जो ये आग पियेगा



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की चौंतीसवी कविता 
 
यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


जो ये आग पियेगा

गण-गंगा ने गहराई ली, गति और अधिक गतिवान हुई
इन कूल-कछारों की महिमा, सचमुच ही और महान हुई
गुंजार मिली फिर भँवरों को, फगुनाहट मिली बहारों को
शोणित के रथ को राह मिली, फिर आग मिली अंगारों को

जो ये आग पियेगा
वो जरूर जियेगा
इस ज्वाला को पी के पचाओ रे।
मेरी जान की कसम! रे ईमान की कसम!
तुम पल-पल दहकते ही जाओ रे।
जो ये आग पियेगा।

बर्फानी पानी में हो के खड़े, जो आवाज देते अंगारों को
ओ रे अंगारों, अब तो समझ लो, उनके नपुंसक इशारों को
उनको डूब जाने दो, गहरे खूब जाने दो,
उनसे बारूद अपनी बचाओ रे।
मेरी जान की कसम।

कन्धा तुम्हारा, बन्दूक उनकी, तो इतिहास को फिर रोना ही है
आँखों के अन्धे, साधें निशाना, तो कन्धों को घायल होना ही है
पोंछो, घाव को पोंछो, सोचो दूर की सोचो
यूँ तो इतिहास को मत रुलाओ रे।
मेरी जान की कसम।

काली अमावस से घबरा के, कोई रोने लगे चिल्लाने लगे
तो समझो वो सूरज का वंशज नहीं है, जो अपना ही पौरुष लजाने लगे
रातें रोज आयेंगी, रातें रोज जायेंगी
तुम तो प्राणों को अपने जलाओ रे।
मेरी जान की कसम।

जब तक रगों में है जिन्दा वो ज्वाला, तब तक जवानी जवानी है
वरना तो शीर्षक ही शीर्षक है प्यारे! सम्बोधनों की कहानी है
जिन्दा लाश नहीं हो, कोई पलाश नहीं हो
जो फागुन ही फागुन में झर जाओ रे।
मेरी जान की कसम।

जब कोई बादल, बहिनाँ कहे, किसी ज्वाला की जायी चिनगारी को
तो समझो दबोचेगी कोई हविस, किसी मासूम कन्या कुमारी को
जिसका भाव दूजा हो, और प्रभाव तीजा हो
ऐसी राखी नहीं बँधवाओ रे।
मेरी जान की कसम।

जब भी जलाओ अँधेरा जलाओ, तिल भर तरस मत खाओ रे
मौसम के सुर में सुर क्या मिलाना, अपना भी मौसम बुलाओ रे
खुद की लाश मत ढोओ, अपने प्राण को बोओ
और किरणों की फसलें उगाओ रे।
मेरी जान की कसम।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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