आपके ही श्रीचरण की प्रभुकृपा है

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की ग्यारहवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




आपके ही श्रीचरण की प्रभुकृपा है 

धूलिकण ही था अकिंचन
मैं तुम्हारे पाँव का
रात-दिन लिपटा तुम्हारे
श्री चरण से
जी रहा था उल्लसित जीवन
परम सौभाग्यशाली
मानकर खुद का।
और
यदि हूँ आज मैं
सादर सुशोभित
देवता के शीर्ष पर
तो इसे भी मानता हूँ
आपके ही
श्रीचरण की प्रभुकृपा।
इस तरह विस्मित चकित
होकर मुझे मत देखिये
देव दर्शन कीजिये
और अपने इष्ट से
वरदान जो भी माँगना हो
माँगिये
प्रार्थना को भंग मत कीजिये।
किस तरह मैं आ गया हूँ
आपके आराध्य
देवाशीर्ष पर
यह कहानी है बहुत छोटी
जरा-सी बात है।
मैं सतत् लिपटा हुआ था
आपके चरणारविन्दों से
और था
अत्यन्त ही सौभाग्यशाली।
कामना कुछ भी नहीं थीं
याचना बिलकुल नहीं थी
रंच भर भी थी नहीं
कोई महत्वाकांक्षा।
आप आठों याम
मुझको रौंदते थे
किन्तु मैं तब भी बराबर था
सुखी।
जी रहा था धूलि माँ की
वन्दना करता हुआ।
पद् दलित था किन्तु तब भी
धूलि माँ की गोद में था
मैं बड़े आमोद में था।
किन्तु उस दिन
आपने एक ठोकर दी मुझे
उन्मत्त होकर
थी कहीं कोई अजानी -
ग्रन्थि या कुण्ठा।
बिराजित हो गई
आकर सुकोमल श्री चरण में।
और बस वह एक ही ठोकर
मुझे गतिमान शीतल
संचरण करते पवन की
पालकी में कर गई
आरुढ़।
और उस गतिमान शीतल
पवन ने मुझको
परम पावन मुकुटधारी
तुम्हारे देवता के शीश पर
आज वाली
उच्चतम ऐसी अवस्था
में बिराजित कर दिया।
तुच्छतम को उच्चतम
होना पड़ा।
पहिचानता हूँ
मैं समय के सत्य को
माँ धूलि से मिलने
धरा पर आऊँगा
आना पड़ेगा।
किन्तु मेरा रूप
शायद यह न हो।
कल
पुजारी जब करेगा
देव का अभिषेक
तब उसी अभिषेक जल की
धार के निर्मल सहारे
देवता के श्रीचरण का
स्पर्श कर
सर्वथा रूपान्तरण करके
स्वयं का, आऊँगा, फिर आऊँगा।
आप
जिसका आचमन करते रहे हैं
और चरणामृत
जिसे कहते रहे हैं
मैं वही बनकर
बहुत ही शीघ्र
आने जा रहा हूँ
आपकी याचक
हथेली पर।
आचमन
श्रीमान् मेरा ही करेंगे
अंजुलि भर
मैं अकिंचन
उस घड़ी भी मात्र
इतना ही कहूँगा
‘यह सभी है
आपके ही
श्रीचरण की प्रभुकृपा।’
आपकी उन्मत्त ठोकर ने
मुझे क्या-क्या दिया है
क्या कभी श्रीमान् ने
इस सत्य का
चिन्तन किया है?
यह गरूड़-गाथा
समापित यूँ नहीं
होगी प्रभो!
प्रार्थना है आपसे
केवल यही-
‘जो पड़े हो पाँव में
रौंदिये उनको भले ही
किन्तु मेरे देवता!
धूलि की उजली
अकिंचन कोख को
ठुकराईये मत -
कल उसी के हेतु
फैलानी पड़े
याचक हथेली
संप्रभु बनकर
तनिक से तथ्य को
भूलिये याने कि
यूँ बिसराईये मत।’ 
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।








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