‘वामन’ शास्त्रीजी ने विराटता और विनम्रता से बैरागीजी की अहमन्यता को शालीनता से क्षमा किया

मूल आलेख से पहले, कृपया इसकी अन्‍तर्कथा पढ़िए

आदमी की संस्कारशीलता उसके सार्वजनिक आचरण से प्रकट होती है। ‘कुर्सी’ अच्छे-अच्छों का ‘दिमाग खराब कर देती है।’ सिंहासनारूढ़ होकर विनम्र, शालीन और संस्कारवान बने रहना असम्भव नहीं तो दुसाध्य तो होता ही है। आदमी की संस्करशीलता ऐसे ही समय में परीक्षारत रहती है। इस अग्नि परीक्षा में सफल वही होता है जिसके रक्त-मज्जा में, अभावों से संघर्षों की अनुभूतियाँ और शोषित-पीड़ित मानवता की वेदनाभरी आवाजें प्रवाहित हो रही हों। देश के प्रधान मन्त्री जैसे शीर्षस्थ पद पर बैठा आदमी कितना विनम्र और शालीन हो सकता है या कि होना चाहिए, यह घटनाक्रम इसका एक सुन्दर और प्रेरक उदाहरण है। आज के समय और सन्दर्भ में तो यह प्रसंग अविश्वसनीय ही लगेगा। ‘ऐसे’ प्रधान मन्त्री की तो अब हम, कल्पना भी शायद ही कर पाएँ।     

मैं, इस प्रसंग के आधिकारिक विवरण की तलाश में था। दादा श्री बालकवि बैरागी से यह घटनाक्रम एकाधिक बार सुनने के अवसर आए तो जरूर किन्तु हर बार, किसी न किसी व्यवधान के कारण दादा की बात अधूरी रह गई। पूरी बात जानने के लिए मैंने जब भी दादा से आग्रह किया तब ‘छोड़ यार! यह कोई बड़ी बात नहीं।’ कह कर दादा ने मेरी जिज्ञासा पर विराम लगा दिया।

गए दिनों, दादा की एक रचना तलाशते हुए, अचानक ही, राजस्थान साहित्य अकादमी की वेब साइट पर, श्री ग्यारसीलालजी सैन का यह संस्मरण मिल गया। मेरी एक जिज्ञासा, अनायास ही पूरी हो गई। मैंने फौरन ही ग्यारसीलालजी से बात की। यह संस्मरण मूलतः ‘मधुमति’ पत्रिका के फरवरी 2017 के अंक में छपा था। ग्यारसीलालजी ने ‘मधुमति’ का अंक दादा को भेजा था तो जवाब में दादा ने भावाकुलता से ओतप्रोत पत्र से जवाब दिया था। ग्यारसीलालजी की यह बात सुनकर मैंने दादा के इस पत्र के बारे में जानना चाहा तो बोले कि दादा का वह पत्र उनके पास सुरक्षित है। मेरे आग्रह पर ग्यारसीलालजी ने वह पत्र भी उपलब्ध करा दिया। उस पत्र ने समूचे प्रसंग को आधिकारिकता और प्रामाणिकता प्रदान कर दी।ग्यारसीलाजी का आलेख तथा दादा का उपरोल्लेखित पत्र यहाँ प्रस्तुत है। 

इसे पढ़ते हुए, कृपया एक बात ध्यान में रखिएगा। कवि सम्मेलनवाले उस काल-खण्ड में पूरा देश पाकिस्तान पर विजय के अभूतपूर्व गर्वित भाव से विजयोल्लास में डूबा हुआ था। ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा जनमानस पर छाया हुआ था। ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कोष’ के लिए पूरे देश में धन-संग्रह अभियान चल रहा था। यह अभियान पूरी तरह से गैर-सरकारी था। गाँवों-कस्बों-शहरों में विभिन्न संगठन-संस्थाएँ अपने-अपने स्तर पर धन संग्रह कर रही थीं। उस दौर के कवि सम्मेलनों मे दादा ने भी अपने स्तर पर यह अभियान चला रखा था। कविता पाठ के दौरान वे, अपने कुर्ते/शर्ट की झोली बनाकर श्रोताओं से राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए दान माँगते थे। हर जगह उन्हें अपेक्षातीत रकम मिलती थी। दिल्लीवाले इस कवि सम्मेलन में भी दादा ने यही किया था। यहाँ संग्रह के सारे रेकार्ड टूट गए थे। लोगों ने इतने नोट दिए थे कि ‘झोलियाँ’ भर गई थीं। दादा ने उन्हीं झोलियों में से, ‘लबालब अंजुरी भर नोट’ शास्त्रीजी को भेंट किए थे। सैनीजी के इस आलेख का मूल शीर्षक कुछ और था। मैंने इसे बदल कर, दादा के एक वाक्‍य को ही शीर्षक बना दिया है। - विष्णु बैरागी।
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‘वामन’ शास्त्रीजी ने विराटता और विनम्रता से
बैरागीजी की अहमन्यता को शालीनता से क्षमा किया
ग्‍यारसीलाल सैन


श्रोताओं से प्राप्त रकम, सांकेतिक रूप से, शास्त्रीजी को भेंट करते हुए दादा श्री बालकवि बैरागी। इस चित्र के सन्दर्भ में दादा हर बार कहते थे - ‘शास्त्रीजी के हाथों में इतने नोट, इससे पहले या बाद में कभी नहीं देखे गए।’ यह चित्र दादा की पोती रूना (रौनक बैरागी) ने अपने संग्रह से उपलब्ध कराया है।

लाल किले पर होने वाले कवि सम्मेलनों में सदैव बुलाये जाने वाले बैरागी जी का एक अनूठा  प्रसंग मेरी जानकारी में है। 

दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी सम्मेलन के सर्वेसर्वा पण्डित श्री गोपालप्रसाद व्यास ने दिल्ली के एक श्रेष्ठ सभागार में प्रधान मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के मुख्य आतिथ्य में कवि सम्मेलन का आयोजन किया। सन् 1965 का युद्ध पाकिस्तान हार चुका था, पूरे देश में उत्साह व उमंग का वातावरण था, हमारे समाचार पत्र हमारी सेना के शौर्य से रंगे पडे़ थे, पाक के टूटे टैंक भारतीय नगरों के चौराहों पर सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रखे जा रहे थे। 

उन दिनों बैरागीजी की दो कविताओं का बहुत बड़ा हल्ला था। एक थी ‘जब कि नगाड़ा बज ही गया है सरहद पर शैतान का, तो नक्शे पर से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’। और दूसरी थी ‘दो दिन और बनाए रखते इस बलिदानी दौर को, लगे हाथ निपटा ही देते पिण्डी और लाहौर को’। ये तेवर इनकी अनुभूतियो के वे तेवर थे जो शब्दों से कविता में ढल गये और वक्त की आवाज बन गये। जमाने ने देखा कि कलम के कण्ठ में भी स्वर होता है जो चिंगारियों की शक्ल में निकलता है।

कवि सम्मेलन का सभागार खचाखच भरा था, शास्त्री जी पधार चुके थे, व्यासजी संचालन कर रहे थे। इन्हें इनके क्रम पर पुकारा गया। शास्त्रीजी,  नेहरूजी के जमाने से बैरागीजी से भली-भाँति परिचित थे। शास्त्रीजी ने परिचित नजरों से बैरागीजी को देखा। बैरागीजी ने उन्हें प्रणाम किया। तभी व्यास जी ने आदेश दिया - “हाँ बैरागी! ‘लगे हाथ’ हो ही जाये।” और बैरागीजी ने अपनी शैली में दहकते शोलों को शब्दों में ढालते हुए स्वर उठाया ‘दो दिन और बनाए रखते उस बलिदानी दौर को, लगे हाथ निपटा ही देते पिण्डी और लाहौर को’। सारा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से, रुपयों की वर्षा से, भारत माता की जय से, जय जवान जय किसान, तक जा पहुँचा।

बैरागीजी अपनी कविता के चौथे छन्द तक पहुँचे ही थे कि एक कर्मचारी, अपनी सरकारी वेशभूषा में चाय की ट्रे लिए मंच की ओर बढ़ा। बैरागीजी की एकाग्रता भंग हो गई। वे लगभग उत्तेजित होकर चीखे - ‘मैं खून की बात कर रहा हूँ और आप चाय लेकर घुस आये! यह चाय जिसके लिए भी लाये हो, कवि सम्मेलन के बाद पिला देना।’ चाय वाला वापस लौट गया। सभागार में फिर जय-जय व जिन्दाबाद के नारे। कविता समाप्ति पर सारे नोट राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए शास्त्रीजी को सौंप कर प्रणाम किया। वंस मोर होता रहा।

अगले दिन बैरागीजी को मेरठ में कवि सम्मेलन पढ़ना था। मेरठ से लौट कर, दो दिन बाद बैरागीजी आकर व्यास जी से मिले। आशीर्वाद देते हुए व्यासजी बोले - ‘जिस चाय को तूने दुत्कार कर वापस करवा दी थी, पता है वह चाय किसके लिए थी? वह चाय भारत के प्रधान मन्त्री शास्त्री जी के लिए थी।’ कहकर व्यासजी ने एक पत्र बैरागीजी को थमा दिया। पत्र शास्त्रीजी का था जो व्यासजी को सम्बोधित था। लिखा था - ‘कल वाला कवि सम्मेलन बहुत सफल रहा। आपको और कवियों को बधाई। कवि सम्मेलनों के मंच का अनुशासन मैं नहीं जानता था इसलिए मैं अच्छा श्रोता नहीं बन पाया। मेरे कारण आपको और कवियों को जो असुविधा हुई उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।’ नीचे शास्त्री जी के हस्ताक्षर थे।

बैरागीजी ने बताया - ‘मैं अपराध बोध से मर रहा था और व्यासजी आँसू पोंछ रहे थे। वामन अपनी विराटता और विनम्रता से मेरी अहमन्यता को शालीनता से क्षमा कर रहा था।’ 
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इस प्रसंग के सन्‍दर्भ में, श्री ग्यारसीलालजी सैन के नाम दादा का पत्र


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श्री ग्यारसीलालजी सैन : 1937 में, राजस्थान के झालावाड़ कस्बे में, 1937 में जन्मे श्री ग्यारसीलालजी सैन, ग्रन्थ समीक्षक के रूप में हाड़ौती-मालवा के सुधि सहित्यकारों में सादर पहचानेे जाते हैं। सम्भाग स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में आपके 125 से अधिक निबन्ध, ललित निबन्ध, समीक्षाएँ एवम् कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। राजस्थान शासन के पुलिस विभाग में विभिन्न पदों पर सेवाएँ देते हुए, 30 प्रशंसा-पत्रों एवम् नकद पुरुस्कार से पुरुस्कृत होकर, 1995 में पुलिस अधीक्षक कार्यालय कोटा (सिटी) अधीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए। 1995 में ही नगर परिषद् चुनाव में पार्षद निर्वाचित हो, 2000 तक के लिए वित्त कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। 1997 में अमरीका की ‘बायोग्राफिकल इंन्स्टीट्यूट ऑफ नार्थ केरोलिना’ द्वारा ‘फाइव थाउजण्ड पर्सनालिटीज ऑफ द वर्ल्ड’ में शामिल किए गए। ‘मेन ऑफ द ईयर महाप्रज्ञ जैन सन्त’ सम्मान से विभूषित। प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न सांस्कृतिक-साहित्यिक-सेवा संगठनों/संस्थाओं द्वारा सम्मानित। प्रकाशित कृतियाँ - ‘ट्रवेल पिक्चर्स’ (महाराजा राणा भवानीसिंह की, 1940 में 30 यूरोपीय देशों की यात्रा का हिन्दी अनुवाद), ‘अभिव्यक्ति का आत्मदान’ (निबन्ध, समीक्षा संग्रह) तथा काव्य संग्रह ‘कोमल-किसलय’। ‘हिस्ट्री, कल्चर एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ झालावाड़ स्टेट’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशनाधीन है। वर्ष 1998 से ‘सुधाकर साहित्य समिति’ के अध्यक्ष हैं। 85वें वर्ष की अवस्था में चल रहे ग्यारसीलालजी, स्वस्थ-चुस्त-दुरुस्त बने हुए हैं और स्वतन्त्र लेखन, अध्ययन एवम् समाज सेवा में सक्रिय हैं। मोबाइल नम्बर 91666 96587 पर आपसे बात की जा सकती है। डाक का पता - पुराने पोस्ट ऑफिस के पास, मंगलपुरा, झालावाड़ (राजस्थान) 326001. 
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