न रन की भयावहता का पता न संकटों का अनुमान, माता का जैकारा लगा, शुरु कर दी पद-यात्रा, जाना पानी का मोल (कच्छ का पदयात्री - दसवाँ भाग)



‘आशापुरी से दो-तीन मील आगे पैदल चलने पर मकरभीम स्थान आता है। मकरभीम से ही कच्छ का रन शुरु होता है। इने-गिने आदमी ऐसे होते हैं जो कि यहाँ से इस रन को पैदल पार करने की हिम्मत करते हैं। मकरभीम से कच्छ पार करने वालों को भुज की तरफ लखपत नामक स्थान पर पैदल आना पड़ता है। यह दूरी कम-से-कम 36 मील है। मुझे न तो कच्छ की भयावहता का पता था, न उस यात्रा में आने वाले संकटों का अन्दाज। मुझे तो पैदल चलना था और अधिकाधिक देरी तक भटकना था। सो, मैंने मकरभीम पर उस स्थान पर जाकर अपना चोला खड़ा कर दिया जहाँ पैदल पार करने वालों को सुविधाएँ दी जाती हैं। 

जब मैं उन अधिकारियों के सामने खड़ा हुआ तो वे मुझे सिर से पाँव तक देखते ही रह गए। मेरी कच्ची उम्र और कच्छ का 36 मील का जानलेवा लू मेें तपता नमकीन मैदान! इस तुलना ने वहाँ के अधिकारियों को असमंजस में डाल दिया। वे मुझे बार-बार समझाते थे और मैं अपनी जिद पर दृढ़ था। जब बाधाएँ आती हैं तो मेरी जीवट भी जवान हो जाती है। मैंने सोच लिया कि इस अभियान को साकार करना ही चाहिए। मैंने अपनी हिंगलाज माता की विकराल यात्राओं का अनुभव उनको सुनाया और उनका समाधान किया कि मैं कच्छ को पार पटक जाऊँगा। वे तो बस अनुमति भर दे दें। कुछ आपसी खुसुर-पुसुर के बाद आखिर मुझे अनुमति मिल गई। एक बार फिर मेरी आँखें विजयोल्लास से चमक उठीं और मुझे अहसास हुआ कि मैं अपनी उम्र का एक और ठप्पा समय की छाती पर लगा दूँगा।’

अब हम सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर सरक, आगे तन आये थे। दादा की यात्रा का रोमांचकारी सोपान शुरु हो रहा था। दादा बोले-

‘मकरभीम पर पैदल निकलने वाले यात्रियों को पानी पीने के लिए मिट्टी का बत्तखनुमा एक बर्तन दिया जाता है, जिसे वहाँ तूंग कहते थे। अपने यहाँ इसे तोंग या बदक कहते हैं। इस बर्तन में कोई 10-15 सेर पानी समा जाता है। यह पानी पदयात्री को साथ लेकर चलना होता है। ऐसे बर्तन वहाँ मोल भी मिलते थे पर गेरुआ पहने सन्यासियों को मुफ्त वितरित होते थे। तीन-चार लोगों का एक पेनल या बोर्ड उस यात्री को रास्ते की कठिनाइयाँ बताता है और किस समय यात्रा करनी और कहाँ-कहाँ मुकाम करना यह सब बताता है। यदि इस समझाइश को यात्री गम्भीरता से नहीं ले तो इसमें कोई शक नहीं कि रन में कहीं किसी क्षण यात्री का प्राणान्त हो जाए। उसकी लाश खाने के लिए वहाँ गिद्ध भी एकाएक नहीं आ पाते हैं। नमक और बालू में वह लाश अपनी भाग्य-गति के अनुसार रफा-दफा होती है। आज तो कच्छ के रन में जीपें चलने के फोटू आप-हम अखबार में देखते हैं और भारत की सुरक्षा टुकड़ियों ने रन में रास्ते भी बना लिये हैं। पर तब ऐसी कोई बात नहीं थी। भारत अविभाजित था और कच्छ की तरफ से देश को किसी खतरे की तत्कालीन अंग्रेज सरकार सोचती भी न थी। इसलिए रास्तों का प्रश्न ही नहीं था। 

कच्छ का रन लम्बाई में 1100 मील है और जिस जगह मैं पार कर रहा था यह कुल 36 मील का टुकड़ा था, पर मीलों की कमी या बेशी से यात्रा की समस्याएँ और भयावहता कम नहीं हो जातीं है। ज्यों-ज्यों अधिकारीगण उस भयावहता का वर्णन करते थे त्यों-त्यों मैं अपने संकल्प पर दृढ़ होता जाता था। मेरा देहाती शरीर, अपढ़ अनुभव और कच्ची उम्र या यूँ कहिये कि मेरा गँवार तन-मन इस बात के लिए सन्नद्ध हो गया था कि ‘चल पड़ पट्ठे’। कन्धे पर पानी की तोंग, चादर और कमण्डल लटकाये मैंने हिंगलाज माता की जय बोली। अधिकारियों ने मुझे रास्ते के लिए थोड़ा-सा पिण्ड खजूर और भुने हुए दानामोठ दिये। यह पदयात्रियों का पाथेय था। इस बात की सख्त हिदायत थी कि प्यास लगने पर भरपेट पानी कहीं मैं पी न लूँं। हलक को गीला भर करना और पिण्ड खजूर या दानामोठ को मुँह में इसलिए रखना था कि मुँह सूखा नहीं लगे। पानी की तोंग का आकार सुराही जैसा था पर यह चपटी होती थी। इसके चपटी होने से यह बगल में आ जाती थी। यात्री की सुविधा के लिए इसको यह आकार दिया गया था। 

यह तो मुझे याद नहीं पड़ता कि वह कौन-सा महीना था पर जहाँ तक मेरा अनुमान है कि वह सन् 1932 का अक्टूबर रहा होगा। कराँची जब मैंने छोड़ी तो सर्दियाँ शुरु हो गई थीं। पदयात्रियों को बड़ी सुबह या शाम के बाद ही रन में प्रवेश करने की आज्ञा दी जाती है। सवेरे, दस  बजते-बजते वहाँ भीषण लू चलने लगती है और शाम होने के बाद भी लू चलती है। रात हो या दिन, वहाँ गर्मी में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। कच्छ रन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि चाहे चाँदनी रात हो या अँधेरी रात, रन के मैदान में कभी अँधेरा नहीं हो पाता है। इसका कारण यह है कि जमीन पर महीन बालू रेत और उसमें भर-पल्ले नमक का मिश्रण है। रात में चाँद हो या नहीं हो, तारों की रोशनी ही इतनी उजली होती है कि मीलों तक नजर काम करती है। मुझे यह भी याद नहीं आ रहा कि तब आसमान में चाँद था या नहीं। जमीन छोड़कर आसमान देखने का मतलब है वहाँ एक जोखिम उठाना। सारे कच्छ के मैदान में, इस 36 मील के रास्ते पर मार्ग जानने के लिए कोई एक-एक मील पर बड़़ी-बड़ी बल्लियाँ गड़ी हुई थीं। रात में भी मुझे चार-पाँच मील तक की बल्लियाँ साफ दिखाई पड़ती थीं। यदि ये बल्लियाँ नहीं हों तो संसार की कोई शक्ति यात्री को रास्ता नहीं बता सकती। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ये बल्लियाँ जिसने सबसे पहली-पहली बार गाड़ी होंगी वह कितनी जीवट वाला आदमी रहा होगा! हो सकता है कि यह सरकार का प्रबन्ध रहा हो। पर मैं इस व्यवस्था को देख-देख कर हैरान था। 

अरब सागर का पानी शाम के आस-पास से चढ़ना शुरु हो जाता है और कभी-कभी यह इस रन में पाँच-पाँच, सात-सात और गाहे-ब-गाहे दस-दस फुट भी चढ़ जाता है। आदमी डूब जाए इतना पानी भी चढ़ता है और रात ढलते-ढलते यह पानी अपने-आप उतर भी जाता है। नमक और रेत पर जब यह पानी फिर जाता है तो पाँव-पैदल चलना इतना कठिन हो जाता है कि कहा नहीं जा सकता है। पग-पग पर पाँव फिसलने का डर रहता है। और पाँव फिसलने पर यदि कोई यात्री गिर गया और दुर्भाग्य से पानी की तोंग फूट गई तो फिर वह जीवित निकल आएगा इसकी कोई सम्भावना नहीं है। पानी-पानी चिल्ला कर उसका प्राण वहीं निकल जाएगा। न वहाँ कोई सुनने वाला है, न पुरसाने हाल। यदा-कदा ऊँटों पर भी इधर से रन पार करने के लिए लोग निकल पड़ते हैं पर वे भी अकेला ऊँट लेकर नहीं चलते। यात्रियों की प्रतीक्षा में कई-कई दिनों तक ऊँटवालों को ठहरना होता है। एक तकलीफ यह भी है कि यदि कहीं रास्ते में पाँव फिसल जाने से ऊँट गिर गया तो उसको खड़ा करना ही सबसे बड़ी समस्या हो जाती है। कहीं-कहीं रन में ऊँटों के पंजर भी देखने को मिल जाते हैं। नमक के कारण वहाँ लाश धीरे-धीरे गलती है और ऐसे पंजर यात्रा को और भी अधिक भयावना बना देते हैं। एक बार मकरभीम आँख से ओझल हुआ कि फिर यात्री को सहायता की सभी सम्भावनाएँ समाप्त समझनी चाहिए। वह बद्धिमानी से वापस लौट जाये तो बात अलग है।
 
रन में जितनी नमकीन और दीप्तिमयी चाँदनी होती है, दिन उतना ही विकराल और साँय-साँय करता होता है। मृगतृष्णा कहीं-कहीं तो अगले पग-पर ही दिखाई पड़ती है और कहीं सौ-पचास गज पर। पानी के अभाव में चाहे दिन हो या रात, अगर यात्री मृगतृष्णा के भ्रम में फँस गया और उसने मार्ग-संकेत छोड़ दिए तो फिर उसको मरने से कौन बचायेगा? भगवान के सिवाय कोई सहारा नहीं है। आसमान की तरफ देखना हो तो ठहरकर देखना होता है। चलते-चलते देखने पर गिरने का पूरा खतरा है। सड़क के मीलों की तुलना में ये मील इतने लम्बे और खाऊ लगते हैं कि मैं आपको बता नहीं सकता। न आसपास मील के पत्थर, न कोई झाड़ या झाड़ी। और फिर हवा की लपटें! दिन भर का तपा-तपाया रन, रात को भी गरम रहता है। पग-पग पर गला सूखता है और पानी की तोंग पर आदमी की पकड़ अपने आप मजबूत होती जाती है। तोंग के मुँह में एक नली सी लगी रहती है जो बगल की तरफ से होकर मुँह तक आ जाती है। जहाँ गला सूखा कि उस नली को मुँह में लेकर एकाध घूँट पानी खींच लो। यह भी पता नहीं चल पाता है कि तोंग में पानी कितना बचा है। दस-पाँच पग चलने पर ही मन करता है कि तोंग का मुँह खोलकर पानी देख लो। पानी उस समय आदमी के लिए कुबेर की सम्पत्ति से भी अधिक मँहगा हो जाता है।’ 
 




किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

2 comments:

  1. एकदम किसी रहस्य रोमांच उपन्यास की तरह कहानी चल रही है. पाठकों को पूरी तरह जकड़े हुए...

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    1. जी। इसे टाइप करते समय, टाइप करना छोड कर पढने लगता था जबकि मैं इसे पहले ही पढ चुका हूँ।

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