बोला मेरा मन हीरामन

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की इक्कीसवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




बोला मेरा मन हीरामन

बोला मेरा मन हीरामन 
गीतों की ऋतु फिर आयेगी।

-1-

दाँत पीस कर जो भी लिक्खा, सचमुच में वो गीत नहीं था
हल्ला ही हल्ला था उसमें, जीवन का संगीत नहीं था
जबड़े भींच-भींच कर लिखना, ताल ठोक कर उसको गाना
सिर्फ दाद के लिये गरजना, बार-बार उसको दुहराना
लगता है अब बहुत हो गया
कविता का शिवरत्न खो गया
शायद है अब सुरसत मैया, कान पकड़ कर लिखवायेगी
गीतों की ऋतु फिर आयेगी
मानो चाहे मत मानो.....

-2-

गायत्री की धरती है यह, यहाँ ऋचाएँ झुनझुन करतीं
मन्त्र यहाँ सर्जित होते हैं, गीतांजलियाँ नर्तन करतीं
छन्द जहाँ का राजकुँवर हो, गीत जहाँ का महाराजा हो
ढोल, नगोड़े तक हों सुर में, तुरही तक रण का बाजा हो
रोना तक हो जहाँ राग में
सामवेद हो जहाँ आग में
मत समझो उस छन्द भूमि से, गायत्री गुम हो जायेगी
गीतों की ऋतु फिर आयेगी
मानो चाहे मत मानो.....

-3-

उर्वर की तुलना में ऊसर, शायद है मन को भा जाये
इसका अर्थ नहीं है ऊसर, उर्वर का दर्जा पा जाये
अट्टहास का अपना सुख है, लेकिन सुख भी दुख देता है
मुसकानों की जनकदुलारी, पर्णकुटी से हर लेता है
लछमन रेखा नष्ट- हो गई
सारी स्थितियाँ स्पष्ट हो गईं
हो अशोकवन में जब सीता, लंका कैसे बच पायेगी?
गीतों की ऋतु फिर आयेगी
मानो चाहे मत मानो.....

-4-

मेघराज तक मन्द्रराग में, जहाँ सवा सौ दिन गाते हों
जहाँ हंस तक मुक्ता चुगते, वर्ना भूखों मर जाते हों
वहाँ सरोवर से लहरों को, कोई अलग करेगा कैसे?
जब तक माँ है इस घरती पर, बोलो गीत मरेगा कैसे?
पच्छिम से पछुआ का आना
मानो मत पुरवा का जाना
गर्भवती प्राची पूरब से, गीत-कलश फिर-फिर लायेगी
गीतों की ऋतु फिर आयेगी 
मानो चाहे मत मानो.....

-5-

कोयल ने दम साध रखा है, उसे मरी हुई मत मानो
पंचम लगने ही वाला है, सच कहता हूँ, सच्ची जानो
चन्दनवन से पहिला झोंका, निकल पड़ा है, उठ भी जाओ
फिर से कलम डुबो लो रस में ,गीतों का त्यौहार मनाओ
वीणा वादिनी को फिर टेरो
छन्द-छन्द मधु-गन्ध बिखेरो
गीत-कर्म फिर शुरु हुआ है, ऋतम्भरा फिर से गायेगी
गीतों की ऋतु फिर आयेगी 
मानो चाहे मत मानो.....
 
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।












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