श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की चौबीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की चौबीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
मत करो तारीफ
मन बहुत है बात करने का
मगर किससे करूँ?
बात केवल बात होती तो
भला कुछ बात थी।
किन्तु अब तो श्लेष में भी श्लेष है।
या कि वे सब ढूँढ़ते हैं बहुत कुछ
जो कि उसमें है नहीं।
जो निरर्थक शब्द थे कल तक
आज उनकी परत में
अर्थ उग आये अनेकों।
क्या हुआ? कैसे हुआ?
मैं समझ पाया नहीं।
सब समय का फेर है।
जानता हूँ कल अचानक
शब्द सब बेकार होंगे।
श्लेष सब अभिधा बनेंगे
और मैं छिलका समय का
मात्र छिलके-सा
पड़ा इतिहास का घूरा बनूँगा।
आज जो भी बोलता हूँ
सब ‘वचन’ लगते समय को
किन्तु कल
कविता लिखूँगा या कि कोई गीत-
सचमुच गीत ही लेगा जनम,
तो उसे काली गुफा में
गाड़ कर दुनिया हँसेगी
और फिर फबती कसेगी
सूरमा की शक्ल देखो
देख लो सिंहासनों का कीट
औंधे मुँह पड़ा है।
इसलिये
तुम मत करो तारीफ मेरी
आदमी की जात से जालिम समय
हर दम बड़ा है।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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चयन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteक्या हुआ? कैसे हुआ?
ReplyDeleteमैं समझ पाया नहीं।
सब समय का फेर है।
जानता हूँ कल अचानक
शब्द सब बेकार होंगे।
बहुत ही सरहानीय सृजन!
सर अगर वक़्त मिले तो एक बार हमारे ब्लॉग पर भी आने का कष्ट करें बहुत खुशी होगी🙏🙏🙏
टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा तकनीकी ज्ञान अत्यल्प है। कृपया अपने ब्लॉग की लिंक उपलब्ध कराएं। मेरा मोबाइल नम्बर 98270 61799 और ई-मेल पता bairagivishnu@gmail.com है।
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