हम बच्चों का है कश्मीर

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की उनतीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




हम बच्चों का है कश्मीर

नेहरू चाचा ओ ऽ ऽ ऽ
नेहरू चाचा ओ ऽ ऽ ऽ

काश्मीर की धरती घर अब जो भी आँख उठायेगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जायेगा
भारत माता का कश्मीर
अमर तिरंगे का कश्मीर
वीर जवाहर का कश्मीर
हम बच्चों का है कश्मीर

फल-फूलों से जिस धरती की, कुदरत ने झोली भर दी
झेलम की कल-कल ने जिसकी, खुशहाली दूनी कर दी
देवदार के देव-वनों ने, निर्धतता को ठोकर दी
अपने तन पर जो सहती है, भारत माता की सर्दी
उस धरती को मेरे देश से नेहरू चाचा ओ ऽ ऽ ऽ
उस धरती को मेरे देश से कौन अलग कर पायेगा?
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जायेगा
भारत माता का कश्मीर

ग़र निशात का एक फूल भी, परदेसी ने तोड़ लिया
शालीमार की कलियों से गर, गैर ने नाता जोड़ लिया
अगर किसी ने यूँ इतरा कर, अपनी हद को छोड़ दिया
(तो) समझो उसने अपने हाथों, अपना माथा फोड़ लिया
परलय तक तो काश्मीर भी मेेरे चाचा ओ ऽ ऽ ऽ
परलय तो काश्मीर भी भारत का कहलायेगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी मिट्टी में मिल जायेगा
भारत माता का कश्मीर

बच्चा-बच्चा रखता है, विश्वास जहाँ कुर्बानी पर
बलिदानों को गर्व रहा है, जिसकी मस्त जवानी पर
नेताजी के नाम लिखे हैं, जिसकी लाल कहानी पर
वहाँ पसीना नहीं आयेगा, चाचा की पेशानी पर
तुम तो एक इशारा कर दो मेरे चाचा ओ ऽ ऽ ऽ
तुम तो एक इशारा कर दो, बाकी सब हो जायेगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जायेगा
भारत माता का कश्मीर
 
घूँसे वाले दोस्त हमारे, घूँसा लेकर आयेंगे
(तो) हम भी जैसा हमसे होगा, स्वागत करने जायेंगे
कड़वा बोल कभी भी अपने, मुँह पर हम ना लायेंगे
(पर) भारत माँ के दूध को चाचा, हरगिज नहीं लजायेंगे
घूँसा लेकर जो आयेगा नेहरू चाचा ओ ऽ ऽ ऽ
घूँसा लेकर जो आयेगा, तौबा करके जायेगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जायगा
भारत माता का कश्मीर

ऐटम वालों! मत इतराओ अजमा लो अपने ऐटम
नहीं रुकेगें मेरे देश में, निर्माणों के ये सरगम
यहाँ अहिसा सदा रखेगी, ऐसे ही अल्हड़ मौसम
क्या उजड़ेगा बम बाजी से, गाँधीजी का ये उपवन
मेरी भूमि पर गिरने में अब ऐटम वालों रे ऽ ऽ ऽ
मेरी भूमि पर गिरने में अब ऐटम भी शरमायेगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल जायेगा
भारत माता का कश्मीर

लालकिले की लाल दिवारों, चीख-चीख कर कह देना
दीवानों के दिल मचले हैं, नाप कफन के ले लेना
चालीस कोटि कफन खादी के, अरे जुलाहों बुन लेना
वहाँ तिरंगा लहरायेगा, दुनिया वालों सुन लेना
काश्मीर पर गैर का झण्डा दुनिया वालों रे
काश्मीर पर गैर का झण्डा, कभी नहीं फहराएगा
नेहरू चाचा! कसम तुम्हारी, मिट्टी में मिल, जाएगा
भारत माता का कश्मीर
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।






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