यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।
पर्व से
वन्दनीय दिन फिर दे देना, दर्शन कभी दुबारा
आज मुझे अवकाश नहीं है, वन्दन करूँ तुम्हारा
आये हो तो तुम्हें बधाई, लेकिन है लाचारी
देखो हो न सकी है अब तक, स्वागत की तैयारी
चिन्तित है इन दिनों महल की, गरबीली अट्टारी
और अभी तक कुटिया ने भी, खुद को नहीं सँवारी
बहुत व्यस्त है इस वेला में, प्रिय परिवार हमारा
आज मुझे अवकाश नहीं है, स्वागत करूँ तुम्हारा
अभी पसीने में लथपथ हूँ, हूँ रण के आँगन में
जूझ रहा हूँ निर्धनता से, लगी लगन है मन में
फर्क नहीं अब रहने दूँगा, निर्जन औ’ उपवन में
सदा सुहागन हांेगी कलियाँ, पतझर या फागन में
सोच लिया है नहीं रखूँगा, इन्दर को पनिहारा
आज मुझे अवकाश नहीं है स्वागत करूँ तुम्हारा
सदियों से बहती नदियों को, राहों में समझा लूँ
प्रियतम तक जाते यौवन को, खेतों में पलटा लूँ
अचल, अडिग गिरिराज गणों, को इधर-उधर सरका लूँ
सागर की मस्ती से अपनी, हस्ती को उलझा लूँ
पग-पग बना रहा हूँ तीरथ, अपने श्रम के द्वारा
आज मुझे अवकाश नहीं है वन्दन करूँ तुम्हारा
कुछ बैठे हैं भाग्य भरोसे, उनको जरा उठा लूँ
पिछड़ गये हैं कुछ पीछे को, उनको साथ मिला लूँ
कुछ थक कर विश्राम चाहते, उनको नीर पिला लूँ
बिखर गया है मेरा कारवाँ, फिर से ठीक जमा लूँ
मंजिल के गुम्बज दिखते हैं, औ’ दिखता उजियारा
आज मुझे अवकाश नहीं है वन्दन करूँ तुम्हारा
अणु-उद्जन से त्रस्त मनुजता, रह-रह कर घबरावे
नीर बहाती, प्राण बचाने, बचाने मेरी गलियाँ आवे
पंचशील के पुण्य-जगत में, मेरे देव लुटावे
एक जवाहरलाल नेहरू और एक विनोबा भावे
अभी-अभी कितने दुखियों ने, देखो मुझे पुकारा
आज मुझे अवकाश नहीं है, वन्दन करूँ तुम्हारा
काम अधिक है, समय नहीं है, यदि थोड़े रूक जाओ
अपनी आँखों, नवल क्रान्ति के, सुफल निरखते जाओ
सच कहता हूँ, माखन मल-मल, दूध-दही से न्हाओ
ललित कलाओं की अलकों पर, न्यौछावर हो जाओ
वह दिन वन्दन का दिन होगा, देखेगा जग सारा
आज मुझे अवकाश नहीं है वन्दन करूँ तुम्हारा
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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