‘बिजूका बाबू’ की चौदहवीं कहानी
यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।
पीढ़ियाँ
ख्याति बाबू का मन अकसर होता था कि वे समय निकालकर अपने बाल-बच्चों के बीच बैठें, उनसे बतियाएँ, बातें करें। उनके अपने समय से समय-देवता ने काल को कितना आगे बढ़ाया है, इसका लेखा-जोखा लें, कुछ पूछें, कुछ जानें, अपनी कहें, उनकी सुनें। लेकिन जटिल जीवन और कुटिल व्यवस्था के आल-जाल में फँसे ख्याति बाबू शायद ही कभी समय निकाल पाए हों। उनके अपने बेटे जवान हुए, बेटियाँ विदा हुईं। घर में बहुएँ आईं, फिर पोते-पोती हुए, लेकिन ख्याति बाबू को अपने जंजालों से ही
फुरसत नहीं मिली। उनके अपने परिजन प्रायः इस बात के लिए तरसते रहते थे कि कभी बाबूजी उनके बीच बैठें और अपने जीवन-संघर्षों से अपनी ही पीढ़ियों को अवगत कराएँ। अपने परिवार के बारे में इन बच्चों ने जो भी सुना था, अपनी माँ से सुना था या फिर पड़ोसियों से या फिर ख्याति बाबू के नजदीकी दोस्तों और नाते-रिश्तेदारों से। ऐसी सुनी-सुनाई बातों में सच्चाई तो थी, पर बाल-बच्चे चाहते थे कि ख्याति बाबू खुद भी जरा सा अवकाश निकालकर इन सच्चाइयों को प्रमाणित कर दें।
बच्चों को कई घटनाएँ तो परीकथाओं जैसी लगती थीं। वे उन्हें ख्याति बाबू के मुँह से सुनना चाहते थे। ख्याति बाबू इस मानसिक उद्वेलन को भलीभाँति समझते थे। मन-ही-मन वे भी प्रायः सोचते रहते थे कि बच्चों के बीच बैठना चाहिए। जीवन जिस गति से भागा जा रहा है, उसमें उनसे भी अपना बहुत कुछ छूटता चला जा रहा है। बच्चों को जन्म देने के सिवाय वे उन्हें कुछ दे नहीं पाए और बच्चे जो कुछ समय-धन उन्हें देना चाहते हैं, वह वे ले नहीं पाए। चारों ओर घाटा-ही-घाटा। घर में तीन-तीन पीढ़ियाँ चहक-महक रही हैं, पर उनमें फासला रात-दिन बढ़ता ही जा रहा है। कभी-कभी तो संवादहीनता तक बात बढ़ जाती है। सब अपनी-अपनी दिनचर्या में मशीन की तरह सवेरे से साँस तक का कालचक्र पूरा कर रहे हैं। रोजमर्रा की वे बातें। परिवारवाले मिल बैठें तो भी न तो कोई धर्म-चर्चा, न अध्यात्म की बात, न इतिहास का कोई अध्याय, न संस्कृति पर किसी तरह का वार्ता प्रसंग। दर्शन किसे कहते हैं, कौन जाने? सास-बहू चूल्हे-चौके में अपनी अन्नपूर्णा से उलझ रही हैं तो पोते-पोती टी.वी. से चिपके बैठे हैं। बेटे लोग अखबारों में मण्डी बाजार और अरकार-सरकार का चरित्र आँककर अपने काम-काज में रोटी की जुगाड़ जुटा रहे हैं।
ख्याति बाबू अपने देशाटन और लेखन-पठन में आज यहाँ तो कल वहाँ। बेटियाँ भी ससुराल में ऐसी ही दिनचर्या जी रही होंगी आकाश की छाया सभी पर एक जैसी है। अपने-अपने संघर्ष, अपनी-अपनी व्यस्तताएँ। इसी ऊहापोह में ख्याति बाबू ग्लानि में डूब जाते हैं। खुद पर खीझते, अपने आप पर चिढ़ते। स्वयं को कोसते और घर के वरिष्ठ होने का आत्मदण्ड भुगतते-भोगते। सफर के दौरान रेलों और होटलों में प्रायः उदास हो जाते। एक गहरी हताशा उन्हें रुआँसा कर देती। घर की याद आती। बच्चों के लिए बिलख-बिलख पड़ते। महान्-से-महान् लेखकों के ग्रन्थ तक उनका अनमनापन नहीं तोड़ पाते। अखबार खरीदते तो मुखपृष्ठ देखते ही झुँझला पड़ते। हिंसा, बलात्कार, भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार और व्यभिचार के समाचार पढ़ते- पढ़ते बौखला जाते। फिर मन में विचार उठता कि अगर हिंसा, हताशा, निराशा और विनाश के सारे समाचार सुसम्पादित होकर एक ही साथ, एक ही पृष्ठ पर प्रतिदिन परोसे-परोसाए मिल जाएँ तो हर संवेददशील मन टूट जाएगा।
मनुष्य को टूटने में देर ही कितनी लगती है? क्या हमारा सामाजिक और निजी जीवन इतना बेकार और बोदा है कि वह जीने के लायक ही नहीं रहा? वे अपने आपसे बहस करने लग जाते। खिड़की चाहे रेल की हो या होटल के कमरे की, उसमें से वे दूर क्षतिज तक आकाश के टुकड़े को देखते रहते-अपलक, अविराम। अपने घर में होते तो वरिष्ठता का बोझ उतार नहीं पाते। परिवार के मुखिया होने का अहसास उन्हें अतिरिक्त दबाव से दबाए रखता। यह वरिष्ठता, यह जेठापन, यह मुखियागिरी उतार फेंकने की इच्छा होते हुए भी वे इसे ओढ़े रहते। घर से बाहर जाते तो बच्चे उनको चरण-स्पर्श करके विदा करते। बाहर से ज्यों ही घर लौटते, दरवाजे पर ही बच्चे उनको पाँवाधोक करते। वे सिहरते हुए आशीर्वाद देते और पाते कि इस एक ही संस्कारशीलता ने उनको फिर से वरिष्ठ बना दिया है। सिर्फ वे और अकेले वे इस घर में बड़े हैं, बाकी सब छोटे हैं।
इसी मानसिक विचार-जाल में गले-गले तक फँसे ख्याति बाबू को एक दिन उनके बारह बरस के पोते नमन ने घेर लिया। होना यह था कि ख्याति बाबू कोई बात शुरु करते लेकिन बात शुरु करने का सुलभ प्रयत्न नमन ने ही कर लिया।
ख्याति बाबू ने नमन का सिर सहलाते हुए कहा, ‘बोलो नमन बेटे! क्या बात है?’
’दादाजी, हमको पढ़ाया जाता है कि हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। देश में आजादी 15 अगस्त 1947 के दिन आई। क्या यह सच है?’ नमन का सीधा और सरल सा सवाल था।
‘हाँ बेटे, यह सच है कि हमारे देश में आजादी 15 अगस्त 1947 के दिन आई।’ ख्याति बाबू ने नमन की जिज्ञासा का शमन किया।
‘अगर यह 15 अगस्त 1947 के दिन आई तो फिर दादाजी! यह आजादी गई कहाँ थी?’ नमन का कुँआरा सवाल था।
ख्याति बाबू भौंचक नमन का चेहरा देखते रह गए। उनकी शिराओं में खून का प्रवाह पल भर को ठिठक सा गया। वे क्या उत्तर देते? उनकी सारी आयु का चिन्तन एक चिनगारी की चपेट में था। आजादी के बादवाली पीढ़ी को इस बात पर विश्वास ही नहीं है कि यह देश कभी गुलाम भी रहा होगा। भारत की गुलामी की कल्पना भी हमारे बच्चे नहीं कर पाएँगे। इतना बड़ा देश आखिर दास कैसे हो सकता है?
जब पीढ़ियों के प्रश्नों के उत्तर हमारे पास नहीं होते हैं, तब हम करते क्या हैं? ख्याति बाबू ने तत्काल रास्ता निकाला-‘कतरा जाओ।’ नमन से कहा, ‘नमन राजा! किसी दिन फुरसत में तुमको हम बताएँगे कि 15 अगस्त, 1947 से पहले आजादी कहाँ गई थी।’
दादा और पोते की बातचीत में ख्याति बाबू की पत्नी और बहू भी शामिल होने के लिए आ पहुँचीं। दादी को गर्व था कि उसका पोता कितना प्रखर और मुखर है। विनोद करती हुई बोलीं, ‘जब बच्चों के सवालों का ठीक से उत्तर नहीं दे पाते हो तो तारीख पेशी बढ़ाते क्यों हो? साफ मना क्यों नहीं करते हो कि मुझे नहीं मालूम? अपने बच्चों से पराजित होने का सुख कब देखोगे?’ और नमन को पुचकारते हुए बोलीं, ‘बेटे! ऐसे टेढ़े-मेढ़े सवाल नहीं पूछा करते। तेरे दादाजी लोग झूठे घमण्ड और दम्भ में मर जाएँगे, पर कहेंगे नहीं कि उन्हें नहीं मालूम। जा, अपनी पढ़ाई-लिखाई कर या फिर गेंद-बल्ला उठा और मैदान में खेल।’
ख्याति बाबू अपने पराजय-बोध में डूबे, नमन की दादी ने जो कुछ कहा था, उसे अपने अनुभव और उम्र के तराजू पर तौलते रहे। एक परास्त हँसी हँसते हुए उन्होंने पूछा, ‘अच्छा नमन बेट! आज के साक्षात्कार में और कुछ?’
’अच्छा दादाजी! एक बढ़ई से पूछो कि तू क्या कर रहा है, तो वह कहता है मैं लकड़ी की चौखट बना रहा हूँ। मोची से पूछो कि तू क्या कर रहा है, तो वह कहेगा कि मैं जूता गाँठ रहा हूँ। लुहार से पूछो कि भाई, तुम क्या कर रहे हो, तो वह कहेगा कि मैं लोहा पीट रहा हूँ। किसान से पूछो कि काका, क्या कर रहे हो, तो वह उत्तर देगा कि मैं अपना खेत जोत रहा हूँ। मजदूर से पूछो कि भैया, क्या हो रहा है, तो वह कहेगा कि मैं कारखाना चला रहा हूँ। मास्टर पढ़ाता हुआ मिलेगा। यानी किसी से पूछो कि क्या कर रहा है, तो वह अपने उस काम को बताएगा, जो वह कर रहा होता है। पर अगर आप किसी राजा या नवाब से पूछो कि राजाधिराज! आप क्या कर रहे हैं? तो वह कहेगा कि मैं आराम कर रहा हूँ। नवाब कहेगा कि मैं शिकार करने जा रहा हूँ। ठीक है ना?’ नमन का सवाल था।
दादाजी की आँखें फटी-की-फटी रह गईं। पोता-ठीक ही बोल रहा था। मात्र बारह बरस का पोता अगर यह विवेचना करे तो ख्याति बाबू को रोमांच हो आना सहज था। वे नमन को अपनी बाँहों में लेकर सीने से लगाने के लिए ललक पड़े।
नमन अपनी अल्हड़ता में खलल होती देख रहा था। उसने कहा, ‘दादाजी! आपके जमाने में ऐसे सैकड़ों राजे-महाराजे थे, जो न काम करते थे, न काम करनेवालों को मान-सम्मान देते थे। अब आप समझ गए होंगे कि हमारा भारत परदेशियों का गुलाम क्यों हो गया था? चलिए, आप बॉलिंग करेंगे या बैटिंग? थोड़ी देर मेरे साथ खेल लीजिए, सब ठीक हो जाएगा।’
ख्याति बाबू ने मन-ही-मन प्रभु को धन्यवाद दिया। पीढ़ियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई हैं! इन बच्चों के पास अपनी इबारतें हैं, अपने अनुवाद हैं, अपनी समीक्षाएँ हैं, अपनी शैली है, अपना तेवर है, अपनी दृष्टि है, अपना सोच और अपनी परिभाषाएँ हैं। उनके मन की निराशा का कुहरा एकाएक छँट गया। पहले वे हलके हुए, फिर उत्फुल्ल हो गए। बहू को आवाज देकर बोले, ‘बहू! बेटी! इस बच्चे की नजर उतार दे। यह पूरी पीढ़ी की नजर उतारने का प्रसंग है।’
नमन बाहर मैदान में खेलने निकल गया। ख्याति बाबू समझ नहीं पा रहे थे कि अपनी आँखों को किस दिशा की तरफ टिकाएँ? परेशान ख्याति बाबू ने अपनी आँखें अपनी पत्नी के चेहरे पर गड़ा दीं। वे मुसकरा रही थीं। खिलखिलाते हुए उन्होंने ख्याति बाबू से पूछा, ‘बुलाऊँ नमन को?’
अब तक वे बिलकुल सहज हो आए थे। आश्वस्त होते हुए बोले, ‘हर घर में एक ख्याति बाबू बैठा हुआ है और हर आँगन में एक नमन खेल रहा है। मैं अब समझ पाया हूँ कि हम इन बच्चों से कतराते क्यों हैं? सच कहूँ शुभांगी! मैं जब नमन की उम्र में था, तब मेरी मक्खियाँ भी नहीं उड़ती थीं। देश कहाँ से कहाँ पहुँच गया। बच्चे कैसे से कैसे हो गए! एक तुम-हम हैं कि रोज इन बच्चों को गालियाँ दे रहे हैं, हतोत्साहित कर रहे हैं, अपनी कुण्ठाएँ और वर्जनाएँ इन पर लाद रहे हैं, अपनी निराशाएँ, इन्हें परोस रहे हैं, अपना अँधेरा इनपर डाल रहे हैं। इसने तो मेरी पूरी क्लास ले ली और मैं सौ में से दो नम्बर भी नहीं पा सका। मेरा पोता तो अपने दादा का भी दादा निकला।’
ख्याति बाबू का सारा घर, सारा आँगन, सारा परिवेश नए उजाले से गया। एक बार उनके मन में आया कि वे बाहर मैदान में जाकर नमन के साथ उसकी क्रिकेट टीम में शामिल होकर खेलें। पर उठते-उठते वे फिर बैठ गए। वे समझ नहीं पाए कि वे बॉलिंग के लायक हैं बैटिंग के।
अपनी कल्पनाओं में वे नमन को कभी गेंद फेंकते हुए देखने लगे तो कभी रन बनाते दौड़ते हुए। कभी आउट होते तो कभी आउट करते।
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‘बिजूका बाबू’ की तेरहवी कहानी ‘जमाईराज’ यहाँ पढ़िए।
‘बिजूका बाबू’ की पन्द्रहवी कहानी ‘होली’ यहाँ पढ़िए।
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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