छात्र (श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की बीसवीं कहानी)

 

श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की बीसवीं कहानी  


यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



छात्र

अब अगर किस्मत ही काली स्याही से लिखी गईं हो तो कोई क्या करे। तत्पर भाई का जब-जब साबका पड़ा, ऐसे ही लोगों से पड़ा। वैसे उनकी  दुनिया विद्यार्थियों की दुनिया रही। छात्र संसार में उन्हें हमेशा सम्मानित स्थान मिला। अगर यूनियनबाजी करते तो शायद वे एकछत्र छात्र नेता होते, ‘स्टूडेण्ट लीडर’ कहलाते। आड़े वक्त छात्रों के काम आना उनका व्यसन रहा। लेकिन इन दिनों में उनका अनुभव यह रहा कि छात्रों के सामने आड़ा वक्त ज्यादा आने लगा। कभी-कभी तो सारा-का-सारा दिन उन्हें इस ‘आड़े वक्त’ को ‘खड़ा वक्त’ बनाने में ही लगाना पड़ जाता है। एक आता है तो एक जाता है। पहला जाता है तो दूसरा आ जाता है। काम भी, उनके टेढ़े-मेढ़े।

एक तो विश्वविद्यालय वाले शहर में तत्पर भाई का निवास। फिर खुद का सामाजिक और राजनीतिक रुतबा। सबसे ज्यादा कष्टदायक बात यह कि तत्पर भाई ने किसी को ना कहना नहीं सीखा। उनके साथी मित्र उनकी इस आदत को लेकर न जाने कैसे-कैसे मजाक करते हैं। प्रचलित मजाक यह है कि अगर तत्पर भाई को भगवान ने कहीं लड़की बना दिया होता ये दस-बीस हजार लोगों का जीवन तबाह कर देते। तत्पर भाई हैं कि सारी बातों को हँसकर पी जाते हैं। किन्तु यदा-कदा वे ऐसे करिश्मे भी कर बैठते हैं कि बड़े-बड़े बीहड़ छात्र नेता तक अपनी दादागिरी भूलकर उनके पाँव पकड़ लेते हैं। छात्र नेताओं और छात्र संगठनों की दीम लगी खोखली नींव के हजार किस्से तत्पर भाई की जबान पर हैं। कभी-कभी तो वे खुद ही कह बैठते हैं कि ऐसी खोखली नींव पर छात्र राजनीति किस तरह छात्रों के भविष्य का स्वन-महल खड़ा कर सकेगी। पर तब भी वे अपनी सदाशयता और ‘आड़े वक्त को खड़ा वक्त’ बनाने की तत्परता से बाज नहीं आते। आखिर तत्पर भाई जो ठहरे! तब भी कल उन्होंने कमाल कर दिया।

दो नवयुवक छात्र नेता उनके किसी सुपरिचित सज्जन का अनुशंसा-पत्र लेकर तत्पर भाई के सामने खड़े हो गए। तत्पर भाई ने पत्र पढ़ा। दोनों नवयुवकों को सादर बैठाया। उनका चाय-नाश्ता करवाया। फिर विस्तार से परिचय पूछा। दोनों को भरपूर आत्मीयता से अपनापन दिया। मन-ही-मन सोचा कि अगर ये फिल्म या किसी टी. वी. सीरियल में ट्राई करते तो हीरो या साइड हीरो अवश्य बनाए जाते। पर उन्होंने अनुशंसा-पत्र की गम्भीरता को देखते हुए उनसे कोई छेड़-छाड़ नहीं की। वे सीधे काम की बात पर आ गए।

‘हाँ तो हीरो! तुम्हारी सूचना पक्की है कि तुम्हारी कॉपियाँ यहीं आई हुई हैं?’ तत्पर भाई का प्रश्न था।

‘जी सर! हमारी सूचना पक्की है। कॉपियाँ यहीं हैं और जायसवाल सर आपके अच्छे मित्र ही नहीं, आपसे उपकृत भी हैं। वे आपका कहा टालेंगे

नहीं। हमारे भविष्य का सवाल है। अगर कुछ नम्बर बढ़ जाएँगे तो...।’ दोनों में से एक बोला। दूसरा अपनी कमीज पर पड़ी सलवटों को ठीक करता हुआ जीन्स की जेब से कंघा निकालक़र अपने बालों में लच्छे डालता तत्पर भाई की बैठक में लगे शीशे का उपयोग करता रहा।

‘चलो, जायसवालजी से बात कर लेते हैं।’ और तत्पर भाई उठ खड़े हुए।

यह सुनते ही दोनों चौंक गए।

‘सर! आप तो फोन कर दीजिए। जायसवाल सर से हम मिल लेंगे।’ एक बोला।

‘नहीं भाई! जो कुछ होना है, वह तुम्हारे सामने ही होना है। चलो, वक्त बरबाद मत करो।’ तत्पर भाई की तत्परता ने दोनों को कुछ सोच में डाल दिया।

और तत्पर भाई आधे घण्टे के भीतर ही जायसवालजी के घर पहुँच गए।

जायसवालजी को कुछ भी नया नहीं लगा। वे समझ गए कि यह नम्बर बढाने का चक्कर है। समय के सत्य से वे भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने केवल दोनों छात्रों से उनके विश्वविद्यालय का नाम पूछा। फिर परीक्षा केन्द्र का नाम पूछा। फिर स्वयमेव ही कह दिया, ‘हाँ। आपकी कॉपियाँ मेरे पास हैं। अभी उन्हें जाँचना शुरु नहीं किया है। बताइए अपने रोल नम्बर?’

दोनों ने अपने-अपने रोल नम्बर बताए।

जायसवाल सर ने एक बण्डल की तरफ इशारा किया, ‘उठाओ और निकालो अपनी-अपनी कॉपी।’

दोनों ने अपनी-अपनी कॉपी निकाली। तत्पर भाई देखते रहे। कॉपियाँ निकालकर वे जायसवाल सर को देने लगे। जायसवाल सर ने तत्पर भाई से कहा, ‘भाई! देख लो इन कॉपियों को। मेरी अपनी नौकरी दाँव पर लग ही रही है। खुद ही जाँच कर नम्बर दे दो। शेष मेरी जिम्मेदारी।’

दोनों खुश। तत्पर बाबू पानी-पानी। पर वे बात को पेंदे तक समझ गए। उन्होंने कॉपियों के पन्ने देखे। मुश्किल से एकाध सवाल का उत्तर लिखने की कोशिश की गई थी। शेष सारी कॉपी कोरी पड़ी थी।

तत्पर भाई ने दोनों से उनके राजनीतिक दलों की जानकारी ली। दोनों अलग-अलग राजनीतिक दलों के छात्र नेता थे।

तत्पर भाई ने अपना खुद का कलम एक छात्र को दिया। जायसवाल सर से एक कलम माँगकर दूसरे हीरो को दिया। बण्डल पर जो प्रश्नपत्र था वह दोनों के सामने रखा। पुस्तकों की अलमारी की तरफ इशारा किया। पूरी गम्भीरता से कहा, ‘हीरो! सामनेवाली अलमारी से इन सवालों के उत्तरवाली तुम्हारी कोर्स बुक्स रखी हैं। मैं तुम लोगों के भोजनादि की व्यवस्था करवाता हूँ। चाय-पानी यहाँ मिल जाएगा। जायसवालजी के सामने बैठो। पुस्तकें लो। प्रश्नपत्र यह रहा। पूरे छह घण्टों का समय आप लोगों को मैं देता हूँ। अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में अपने हाथ से सही उत्तर लिख दो। मार्किंग तुम्हारे सामने हो ही जाएगा। शाम की ट्रेन से अपने घर के लिए निकल जाना। समझ गए!’

जायसवाल सर चुप।

 दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। अपनी कॉपियों को देखा। फिर एक-दूसरे को देखा। कभी जायसवाल सर को तो कभी तत्पर भाई की तरफ देखकर फिर से एक-दूसरे को देखा। कमरे में सन्नाटा गहरा गया।

एक बोला, ‘हम बड़ी उम्मीद से आए थे, सर।’

‘आप तो हमें टाल रहे हैं, सर!’ दूसरा बोला।

तत्पर भाई ने धीरे से पूछा, ‘आप हम दोनों में से किससे कह रहे हैं? जिससे भी कह रहे हों उसकी आँखों में आँखें डालकर कहो। हमें पता तो चले कि आपको कौन टाल रहा है!’

‘खैर सर! हम जा रहे हैं, पर आप यह अच्छा नहीं कर रहे हैं।’ एक बोला।

तत्पर भाई ने एक सुझाव और रखा, ‘अच्छा! चलो! ऐसा करते हैं कि सवालों के जवाब जायसवाल सर बोल देंगे, तुम अपने हाथ से लिख तो दो।’

‘अब छोड़िए भी, सर! यही सब करना होता तो हम आपके पास क्यों आते!’ पता नहीं दोनों में से कौन बोला।

न किसी ने धन्यवाद दिया, न किसी ने धन्यवाद लिया।

दोनों उठकर बैठक से बाहर होने लगे।

‘ना! ना!! ऐसे नहीं। अपनी कॉपियों को वापस उसी बण्डल में बाँधकर वहीं रख दो, जहाँ से तुमने उठाया था।’

दोनों मेधावी छात्रों ने जब उस बण्डल को बाँधना शुरु किया तो तत्पर भाई को लगा जैसे वे अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों और छात्र संगठनों की गतिविधियों का बण्डल बाँध रहे हैं।

तत्पर भाई ने एक बार फिर काली स्थाही से लिखी किस्मत को पढ़ने की कोशिश की।

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‘बिजूका बाबू’ की उन्नीसवी कहानी ‘पुल पर एक शाम’ यहाँ पढिए।

‘बिजूका बाबू’ की इक्कीसवी/अन्तिम कहानी ‘विकृत’ यहाँ पढिए।



कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 

 


 

 

  

 


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