साँझ और सवेरा

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की पन्द्रहवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




साँझ और सवेरा

ये तो मेरी माँ पृथ्वी ने
मुझे समझाया
तब कहीं जाकर
मैं समझ पाया
वर्ना यूँ ही घूम रहा था
अपने ज्ञान पर
इतराया-इतराया।
चुपचाप
धरती माता ने एक दिन
मेरी सिर सहलाया
मुझे पुचकारा
और बताया
कि ये जो
सविता-सूरज है न?
वो अपने घर में
धूनी रमाये
अचल, अटल और अनासक्त
चौबीसों घण्टे, आठों प्रहर
अनवरत जलता है
और तू समझ रहा है कि
वो पूरब से पश्चिम तक
गतिमान होकर चलता है।
पगले!
न कोई उदयाचल है
न कोई अस्ताचल।
न वो ऊगता है न डूबता है
हाँ अपने प्रकाश-धर्म में
वह पलभर भी नहीं चूकता है।
उसका धर्म है जलना
और उसकी आग से
ऊष्मा लेने के लिये
मेरा कर्म है चलते रहना
चलना... चलना और...
बस चलना।
एक पल को भी अगर मैं
ठिठक कर कहीं ठहर जाऊँ
तो पूछले अपने ज्ञानदाताओं से
कि क्या होगा?
न साँझ होगी
न सबेरा होगा।
यह जो माँ की ममता
होती है न?
बस यही मुझे
अहर्निश चलाती है
और तू समझता है कि
सूरज की किरणें तुझ तक
सूरज की मेहरबानी से आती हैं।
जलना उसका धर्म है
चलना मेरा कर्म
वो जले नहीं तो मर जाये
और मैं चलूँ नहीं तो
सारा संसार चक्र ठहर जाये।
धर्म उसका और
कर्म मेरा
यही है मेरे बच्चों का
साँझ और सवेरा।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।









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