श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की तीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की तीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
आत्म-स्वीकृति
कितना अच्छा लगता है
इन पर्वों का आना
त्यौहारों, जयन्तियों और
स्मृति-दिवसों को
विशेषांकों के माध्यम से
घर बैठे पा जाना ।
तब वे चाहते हैं कि
मैं कुछ लिखूँ
अनुक्रमणिका में जीवित दिखूँ।
और जब जागता है मेरा पर-पीड़क,
मेरा पशु, मेरा अमानव,
करवट लेती है एक बर्बरता
फड़कने लगती है कलम की निब
घुमड़-घुमड़ जाता है एक
नितान्त निन्दनीय अट्टहास,
दौड़ती है दोगली नजर
फूठता है कमीना स्वर
गाता हूँ गीत भूख के
उगलता हूँ एक नपुंसक लावा
गालियाँ देता हूँ व्यवस्था को
कोसता हूँ उन्हें जो कि
मेरी सुविधाओं के दाता हैं,
संरक्षक हैं।
धोखा देता हूँ दरिद्रनारायण को।
नोचता हूँ बाल।
फाड़ लेता हूँ बनियान
एक थरथराते
क्रान्ति-आवेश में
जो कि कहीं नहीं है
मेरे सारे परिवेश में।
राम जाने कब उगेगा भविष्य का अग्निबीज
मेरे देश में?
सर्वहारा!
मेरे बन्धु!
तुम कितने दृढ़-कवच हो मेरे?
तुम्हें पहन कर मैं ठाट से
उड़ा लेता हूँ खिल्ली
गरीबी हटाओ
समाजवाद और
सम्पूर्ण क्रान्ति की।
खींच लेता हूँ कमाऊ तस्वीरें
तुम्हारी क्रान्ति और क्लान्ति की।
तुम नहीं होते तो
क्या होता मेरे पेट का?
कोई कुछ भी चाहे पर मैं,
हाँ, मैं चाहता हूँ कि
तुम पर सदैव जलता रहे सूरज
तमतमाते जेठ का।
तुम चख तो लो मेरे आँसू
मीठे हैं, खारे नहीं हैं
मेरी आँखों में तुम
जिन्हें अपना समझ रहे हो
वे ग्लीसरीन के हैं,
तुम्हारे नहीं हैं।
तुम जितना मरोगे
मेरे गीतों में
उतनी ही जान होगी,
तुम जितने कुचले जाओगे,
मेरी कविता उतनी ही
महान् होगी,
तुम जितना जोर से रोओगे
मैं उतना ही जोर से गाऊँगा,
तुम जब-जब मरोगे
मैं तब-तब
जयन्तियाँ मनाऊँगा।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-10-21) को "पाप कहाँ तक गंगा धोये"(चर्चा अंक 4215) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
चयन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteहार्दिक बधाई आ0
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसर्वहारा!
ReplyDeleteमेरे बन्धु!
तुम कितने दृढ़-कवच हो मेरे?
क्रांतिकारी आत्मस्वीकृति!--ब्रजेंद्रनाथ
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
Deleteधोखा देता हूँ दरिद्रनारायण को।
ReplyDeleteनोचता हूँ बाल।
फाड़ लेता हूँ बनियान
एक थरथराते
क्रान्ति-आवेश में
जो कि कहीं नहीं है
मेरे सारे परिवेश में।
राम जाने कब उगेगा भविष्य का अग्निबीज
मेरे देश में?
ओह!!!
दिल और दिमाग को झकझोरने वाली विचारोत्तेजक भावाभिव्यक्ति...।
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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