आदरणीय दादा श्री बालकवि बैरागी से जुड़ी यादों का छोटा-मोटा, खजाना है मेरे पास। अब दादा नहीं हैं तो ये यादें एक-के-बाद आँखों के सामने उभरती रहती हैं। प्रत्येक याद अपने आप में एक पूरी दुनिया जैसी लगती है। सच कहूँ तो ये यादें जीवन के अनमोल सूत्र लगती हैं।
दादा जबसे नीमच निवासी हुए तब से ही उनसे सम्पर्क हो गया था। अब तो यह भी याद नहीं कि नीमच में उनसे पहली मुलाकात कब, कैसे, किसके साथ हुई थी। लेकिन जब तक वे नीमच में रहे तब तक सप्ताह में दो-तीन बार तो उनसे मिलना होता ही था। उनसे हुई प्रत्येक मुलाकात एक यादगार संस्मरण होती थी।
मेरी चिट्ठियाँ पोस्ट कर दीं?
पत्राचार दादा की पहचान था। मिलनेवाले प्रत्येक पत्र का जवाब देना उनका स्वभाव था। यदि कोई अपना पता नहीं लिखता तो दादा परेशान हो जाते। पत्र लिखनेवाला यदि आसपास के गाँव-कस्बे का होता तो अपने मिलनेवालों से उसका अता-पता जानने की कोशिश करते। वे कहते थे कि पत्र का जवाब देना जिम्मेदारी ही नहीं, धर्म है। पत्र भेजनेवाला, डाक के डब्बे में पत्र डालते ही जवाब की प्रतीक्षा करने लगता है। दादा ने कभी साफ-साफ तो नहीं कहा लेकिन अब मैं अन्दाज लगाता हूँ कि मिलनेवाले पत्र दादा को सक्रिय बने रहने में मदद करते थे।
दादा से मिलकर जब भी लौटता, वे डाक के डब्बे में डालने के लिए पत्रों की गड्डी थमा देते। ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि दादा ने पोस्ट करने के लिए पत्र न दिए हों। इस मामले में उनके यहाँ कोई छुट्टी नहीं होती थी। उनका पोस्ट ऑफिस सातों दिन चलता था।
पत्रों को डाक के डब्बे में डाल दिए जाने की खातरी करने के मामले में दादा चौकन्ने रहते। जो भी पत्र ले जाता था, उसकी जिम्मेदारी केवल उन्हें डब्बे में डाल देने तक सीमित नहीं रहती थी। डब्बे में डाल देने की खबर करना भी उसकी जिम्मेदारी होती थी। इस मामले में वे, हम नियमित मिलनेवालों में से भी किसी को छूट नहीं देते थे। यदि पत्र ले जानेवाले ने सम्भावित समय तक खबर न की तो दादा अपनी ओर से फोन कर लेते थे - ‘मेरी चिट्ठियाँ पोस्ट कर दीं?’
दादा की इस आदत से मुझे घबराहट होती थी और डर भी लगता था। इसलिए मैं दादा के घर से निकलते ही सबसे पहला काम, चिट्ठियाँ डब्बे में डालने का करता और वहीं से, डब्बे के पास से ही दादा को खबर करता।
विश्वसनीय भी अविश्वसनीय
दादा किसी भी बात पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं करते थे। सुनी-सुनाई बात पर तो बिलकुल ही नहीं। किसी की बुराई सुनना उन्हें पसन्द नहीं था। ऐसी बातों को वे अनसुनी कर दिया करते थे। जिस बात में उनकी रुचि होती, उसके लिए वे अपने स्तर पर पूरी पूछताछ करते। अब ऐसा लगता है कि दादा के पास, किसी बात की सच्चाई जानने का कोई मन्त्र था। दादा की इस आदत के कारण फालतू बातें करनेवाले उनसे दूर ही रहते थे।
हमने कभी ‘सूखी’ चाय नहीं पी
दादा के अतिथि-सत्कार को अजब-गजब कहा जा सकता है। इस मामले में दादा और ताईजी में गजब का तालमेल था। दादा कभी कुछ नहीं कहते लेकिन ऐसा कभी नहीं हुई कि ताईजी ने ‘सूखी’ चाय पिलाई हो। चाय के साथ, खाने के लिए हमेशा कुछ-न-कुछ होता ही था। और कुछ नहीं तो बिस्किट ही सही लेकिन कोरी चाय बिलकुल नहीं। हमारे लिए चाय आती, दादा एक नजर ट्रे पर डालते और तसल्ली भरी साँस लेते।
जो चाहे सो आए, जब चाहे आ जाए
लोगों से मिलने-मिलाने के मामले में दादा के यहाँ वीआईपी कल्चर कभी नहीं रहा। उनसे मिलने के लिए समय लेना जरूरी नहीं था। हाँ, यह तलाश करना जरूरी था कि दादा घर पर हैं या नहीं। यदि दादा घर पर हैं तो फिर ‘अपाइण्टमेण्ट’ का कोई झंझट नहीं। जाओ, दरवाजा खोलो और दादा से मिल लो।
दूसरे शहरों से नीमच आनेवाले लोग दादा से मिलने की इच्छा जताते और अपने मेजबान से कहते - ‘बैरागीजी से मुलाकात का समय तय करवा दीजिए।’ मेजबान कहता - ‘समय तय करने की कोई जरूरत नहीं। तलाश कर लेते हैं कि दादा घर-पर हैं या नहीं। आपको जब भी फुरसत हो बता देना, मिलने चले चलेंगे।’ सुन कर मेहमान को अविश्वास और ताज्जुब होता - ‘इतने बड़े कवि, साहित्यकार से मिलना सच्ची में इतना आसान है?’ लेकिन जब वे दादा से मिलते तो उन्हें अपने मेजबान की बात पर भरोसा तो होता लेकिन उनका ताज्जुब फिर भी बना रहता - ‘इतने बड़े.........!’
दादा अपने सभी मिलनेवालों से, चाहे परिचित हों या अपरिचित, बड़े अपनेपन से मिलते थे। उनकी एक खास बात यह थी कि वे बैठे हुए सब लोगों का परिचय सबसे कराते थे। याने, दादा से मिलने के लिए बैठे लोग आपस में भी परिचित हो जाते थे। तब वहाँ कोई भी अपरिचित नहीं रह जाता था।
उन्हीं से जाना संसद का मतलब और महत्व
दादा, संसद के दोनों सदनों के सदस्य रहे हैं। बातों ही बातों में वे संसद के कामकाज, परम्पराओं, प्रक्रियाओं की बारीकियाँ बताते रहते थे। संसद की बैठकों के बारे में वे खुद के प्रति बहुत ही सख्त थे। संसद की बैठकों में अपनी उपस्थिति नियमित रूप से दर्ज कराना वे अपना ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानते थे। लोक सभा सदस्यता के दौरान कहते थे - ‘मेरे लोगों ने मुझे लोक सभा की कार्रवाई में भाग लेने के लिए चुना और भेजा है। इसलिए लोक सभा सत्र में उपस्थित रहना मेरी पहली, बुनियादी जिम्मेदारी है।’
राज्य सभा के लिए उन्हें, मतदाताओं ने नहीं, पार्टी ने चुना था। हमें लगा था कि वे राज्य सभा की बैठकों को उतनी गम्भीरता से नहीं लेंगे जितनी गम्भीरता से लोक सभा की बैठकों को लेते थे। लेकिन दादा ने हमारी इस धारणा को ध्वस्त कर दिया। उनका कहना था कि लोक सभा की सदस्यता तो केवल एक संसदीय क्षेत्र के प्रति जवाबदेह होती है जबकि राज्य सभा की सदस्यता तो पूरे प्रदेश के लिए जवाबदेही होती है। इसलिए, इस सदन की बैठकों का महत्व तो और ज्यादा है। दादा की बातों से ही हम लोग संसद के दोनों सदनों का महत्व और अन्तर समझ पाए थे।
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संस्मरणों की दूसरी किश्त यहॉं पढिए
संस्मरणों की तीसरी/अन्तिम किश्त यहॉं पढिए
नीमच में, दादा के परम्-आत्मीय और पारिवारिक, भरोसेमन्द बने रहे श्री कमल भाई मित्तल (चित्र में दाहिने) अपने छोटे भाई प्रवीण मित्तल (चित्र में बाँये) के साथ ‘मित्तल जनरल स्टोर्स’ के नाम से किराना और जनरल आयटमों का व्यापार करते हैं। नीमच के तिलक मार्ग पर, जाजू भवन के पास, दिगम्बर मांगलिक भवन के ठीक सामने, बालाजी मन्दिर के बाहर इनकी दुकान है। इन्हें नीमच के व्यापारी समुदाय और अग्रवाल समाज में पहली पंक्ति में जगह हासिल है। वे मोबाइल नम्बर 94240 36448 तथा 70004 65156 पर उपलब्ध हैं।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-10-2021) को चर्चा मंच "पितृपक्ष में कीजिए, वन्दन-पूजा-जाप" (चर्चा अंक-4209) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चयन के लिए बहुत- बहुत धन्यवाद।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत सुंदर संस्मरण...कहा भी गया है कि व्यक्ति की असली पहचान इस बात से होती है कि उसके जाने के बाद लोग उसे कैसे याद करते हैं.... ऐसे संस्मरण ही व्यक्ति की सच्ची पूंजी हैं...
ReplyDeleteबहुत शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteमन में उतरता संस्मरण।
साधुवाद।
ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी कने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
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