अब

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की छब्बीसवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




अब

चिड़िया नहीं चहकती, गैया नहीं रंभाती
कोई नाथ और जोगी, गाता नहीं प्रभाती
पूरब बुझा-बुझा है, ऊषा में दम नहीं है
किरणों का आज अपना कोई अहम् नहीं है
(तो) दिनकर का वंशज चुप हो, कोई वजह नहीं है
वो भी सुबह नहीं थी, ये भी सुबह नहीं है।।
अब तो...
अगन, गगन से झरे, धरा पर लपट उठे तो कोई बात बने
नौलख तारे बने अंगारे, तो बात भी रातों- रात बने।
अगन, गगन से झरे...

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आँगन-आँगन उतर रही हैं, अँधियारे की डोलियाँ
तहस-नहस कर दी हैं किसी ने, रक्त रची रांगोलियाँ
अपनी ही परछाई डराये, ये कैसा दिनमान है
उदयाचल और अस्ताचल की भाषा एक समान है
असमंजस का अन्त नहीं है, सरयू पर कोई सन्त नहीं है
रामकाज करने को आतुर, कोई भी हनुमन्त नहीं है।
भरतखण्ड में भरत नहीं है
रामकथा अनवरत नहीं है
अस्त-व्यस्त है रघुकुल सारा, कोई तो अब रघुनाथ बने
नौलख तारे बने अंगारे तो, बात भी रातों-रात बने।
अगन, गगन से झरे...
 
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एक लपट ऐसी सुलगा दो, पद का प्रबल अनंग जले
मायामहल जले सत्ता का, बाँबी सहित भुजंग जले
पूरब का काजल जल जाये, पश्चिम का प्रतिमान जले
दम्भ जले दक्षिण का सारा, उत्तर का अभिमान जले
सपने जहाँ चढ़ें सूली पर, वो मण्डी, बाजार जले
दर-दर कर दे जो भविष्य को, ऐसा हर दरबार जले
क्षिप्रा से कोई क्षिप्र उठे फिर
वाणी से कोई विप्र उठे फिर
अग्नि आचमन करे और फिर, युग का झंझावात बने
नौलख तारे बने अंगारे तो बात भी रातों-रात बने।
अगन, गगन से झरे...

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हर काँधे पर दुःख की काँवड़, गाँव नहीं कोई ठाँव नहीं
नील गगन के सिवा शीश पर, बन्धु! किसी की छाँव नहीं
दिशाहीन हर पाँव भटकता, कुम्भ जुड़े है छालों के
कदम-कदम पर उग आए हैं, अट्टहास बैतालों के
अश्वत्थामा हो गई पीढ़ी, मेरे राम! जवानी में
खून सभी हो गया हिमानी, नारों की नादानी में
तब भी सफर बराबर जारी
मैं इस संयम पर बलिहारी
मोहग्रस्त है महामछिन्दर, कोई तो गोरखनाथ बने
नौलख तारे बने अंगारे तो बात भी रातों रात बने।
अगन, गगन से झरे.. 

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नचिकेता सी जिज्ञासा हो, ध्रुव सा हो संकल्प अटल
परम भक्त प्रह्लाद सरीखा, मन में हो विश्वास प्रबल
चाहे जो हो सिंहासन पर, कोई भी परवाह नहीं
जोर जुल्म से टकरा जाना यारों! कोई गुनाह नहीं
वर्तमान विष पी लेगा तो, किसके लिये जियोगे तुम?
राम भरोसे जीने वालों! कब तक जहर पियोगे तुम?
सादर अपमानित होते हो
बाल नोचकर क्या रोते हो
क्रांति कुँआरी मर जायेगी, (कोई) दूल्हा बने, बरात बने
नौलख तारे बने अंगारे तो बात भी रातों-रात बने
अगन, गगन से झरै...

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सागर से बड़वानल छीनो, दावानल लो वन-वन से
पेट-पेट से जठरानल लो, महाअनल लो चन्दन से
चपला से चांचल्य छीन लो, पागलपन लो पागल से
अम्बर से उनचास पवन लो, महाघोष लो बादल से
हहर-हहर कर बरस पड़ो फिर, ज्वाला का चौमासा हो
मुँह लटकाये क्या बैठे हो, तुम ही अन्तिम आशा हो
विप्लव फिरता मारा-मारा
धधका दो लाक्षागृह सारा
अग्नि बीन मैं छेड़ रहा हूँ, शायद नया प्रभात बने
नौलख तारे बने अंगारे तो बात भी रातों-रात बने
अगन, गगन से झरे...
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।












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