पुल पर एक शाम (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की उन्नीसवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की उन्नीसवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



पुल पर एक शाम

यदि यह आलेख मैं नहीं लिखूँगा तो मेरा दम घुट जाएगा।

अपने मानसिक स्वास्थ्य और लेखकीय सहजता को लौटाने के लिए मैं इस प्रसंग को लिख ही देना ठीक समझता हूँ।

आप इस सबको पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं कि इसे कहते हैं बिना किसी बात के बेबात अपना और अपने पाठकों का समय नष्ट करना। पर मैं यह इलजाम भी अपने माथे लेने के लिए तैयार हूँ। 

देश का पहला ‘युवा उत्सव’ समाप्त हो चुका होगा, तब कहीं ये पंक्तियाँ आपके सामने आ पाएँगी। 

स्वामी विवेकानन्दजी का जन्मदिन भी बीत गया।

‘युवा वर्ग’ और ‘युवा’ शब्द आज हमारी राष्ट्रीय चेतना में चिन्तन और बहस का मूल बनता जा रहा है।

तब मेरे मानस-पटल पर रह-रहकर एक आकृति कौंध-कौंध जाती है। इतने दिन हो गए, मैं इस दृश्य को अपने रक्त-प्रवाह में दौड़ता महसूस करता हूँ और शायद तब तक करता रहूँगा जब तक मैं व्यक्त नहीं हो जाता।

मैं अपने एक मित्र की मारुति वैन से भोपाल के लिए निकला हूँ। जाना मुझे कर्नाटक था। ड्राइवर का नाम है बाबू। उसके पासवाली अगली सीट पर मैं हूँ। मेरे पीछेवाली सीटों पर जावद (मन्दसौर, म.प्र.) के विधायक श्री घनश्याम पाटीदार और उनके पास हमारे एक सहयात्री श्री चन्द्रकुमार जैन बैठे हुए हैं। हमारी यात्रा नीमच से शुरु हुई। हम लोग बतियाते-बतियाते चले जा रहे हैं। आगे सड़क अत्यन्त खराब है, सो हम जावरा से ही मुख्य मार्ग छोड़कर उपमार्ग पर महिदपुरवाला रास्ता ले लेते हैं। सूरज हमारी पीठ पर है। शाम ढलने को है। जावरा से कुछ ही किलोमीटर चलकर ‘मलैनी’ नदी के पाट को पार करने के लिए उसकी रपटनुमा पुलिया पर प्रवेश करने वाले हैं। हम चारों जो बातें कर रहे हैं वे संगत भी हैं और विसंगत भी। हमारी बातों का दायरा फैलता भी है, सिकुड़ता भी है। मैं ‘मलैनी’ का सही नाम अपने सहयात्रियों को बताता हूँ। इस नदी का नाम वस्तुतः ‘मलयिनी’ रहा होगा। सैलाना के आस-पास किसी जमाने में अत्यन्त घने मलय-वन (चंदन वन) से चन्दन की सुगन्ध लेकर यह नदी ललककर लपक चली थी। अच्छा-भला नाम था ‘मलयिनी’, पर कालान्तर में हो गया ‘मलैनी’। और जिस समय अस्ताचलगामी क्लान्त रवि की सान्ध्य रश्मियाँ ‘मलैनी’ के पानी पर पड़ती दीखती हैं तो वह पानी अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही गन्दा और लाल-लाल लगता है। उसकी गन्दगी का और भी कोई कारण हो सकता है। जल प्रदूषण हमारी नदियों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकेगा। ‘मलैनी’ भी इस अलंकार से अछूती नहीं है। होगी भी कैसे?

मेरी नजर पुलिया के ठीक बीच के दृश्य पर ठिठक जीती है। मेरा भावुक मन, संवेदनशील मानस एकाएक विकृत हो जाता है। उस गोधूलि वेला में मैं देखता हूँ कि हमारी गाड़ी के ठीक आगे-आगे पन्द्रह-सोलह वर्ष का एक किशोर अपने गाँव की ओर भागता जा रहा है। वह अकेला नहीं है। उसके पाँवों में औसत से ज्यादा कीमत के नई डिजाइन के, बन्दवाले गुदगुदे बढ़िया जूते हैं। मैं सोचता हूँ कि उन जूतों की कीमत आज के हिसाब से दो सौ से तीन सौ रुपयों के बीच जरूर होगी। आधुनिक फैशन की जींस उसकी  टाँगों पर कसी हुई है। एक अच्छी सी रेशमी जैसी कमीज उसकी काया पर है, जो जींस के भीतर डली हुई है और माथे पर धूप से बचानेवाली ‘क्रिकेट कैप’ जैसी टोपी। उसके हाथों में तीन-चार पुस्तकें हैं और दो-एक कॉपियाँ भी। यह तो एक सामान्य सा, साधारण दृश्य है। पर विशेष बात यह है कि यह किशोर हमारी गाड़ी को रास्ता देने के लिए अपने आगे-आगे भागते चल रहे चार-पाँच गधों को अपनी पुस्तकों से उनके पुट्ठों पर हलकी थापें लगा-लगाकर तेज दौड़ाने की कोशिश कर रहा है। इतना ही नहीं, वह उन गधों को तरह-तरह के नामों से पुकारता, पुचकारता, दुलारता, फटकारता बराबर भागा जा रहा है। 

मैं इस दृश्य को देखकर मुग्ध रह गया। मैंने चन्द्रकुमार से इस किशोर के जूतों, जींस, कमीज, टोपी वगैरह की कीमत का जोड़ लगाने का आग्रह किया। अपने विधायक बन्धु से कहा, ‘आगे भाग रहे गधों की कीमत कितनी हो सकती है?’ ड्राइवर बाबू से मैंने कहा, ‘बाबू! गाड़ी को चुपचाप इन गधों से आगे निकालकर बीच पुलिया पर रोक लो। मैं इस बच्चे से बात करना चाहता हूँ।’ और बाबू ने पुलिया के उस छोर से पहले ही यह काम कर दिया। हमारी गाड़ी रुक गई। गधे पुल के उस पार तक पहुँच गए। भागता किशोर ठिठककर खड़ा हो गया। मैंने अपनी खिड़की का शीशा नीचे उतारा। उस किशोर को आवाज दी। सूरज की किरणें मेरे चेहरे और उसकी पीठ पर थीं। मैंने देखा, एक श्यामल वर्ण, तन्दुरुस्त, चुस्त और चाक-चौबन्द किशोर का अद्भुत, दीप्ति से दमकता चेहरा। मैं अनुमान लगा रहा था कि एक पूरे अपराह्न की थकान और उड़ती गोधूलि से इसका चेहरा म्लान होे गया होगा। पर मेरा अनुमान गलत था। यद्यपि वह तरोताजा नहीं था, तब भी थका और मुरझाया भी नहीं था।

मुझे अपना खुद का विपन्न बचपन याद आ गया। मैं आज के विधायक भाई घनश्याम पाटीदार के उस रूप को याद करने लगा, जब कि अपने

युवाकाल के आरम्भ में घनश्याम मन्दसौर के एक पेट्रोल पम्प पर हाथों से हैण्डल घुमा-घुमाकर सारा दिन बसों, मोटरों और कारों में ईंधन भरता रहता था। एक संघर्षरत मजदूर के तौर पर घनश्याम ने इस जीवन को ठाट से जिया था। घनश्याम ने भी अपनी तरफ का शीशा नीचे उतारा। 

मैंने उस-किशोर से पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’

मैं प्रायः ठगा सा देखता रह गया, जब कि उसने पहले सभ्यता के साथ हम सभी को प्रणाम किया, फिर अपने बेतरतीब भागते गधों पर एक नजर डाली और सन्तुलित स्वर में उत्तर दिया, ‘भूपेन्द्र प्रजापति।’ उसने यह उत्तर बिना किसी कुण्ठा और बिना किसी संकोच या झिझक के दिया। मेरी आँखें छलछला आईं। वह चाहता तो अपना नाम भूपेन्द्र कुमार बता सकता था। कुण्ठित होता तो ‘प्रजापति’ नहीं भी बताता। पर मैं उसके चेहरे की उस आभा को मैं आज सहेजे बैठा हूँ। बोला-

भूपेन्द्र प्रजापति।’

‘ये गधे किसके हैं?’ मेरा प्रश्न था।

‘जी, मेरे हैं।’

‘क्या तुम पढ़ते हो?’

‘जी हाँ, मैं दसवीं कक्षा का विद्यार्थी हूँ। पढ़ रहा हूँ।’ उसने अपनी पुस्तकों को सहेजते हुए उत्तर दिया।

‘कहाँ से आ रहे हो, कहाँ जा रहे हो?’ मैंने सवाल किया।

‘जी, गधे चराने गया था। वहाँ कुछ पढ़ा, होमवर्क किया। अब शाम ढल रही है, अपने पशुधन को लेकर घर जा रहा हूँ।’ उसका निस्संकोच उत्तर था।

मेरी भावुकता मुझे अपने बचपन के अत्यन्त विपन्न और विवश संघर्षकाल में घसीटकर यही कोई पचास बरस पीछे खींच ले गई। मैं रो पड़ा। मैंने कहा, ‘जियो बेटा भूपेन्द्र! तुम खूब तरक्की करोगे। अपने माता-पिता और शिक्षक-गुरुओं को प्रसन्न रखना। तुम एक ऊर्जस्वी और कुण्ठाविहीन किशोर हो। तुम्हारा भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल है। तुम अपने माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना और उनके पशुधन के रखवाले के तौर पर तुम्हारी भूमिका पर हम सभी की बधाई देना। र्दश्वर तुम्हें सफलताभरा, सुयशपूर्ण, समृद्ध जीवन दे। जाओ।’

मैंने देखा, भूपेन्द्र अवाक् हम सभी को देख रहा है। शायद हमारा परिचय जानने की उत्सुकता उसकी आँखों में तैर रही थी। 

मैंने अपने आँसू पोंछे। पहले ड्रायवर का परिचय दिया, ‘यह बाबू है। यह गाड़ी इसके मालिक की है। फिर चन्द्र कुमार का परिचय करावाया और फिर भाई घनश्याम पाटीदार विधायक का।

अब भूपेन्द्र की नजर मुझपर और केवल मुझपर थी। भाई श्री घनश्याम पाटीदार ने बताया, ‘ये बालकवि.....’ और ‘बैरागी’ शब्द स्वयम् भूपेन्द्र के मुँह से निकल पड़ा। उसने अगला दरवाजा खोला, मेरे पाँव छुए और सिर झुकाकर बोला, ‘सर! सब आपका आशीर्वाद है।’ और भूपेन्द्र ने मेरी गाड़ी का दरवाजा बन्द कर दिया। वह पुस्तकों सहित हाथ जोड़े प्रणाम की मुद्रा में एक तरफ खड़ा हो गया।

‘चलो बाबू!’ मैंने कहा।

बाबू ने कार स्टार्ट की, गियर लगाया। हम लोग चल पड़े।

चन्द्र कुमार ने पीछेवाले शीशे में देखकर कहा, ‘दादा! भूपेंद्र अभी तक वहीं खड़ा है।’

यह रतलाम जिले की जावरा तहसील के गाँव दूधाखेड़ी के पास बहती ‘मलैनी’ नदी के पुल का परिदृश्य था। मैं प्रकृति-पुत्र सूर्य को डूबते देख रहा था; पर साथ ही मैं एक उदित होते सूर्य का भी दर्शन कर रहा था। मन-ही-मन मैंने गायत्री पढ़ी। प्रभु! हमारे आँगन को ऐसी उन्मुक्त पीढ़ियाँ दे। निस्संकोच और कुण्ठाविहीन। 

अपनी पढ़ाई मन लगाकर करना भूपेन्द्र!

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विशेष-

- इस पुस्तक के प्रकाशन काल में श्री घनश्याम पाटीदार मध्य प्रदेश सरकार में श्री दिग्विजयसिंहजी के मन्त्रिमण्डल में सामान्य प्रशासन तथा विधि विभागों के स्वतन्त्र प्रभार वाले राज्यमन्त्री हैं।

- लेखक राज्यसभा का सदस्य है।

- ईश्वर जाने आज भूपेन्द्र कहाँ होगा? कैसा होगा? क्या होगा?

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‘बिजूका बाबू’ की अठारहवी कहानी ‘अन्धा शेर’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की बीसवी कहानी ‘छात्र’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 

 


  


 

 

 


 

 


 

 

  

 

  

   


 


 


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