साथी मिला भी तो अन्धा, पहुँचे कराची, हिंगलाज यात्रा शुरु (कच्छ का पदयात्री - पाँचवाँ भाग)



दादा की संकल्पशक्ति और जीवट को हम सबने फिर एक बार प्रणाम किया और फिर हमने दादा की ओर उत्सुकतापूर्वक देखा। दादा कह रहे थे -

‘रतलाम में रेल के डिब्बे में मुझे हाड़ौती के तीन सहयात्री मिल गये। ये तीनों भी साधु वेश में थे और मेरी ही तरह हिंगलाज माता की यात्रा के लिए निकले थे। इनमें दो गुसाई थे। इन तीन यात्रियों में एक यात्री बिलकुल अन्धा था और तीनों अधेड़ थे। मैं ही इनमें किशोर फँसा था। साधुओं में जैसी कि परम्परा रही, छोटे साधुओं से बड़े साधु बहुत काम-काज करवाते हैं। यहाँ, इस टोली में, दोनों गुसाइयों ने यह अन्धा मेरे सिपुर्द कर दिया। रास्ते भर अन्धे की सार-सम्हाल करना तथा रेल में चढ़ाना-उतारना मेरा काम था। उसका खाना-पानी जुटाना भी मुझे ही करना होता था और ब्याज में उन सन्यासियों की लताड़-गालियाँ भी सुननी होती थीं। पर मैं हर मोल पर हिंगलाज माता जाना चाहता था और जब मुझे इन तीन सहयात्रियों के रूप में ठेठ हिंगलाज माता तक का साथ मिल गया तो मैंने हर मुसीबत को वरदान मानकर उसकी गलबहियाँ डालीं। हम लोग रेल से ही अहमदाबाद पहुँच गए। उस समय मेरे सामने एकाएक अन्धकार छा गया जब अहमदाबाद में वे दोनोें गुसाई साधु उस अन्धे को मेरे पास छोड़कर, बिना कुछ कहे-सुने चुपचाप रात में कहीं खिसक गए। मेरे पास साथी था पर ऐसा जो हर तरह से मुझ पर बोझा था। माँगीलाल और इस अन्धे में जमीन-आसमान का फर्क था। मैं लोकगीतों का, मालवा का पला-पुसा किसान आदमी। अपने मानवीय संस्कार कैसे छोड़ सकता था? बार-बार मन में विचार आता था कि इस अन्धे को यहीं छोड़ दूँ। पर मन ने कभी भी इसकी गवाही नहीं दी। उस अन्धे की उम्र पचपन या साठ की रही होगी। हृदय ने हमेशा बुद्धि पर अधिकार रखा और मैंने अपनी ओर से उस अन्धे सहयात्री को नहीं छोड़ा। उसको मैं छोड़ता भी कैसे? भगवान जो भी करता है, शुभ ही करता है। अहमदाबाद से आगे की यात्रा में यह अन्धा मेरे लिए वरदान साबित हुआ। इसके कारण मुझे यात्रा में कई सुविधाएँ और मार्ग में भोजनादि तथा दान-दक्षिणा आदि आशा से अधिक मिलने लगे। मेरे लिए यह सहयात्री अब मुनाफे का मामला हो गया। इसकी उपयोगिता को मैंने समझा और उसके प्रति मेरी सेवाएँ अधिक निश्छल होती गईं। अन्धा पल-पल मुझे आशीष देता था और मेरे मंगल के लिए मनौती करता था। रेल में सीट मिलना तो अब मेरे लिए आसान हो गया था। यात्री बुला-बुलाकर पास बैठाते थे और कुशल पूछ कर खाना दे दिया करते थे। मुझे और चाहिए भी क्या था? उसको आँखें और मुझे पाँखें चाहिए थीं। भगवान ने अनायास ही सब जुटा दिया था। मैं एक बार फिर ताजा हो गया। भगवान को धन्यवाद देता-दिलाता मैं अब लम्बे रास्ते हिंगलाज के लिए चला।’

मैंने पूछा कि दादा लम्बा रास्ता क्यों पकड़ा? तो दादा ने मेरी अक्ल पर तरस खाते हुए कहा -

‘जब साथ में अन्धा हो तो कितना रास्ता पैदल चलोगे भैया? इसलिए रेल का ही रास्ता पकड़ना जरूरी था। तो, अहमदाबाद से पाली-मारवाड़ जंक्शन और वहाँ से लूनी जंक्शन होते हुए मैं सीधा जोधपुर पहुँचा और वहाँ से मैंने सिन्ध-हैदरबाद के लिए गाड़ी पकड़ी। अन्धा मेरे साथ था। उस सहित मैं आसानी से हैदराबाद जा लगा। यह यात्रा मेरी पूर्व-यात्रा की तुलना में ज्यादा सुविधाजनक और आसान थी। सन् 1931 का जून बीत रहा था और मैं हैदराबाद की सराय में अन्धे की सेवा करता हुआ आगे की यात्रा का गणित बैठा रहा था। न तो पैसों की फिक्र थी न खाने की। रास्ते में कोई रेल से उतार देता तो हम लोग उतर जाते। जहाँ मौका मिलता, वहीं फिर बैठ जाते और इसी प्रकार हैदराबाद से रेल द्वारा हम लोग कराची पहुँच गए। अन्धे को मैं बताता जाता था कि हम लोग कहाँ पर हैं और हमें क्या-क्या भुगतना पड़ रहा है। वह सुनता-समझता बराबर था पर लाचार था। उसे इस बात का बड़ा दुःख था कि वह मेरे लिए मुसीबत बन कर आया। मैंने बार-बार उसको समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है तो वह अन्धा ठण्डी साँसें लेकर आसमान की ओर देखने की चेष्टा करके अपनी गीली आँखें पोंछ लिया करता था। उसका मन बहलाने को मैं विनोद का हर पल टटोलता रहता था। मन ही मन हम दोनों को यह बात चाकू की तरह चीरती थी कि कराँची से आगे की सारी यात्रा पैदल है और अन्धा मुझसे अलग हो जाएगा। हम दोनों में से किसका दुःख ज्यादा है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था। एकाध बार तो मुझे लगा कि मैं इस अन्धे के मोह में कहीं अपनी यात्रा से ही विमुख नहीं हो जाऊँ। पर ऐसा हुआ नहीं।’

मुझे लगा कि दादा अन्धे की स्मृतियों में बहुत ज्यादा खो गये हैं। मैंने भी उनको एक पल का विश्राम दिया। उनकी भावनाओं को छेड़ने की कोशिश हममें से किसी ने भी नहीं की। वे अपने आप तटस्थ होकर कहने लगे-

‘कराँची से हिगलाज माता के लिए छड़ी उठती है। छड़ी उठाना एक महत्वपूर्ण और मनोहारी समारोह होता है। कराँची में हिंगलाज माता जाने वालों के लिए तीन अखाड़े हैं। अखाड़े से मतलब आप मठ भी ले सकते हैं। एक अखाड़ा रामगिरि स्वामी का था जो कि जूना अखाड़ा कहलाता था। रामगिरि स्वामी उसका सर्वेसर्वा था। दूसरा अखाड़ा बड़ा अखाड़ा कहलाता था। और तीसरे का नाम था भटियाणी भाई का डेला। ये अखाड़े एक प्रकार मे सम्प्रदायों के आधार पर माने जाते थे। प्रत्येक अखाड़े में 30-30, 40-40 अगुआ पलते थे। अगुआ वह कहलाता है जो हिंगलाज माता तक की यात्रा यात्रियों को करवाने की व्यवस्था करे और पूरे मार्ग भर धार्मिक रस्मों के अनुसार उनका मार्ग-निर्देश करे। इन अखाड़ों-अगुवाओं को समस्त सुख-सुविधाएँ दी जाती थीं। यात्री लोग अपने-अपने गुरुओं की मान्यताओं के अनुसार अपने-अपने अखाड़े में रुकते थे और जब पर्याप्त यात्री एकत्र हो तो अखाड़े का महन्त छड़ी उठाने की आज्ञा देता था। एक अगुवा के साथ 35 से लेकर 40 तक यात्री यात्रा करते थे। हम लोग रामगिरि के अखाड़े में ठहरे थे। रामगिरि एक बाल-बच्चेदार गृहस्थ साधु था। उसने मुझे बेहद लाड़-प्यार और दुलार के साथ रखा। जो प्यार मुझे माता-पिता और भाई से नहीं मिला था, वह यहाँ, मालवा से सैंकड़ों-हजारों मील दूर, एक अनजाने साधु ने मुझे दे दिया था। मैं सब-कुछ भूलकर अखाड़े की व्यवस्था में जुटा रहता था। मुझे केवल एक बात याद थी कि अब मैं शीघ्र ही हिंगलाज माता के दर्शन कर पाऊँगा। अखाड़ों की व्यवस्था के लिए हमको कराँची में बड़े-बड़े टोकने लेकर हिन्दू बस्तियों में रोटियाँ माँगकर लानी होती थीं। सवेरे दस बजे तक हम लोग गलियों में टोपले लेकर भीख माँगते। कराँची में भी उस समय भीख मिलने में कोई तकलीफ नहीं होती थी। हमारे टोपले काफी बड़े होते थे पर वे आशा से अधिक जल्दी भर जाते थे। शाक-सब्जियाँ हमको बस्ती से माँगने की मनाही थी। उसकी व्यवस्था धरमबाड़ों से होती। बड़े-बड़े बाड़ों में ऐसे अखाड़ों के लिए सब्जियाँ बनाई जाती थीं जो कि हमको जाते ही मिल जाती थीं। मैं शाम-सवेरे उस अन्धे को भी सम्हालता था और अखाड़े का काम भी देखता था। यहाँ मैं कोई चालीस-पचास दिन रहा। एकादशी और पूर्णिमा को हम लोग बस्ती में जाते और साधु-सन्तों के लिए पैसा भी माँगते थे। जो भी साधु जिस भी दुकान पर खड़ा हो जाता वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता था। जो जितना माँग लाता वह उसकी सम्पत्ति मानी जाती थी। यह बात आवश्यक थी कि यह माँगना केवल हिन्दुओं की दुकानों से ही हो। यदि गैर-हिन्दू की दुकान पर कोई साधु चला जाता तो अखाड़े का महन्त उस पर कार्यवाही करता था और उसकी, आगे की यात्रा रोक दी जाती। छड़ी उठने तक यह क्रम चलता रहता था। 
 
 


किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

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