रंग बरसाओ

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की तेईसवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




रंग बरसाओ

है सुकोमल! सुभग!! शीतल!!!
रंग बरसाओ

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देख लो रस झर रहा आकाश से, वातास से
अब नहीं जाऊँगा उठकर, मैं तुम्हारे पास से
भर नज़र देखो इधर, आभार कर जाओ
रंग बरसाओ.....

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आज ऋतु का राग ही है, याचना को अर्थ दो
है सुमुखि! अपनी झिझक को कष्ट मत यूँ व्यर्थ दो
छोड़ कर संकोच अब, बेसोच कुछ उपकार कर जाओ
रंग बरसाआ.....

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ऋतुराज का रथ आयु भर, इस ठौर ठहरेगा नहीं
आवाज फिर मेरी तरह, कोई तुम्हें देगा नहीं
जो गुनगुनाया मैंने अभी तक, आज तुम गाओ
रंग बरसाओ.....

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रंग जो इतने सुरंगे, तुम उन्हीं की देह हो
हो छलक, तुम छलछलाहट, सुमुखि! सरसिज स्नेह हो
मैं तुम्हें पी लूँ तनिक, जी लूँ, इधर आओ
रंग बरसाओ.....

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हो शची तुम स्वप्न की, शरमाओ मत, आती रहो
मैं मरूस्थल हूँ तुम्हारा, रंग बरसाती रहो
कामना से प्रार्थना तक, समझ भी जाओ
रंग बरसाओ.....
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।












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