गुलिवर


यायावर गुलिवर के विश्व-विख्यात आख्यान का यह काव्य रूपान्तर भी दादा ने फिल्म ‘रानी और लाल परी’ के लिए किया था। श्री रवि नगाइच निर्देशित  इस फिल्म का संगीत वसन्त देसाई ने दिया था और मन्ना डे ने इसे स्वर दिया था। इस कहानी के फिल्मांकन में गुलिवर की भूमिका अभिनेता फिरोज खान ने अभिनीत की थी।





गुलिवर

किसे पता था मौत का तूफानी अन्दाज़
टुकड़े टुकड़े हो गया
डॉक्टर गुलिवर का बड़ा जहाज।
एक छोटी सी नाव में बचा-बुचु कर जान
थकाथकाया सो गया देख जगह सुनसान।

















छक नींद में पड़ा था उसे होश कहाँ था
वह मौत से लड़ा था उसे होश कहाँ था
अनजान जगह थी वहाँ हर चीज गजब थी
इस देश के इंसान की ऊँचाई अजब थी

कोई तीन इंच, कोई चार इंच, कोई पाँच इंच
ज्यादा से ज्यादा आधा फुट
यह देश कहाता था लिलिपुट
पुट.....पुट.....पुट.....पुट.....पुट.....लिलिपुट

हनीमून के लिए जगह की खोज में
इक जोड़ा आया
तितली जैसी थिरक-थिरक करती दुलहिन को
गलबहियाँ डाले
इक भँवरा लाया
नया-नया इक जोड़ा आया ।

गुलिवर के पाँव को समझ के
ऊँची सी चोटी पहाड़ की
दुलहिन नवेली चढ़ गई बूट के ऊपर
बूट के ऊपर चढ़ी तो चढ़ती चली गई
आ गई वह सीने तक मैदान समझ कर

पर ज्यों ही देखा मुँह गुलिवर का
क्या गुज़री उस दुलहिनियाँ पर

यह कहने का बात नहीं है।
गश खाकर बेहोश हो गई
दूल्हा भागा जान बचा कर
हनीमून सब हवा हो गया।



















हिल भी नहीं सकता था बेचारा डॉक्टर
बौनों ने उसे बाँध दिया रस्सी से कसकर
 
रस्सी थी बड़ी पक्की मगर क्या कमाल थी
धागों की धींगामस्ती थी बस बेमिसाल थी।

जब जागा तो तन टूट रहा था
लेना चाही अँगड़ाई
मुँह पलटा कर देखा तो सब कुछ
समझ गया गुलिवर भाई

इक बौना पहरा देता था छाती पर तीर कमान लिये
चढ़ते ही आते थे बौने भाले और तीखे बाण लिये

तब गुलिवर ने जोर से मारी एक दहाड़
लिलिपुटियन ऐसे भागे मानो गिरा पहाड़

कुछ देर में फिर सौ पचास लौट के आये
चेहरे के आसपास घटाटोप से छाये

तब तक गुलिवर चुप रहा बोला एक न बोल
फिर तोड़ दिये धागे सभी, हालत को ली तौल

कुछ को पकड़ने के लिये लपका गुलिवर
गिर गये बेचारे बौने फिस्स जमीं पर
फिर तीर औ’ भालों से वार करने लगे वे
हथियारों से भीषण प्रहार करने लगे वे ।
 
पर चमड़े की जेकेट के कारण वार हुए बेकार
थके-थके सब थे खड़े बेबस और लाचार।

वह भीड़ बड़ी होती गई, होती हीे गई
शक्ति उनकी खोती गई, खोती ही गई
फिर चार-पाँच गज पे बड़ा मंच बनाया
गर्दन की रस्सी ढीली करके सिर को हिलाया
उस मंच पे सरदार उनका हो गया खड़ा
जोर से सरदार ने भाषण दिया बड़ा
इस मंच के चारों तरफ खड़े थे सिपाही
अंगुश्त से ज्यादा नहीं थी जिनकी ऊँचाई

जाने क्या-क्या बोलता था उनका सरदार
जुड़े हुए हर ओर थे बौने कई हजार

गुलिवर ने देखा नज्जारा
कुछ सोचा और बहुत विचारा।

आँखों के इशारों से उसने माँगी आजादी
पर इतनी सस्ती है कहाँ दुनिया में आजादी
दरबार में मुलजिम सा वह ले जाया जायेगा
राजा को सारा मामला समझाया जायेगा
 
आपस में फैसला था यही सारी भीड़ का
गुलिवर भी मजा ले रहा था भारी भीड़ का
फिर बन्धनों को एक बार तोड़ना चाहा
दस पाँच पिद्दियों का सिर मरोड़ना चाहा
पर तीर और भालों के वार होने लगे फिर
अन्धाधुन्ध बेशुमार होने लगे फिर

तब आत्मसमर्पण कर दिया गुलिवर ने चुपचाप
लगा देखने चुप्प हो उनके कार्य कलाप

सारे शरीर पर पचासों बौने चढ़ गये
जैसा जिन्हें दिखाई दिया वैसे बढ़ गये
फिर घावों पर दवा लगाई
तरह-तरह से दया दिखाई
चैन दिया कुछ इस मरहम ने
ठट्ठ के ठट्ठ लगे फिर जमने

फिर हजारों बढ़ई लगे गाड़ी बनाने
गुलिवर को लादकर उसे रजधानी में लाने
तीन इंच ऊँचा तख्त सात फुट चौड़ा
सात फुट लम्बाई बीस पहियों का जोड़ा

सैंकड़ों ने खींची गाड़ी पास में लाये
थी समस्या कैसे इस परबत को उठायें


















तब फिर गाड़े अस्सी खम्भे
आसमान तक ऊँचे लम्बे
कई गिर्रियाँ लगी हुई थीं
कई रस्सियाँ बँधी हुई थीं
गर्दन, हाथ, पाँव सब बाँधे
फिर गिर्री से रस्से  साधे

कई हजारों लगे खींचने
जोर-जोर से दाँत भींचने
तीन घड़ी तक बहा पसीना
तब आया जीने में जीना

फिर भी तीर कमान से चौकस पहरेदार
निगरानी में थे खड़े चौकन्ने सरदार

कहीं गुलिवर ना ऊधम कर दे
रस्से तोड़-ताड़ ना धर दे
हर हरकत पर आँख गड़ी थी
कई मशालें जली पड़ी थीं
हाथ पाँव में कस जंजीरें
गाड़ी चल दी धीरे-धीरे

जेसे-तैसे खींच कर लाये चौक बजार
कोलाहल घनघोर था जनता अपरम्पार
गुलिवर भी था ले रहा मन ही मन आनन्द
छोड़ दिया सब भाग्य पर, आँखें कर लीं बन्द ।

तब देश के सबसे बलिष्ठ घोड़े पे चढ़ के
उस देश के सम्राट महाराज पधारे
बजते थे उनके आगे अजब ढोल नगारे
डोली में थी महारानी की अलबेली सवारी
आसपास बाँदियाँ थीं ले के कटारी

गुलिवर को देखते ही
राजाजी का घोड़ा भड़का
घोड़ा भड़का सभी का जिया धड़का



















नौकर चाकर भागे
आ गये घोड़े के आगे

जैसे-तैसे घोड़े का मिजाज सम्हाला
चाबुक जोर से मारा
राजा को उतारा

पर राजा डर के मारे
रहा दूर-दूर, दूर
दूर-दूर, दूर से ही
देखा घूर-घूर, घूर

राजा ने तभी हुक्म दिया खाना मँगाया
पच्चीस गाड़ियों का बड़ा काफिला आया
देखते ही देखते सब गाड़ियाँ खतम
आधी डकार ली-न-ली सब हो गया हजम

दस गाड़ियों में पीपे थे बढ़िया शराब के
जैसे कि महकते हों बगीचे गुलाब के
इक आचमन हुआ-न-हुआ खत्म हो गई
यह देखते ही रानी जी बेहोश हो गईं

गुलिवर ने की रानी के लिए प्रभु से प्रार्थना
इस प्रार्थना ने पूरी की हर एक कामना

राजा था खश और रानी थी खुश
बौनों की सारी दुनिया का हर प्राणी था खुश

ताज्जुब तो हुआ था तब सबको
जब सुनकर गुलिवर की भाषा
चमक गई रानी की आँखें
होठों  पर आई मुसकान
केवल रानी समझ रही थी
गुलिवर की नई जबान

बाकी तो सब हैरत में थे कुछ भी समझ न पाते थे
था गुलिवर का भी हाल यही, ये बौने क्या मिमियाते थे

तभी एक तीर आया और आँख में लगा
राजा को पसन्द आया नहीं कौम का दगा

फौरन ही छः बदमाशों को जा पकड़ा पहरेदारों ने
गुलिवर को लाकर सौंप दिया उन सबको पहरेदारों ने






















पाँच को तो जेब में गुलिवर ने रख लिया
और आखिरी को फाड़ के मूँह खाने लगा वो
कुहराम मच गया वहाँ हंगामा हो गया
जोर से न जाने क्या चिल्लाने लगा वो

तब रानी आगे आई
महारानी आगे आई
और गुलिवर को समझाया

इसे मत खा रे अनजान मुसाफिर यह भी तेरा भाई है
तू मानता जा मेरा कहना इसमें ही तेरी रिहाई है।

फिर रानी ने अपने राजा के
कुछ कान में कहा
कहने भर की देर थी
आज्ञा हुई वहाँ

पथ भटका एक मुसाफिर है अन्दाज़ से इक इंसान है ये
फिलहाल इसे आजादी दो अब से शाही मेहमान है ये

पन्द्रह दिन तक मैं सोया धरती पर
बिस्तर ही कहाँ था इतना बड़ा
आजादी की उम्मीदें मैं
करता रहता था पड़ा-पड़ा

तब मेरे बिस्तर को लेकर राजा ने खास हुकुम मारा
बिस्तर की तैयारी में उमड़ा लिलिपुट सारा का सारा

गाड़ियों में गद्दे आये पूरे छः सौ
तह बना के चार-चार, सी दिये गये
तब भी मेरे पाँव तो रहते थे फर्श पे
पर मुझे तसल्ली थी कि कुछ तो मिल गया
ओढ़ने के कम्बलों की गिनती क्या गिनूँ
शायद हजार था कि रहे होंगे हजारों
घर-घर में फकत चर्चे थे मेरे ही नाम के
हर रोज मुझे देखने आते थे हजारों

दरबार जुड़ा तब फिर एक दिन
मेरे भविष्य का निर्णय उसमें होना था

मेरी खुराक चलती रही जो इसी तरह
लिलिपुट की तबाही में कोई शक ही नहीं है
जिन्दा अकाल की मिसाल और क्या होगी ?

तब कुछ ऐसे प्रस्ताव चले
भूखा मार डालो
जला दो
तीरों से मार डालो
सागर में डुबा दो

क्या निर्णय दे प्रस्तावों पर
महाराजा सिर खुजलाता था
दाँतों से नक्ख कुतरता था
पर कुछ भी समझ न पाता था

तभी महारानी बोली

मत मार, मत मार, मत मार, मत मार

इंसान का बच्चा है आखिर
लिलिपुट के काम ही आयेगा
इसको दुश्मन से लड़वा दे
यह हमें फतह  दिलवायेगा

सुनके यह प्रस्ताव सभी नाचने लगे
फौरन मुझे बुलवाया गया जश्न के लिये
राजा के भाट जै-जै मेरी बाँचने लगे

फिर यहाँ जशन
फिर वहाँ जशन
फिर ता किट धा
फिर धा किट धा
 




















मैं भूखा था आजादी का
मुझे घर की याद सताती थी
रानी की शर्त जरा सी थी
वह मुझे खुशी दे जाती थी

ब्लेफुस्कू एक रियासत थी लिलिपुट से उसका झगड़ा था
राजा उसका भी बौना था पर वह थोड़ा सा तगड़ा था
कुल आठ सौ गज की इक खाई इनकी सीमा कहलाती थी
थे जान के दोनों ही प्यासे दोनों को नींद न आती थी

लिलिपुट के मेरे राजा ने
तब मुझे युद्ध का ज्ञान दिया
दुश्मन से लड़ने की खातिर
ना जाने क्या सामान दिया

जब मैंने अपनी पाकिट से
लम्बा सा चाकू दिखलाया
तो चीख पड़ा बौना राजा
क्या कहूँ कि कैसे चिल्लाया
रानी ने बात सम्हाली तब
मेरा आशय था समझाया
लिलिपुट का दुश्मन हारेगा
फिर भी राजा था घबराया

तभी पचास घोड़े लाये खींच के गाड़ी
जिस पर पड़ी थी हैट मेरी शान-बान से
यह हैट मैं उस दिन ही वहाँ भूल गया था
जब बाँध के लाये थे मुझे ये गुमान से

मैंने हैट लगाई
मैंने बेल्ट भी बाँधा
मैंने चाकू सम्हाला
और चश्मे को साधा
तस्में बाँधे कंघा खोंसा
सुँघनी सम्हाली
रूमाल की तह करके
रखा जेब में उसको
डायरी झटक के
टाई ठीक से बाँधी
होकर खड़ा खटाक से
सेल्यूट जा मारा
तो थर्रा गया बौनों का
वह देश बिचारा

मैं युद्ध के लिये तैयार हो गया तुरत
आदेश माँगा राजा से मैंने तुरत-फुरत
रानी का चूमा हाथ उससे माँगी बिदाई
दरबार में उमंग की एक रोशनी छाई






















आगे पीछे साथ में जासूस कई थे
छिप-छिप के चल रहे थे मुझे राह दिखाते
जाकर के पास खाई के मैं हो गया खड़ा
देखा तो उधर भी थे बौने तीर चलाते

जैसा देश वैसा भेस
जैसा भेस वैसा ओज
जैसा ओज वैसी फौज
कैसी फौज और कैसा बेड़ा
मैंने पाँव किया एक टेढ़ा
छपक पड़ा फौरन पानी में

छः फुट तो केवल गहरी थी आठ सौ गज की वह खाई
भगदड़ मच गई ब्लेफुस्कू में मच गई राम दुहाई

खेल खिलौने जैसा उनका रॉयल बेड़ा
काट दिया चाकू के एक ही वार में
उनके तीर तनातन चलते ही रहे
लेकिन बेड़े सहित आ गया पार मैं

ब्लेफुस्कू में केवल क्रन्दन
इधर हुआ मेरा अभिनन्दन
 





















लिलिपुट में मन गया दशहरा
और दूसरे दिन दीवाली
उसी खुशी में महाराजा ने
मुझे स्वतन्त्रता दे डाली

फिर भी कुछ दिन लिलिपुट में ही रहा घूमता मैं आजाद
रजधानी को जी भर देखा, करता था जनता से बात

तब एक मुसीबत नई आ गई

लिलिपुट की राजकुमारी का
दिल मुझ पर ललचाया हाय राम!
रानी ने मेरे आगे उसका
हाथ बढ़ाया हाय राम!!

इस छः इंची बीबी को कैसे
अपने घर ले जाऊँगा
और ले भी गया तो कैसे मैं
इससे घर-बार चलाऊँगा

मात्र कल्पना से मेरा
सारा पौरुष थर्राता था
हे राम करूँ तो आखिर क्या
मैं कुछ भी समझ न पाता था

न पूछा ना ताछा
न सोचा ना समझा
मेरे पाँव थे सिर पे
देखा ना मुड़के

आँख मूँद कर कूद ही पड़ा समन्दर बीच
एक अनजानी नाव ने लिया मुझे फिर खींच।।















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गुलिवर (कविता)
कवि - बालकवि बैरागी 
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017, रामनगर,
                  मंडोली रोड़, शाहदरा, दिल्ली - 110032
प्रथम संस्करण - 1981
मूल्य - 4.00 रुपये
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - सीमा प्रिण्टिंग प्रेस, मोहन पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032 
 



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