों कहा जाता होगा भला.

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  2. जितना मिल जाये वही बोनस है, नहीं तो ठनठन गोपाल आये थे दुनिया में।

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  3. साहित्य -सुख यही है...फिर संतोष भी तो है ही...

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  4. लेखक प्रतिक्रिया चाहता है। कभी-कभी तो दूसरे के लिए भी अभिंनंदन पत्र लिखने पड़ते हैं। बढ़िया संस्मरण।

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  5. अंग्रेज़ी में कहावत है, "भले लोग दौड में पीछे रह जाते हैं।" आसपास एक नज़र देखने पर कहावत सही भी लगती है। कहावत से आगे का सच यह है कि भले लोगों को भला फिनिश लाइन से क्या लेना?

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