अपनी गंध नहीं बेचूँगा




- लाल बहादुर श्रीवास्तव -



चाहे सभी सुमन बिक जाएँ
चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ
पर मैं गंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा।

उक्त पंक्तियाँ देश के प्रख्यात साहित्यकार कवि, सांसद बालकवि बैरागी की कविता ‘अपनी गंध नहीं बेचूँगा’ उस समय के दौर की हैं, जब राजनीति में पार्टियाँ खरीद-फरोख्त करती हुई अधिक नजर आती थीं। नेता स्वार्थवश दल-बदल कर लेते थे। लेकिन बालकवि बैरागी उन राजनीतिज्ञों में से एक थे, जिन्होंने अन्त तक अपनी शुचिता को अक्षुण्ण बनाए रखा। कभी मौकापरस्ती का साथ नहीं देते हुए जीवनभर संघर्षशील रहे।

सन् 1968 के समय की बात है, जब बालकवि बैरागी म.प्र. विधानसभा में कांग्रेस के विधायक थे। वे तब मन्त्री मण्डल मे संसदीय सचिव भी थे। अचानक दल-बदल की आँधी चली, कांग्रेस की सरकार गिर गई। ग्वालियर घराने की राजमाता सिंधिया की उठापटक से श्री गोविन्द नारायणसिंह के नेतृत्व में संविद सरकार बनी। तब राजमाता विजियाराजे सिंधिया ने बालकवि बैरागी के पास एक सन्देश भेजा कि दल बदलकर हमारी पार्टी में आ जाओ, तुम्हारा मन्त्री पद बना रहेगा।

ऐसी स्थिति में प्रायः राजनेता स्वार्थवश लुढ़क ही जाते हैं। अनेक नेता कांग्रेस से लुढ़ककर राजमाता के पक्ष में चले गए। लेकिन बालकवि बैरागी ने एक अनूठा उत्तर उस समय की सर्वाधिक ताकतवर और प्रभावशाली नेता, राजमाता सिंधिया को दिया, ‘राजमाता जी! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। पूरी विनम्रता के साथ आपका आदर करता हूँ। लेकिन मैं आपकी बात नहीं मान सकता। मैंने आज सुबह ही अपने हाथ-पैरों के नाखून काटे हैं। आपकी सारी शक्ति और सम्पदा भी इन्हें नहीं खरीद सकती। अतः मुझे भी खरीदने की मत सोचिएगा।’

यह चरित्र था साहित्यकार, राजनीतिज्ञ बालकवि बैरागी का। जिन्दगी भर स्वच्छ राजनीति की। राजनीति की ‘काजल की कोठरी’ में अपने दामन पर कभी दाग नहीं लगने दिया। वे राजनीति को अपना कर्म एवं साहित्य को धर्म मानते थे। कभी एक-दूसरे को इसमें समावेश नहीं होने दिया। छल, प्रपंच, आडंबर से कोसों दूर। सबके चहेते, चाहे वे विरोधी पार्टियों के सदस्य हो, उन सबसे घुल-मिलकर रहते थे । उन्हें अपनी रचनाधर्मिता पर माँ सरस्वती का वरदहस्त प्राप्त था। दोनों क्षेत्रों में वे अति विनम्र थे और दृढ़ भी।

इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया, तब उन्होंने इसका पुरजोर विरोध स्वयं इन्दिरा गांधी के सम्मुख दर्ज करवाया और कहा, आपात काल लगाना जनता को परेशानियों में डालने जैसा कार्य कांग्रेस ने किया है, इसका परिणाम भी शीघ्र सामने आएगा। और हुआ भी ऐसा हो। दिल्ली से कांग्रेस की सत्ता हाथ से निकल गई।

इनकी दृढ़ता उन्हें कभी भी विचलित नहीं कर सकती थी। बड़ों को आदर देना, छोटों को आशीष, उनका सबसे बड़ा गुण था। दो बार म.प्र. शासन में कांग्रेस की सत्ता में मन्त्री, लोक सभा तथा राज्य सभा सदस्य रहे। इन्दिरा गांधी से लगाकर सोनिया गांधी के भाषणों के वे भाषण-लेखक थे। प्रधान मन्त्री से लेकर एक पानवाला तक उनका प्रशंसक था।

बालकवि बैरागी एक राजनेता ही नहीं श्रेष्ठ संचालक, एक कुशल वक्ता के साथ-साथ श्रेष्ठ गद्य लेखक भी थे। उनकी कालजयी रचनाएँ इतिहास के पन्नों पर अजर-अमर रहेंगी। उन्होंने 26 फिल्मों के सुमधुर गीत लिखने के साथ-साथ कई फिल्मों में पटकथाएँ लिखीं। भादवामाता, रानी और लाल परीे फिल्म के गीत व पटकथा लिखी। वे राष्ट्र के ऐसे मंगल कवि थे और रहेंगे, जिनकी रचनाओं ने देश-विदेश में बड़ी धूम मचाई। मालवी भाषा को देशभर में अपनी श्रृंगार रचना ‘पनिहारी’ से शीर्ष पर पहुँचानेवाले राष्ट्रकवि बालकवि बैरागी हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर थे। उनका वर्षा गीत ‘बादरवा अईग्या’, ‘लखारा’ लोकगीत ग्रामीण महिलाओं के कण्ठों का मधुर लोकगीत बना। संगीतकार जयदेव ने ’रेशमा और शेरा’ फिल्म के लिए ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ गीत बैरागीजी से लिखवाया, जो सुनील दत्त और वहीदा रहमान पर फिल्माया गया, उसे स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने दिया था, उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ और आज भी है।

सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में जब पाकिस्तान को करारी हार मिली, तब इसकी खुशी में लाल किले की प्राचीर पर हुए कवि-सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के सम्मुख जब यह कविता ‘जबकि नगाड़ा बज ही गया है सरहद पर शैतान का, (तो) नक्शे पर से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’ सुनाई, तब शास्त्रीजी बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कवि बैरागीजी को गले लगा लिया।

महावीर स्वामी का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था। यही कारण था कि वे 20-25 देशों में घूमने के दौरान भी महावीर स्वामी की आहार संहिता का परिपालन करते थे! अभावों में रहकर जीवन भर संघर्ष कर उन्होंने अपने को अनमोल रत्न बना लिया था। उनका जीवन एक कल्प ऋषि-मुनि की तरह था। उनका सान्निध्य पाकर पत्थर दिल भी पारस हो जाया करते थे। वे डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन और रामधारीसिंह दिनकर के प्रिय शिष्य रहे।

जब कवि दिनकरजी विदा हुए तब बैरागीजी की कलम ने श्रद्धांजलि लिखी। 23 अप्रैल की रात दिनकर ने तिरुपति मन्दिर में जाकर भगवान विष्णु के दर्शन किए और मन्दिर प्रांगण में कविता सुनाने लगे। अश्रुधार निकली तो पूरा प्रांगण रोया, फिर रामेश्वरम में कविता पाठ किया, फिर सोये तो उठे ही नहीं। अखबार ने अगले दिन लिखा ‘हिन्दी का सूरज दिनकर डूब गया, प्रातः प्रणम्य दिनकर को शत-शत नमन।’

बैरागीजी ने खुद को दिनकर का वंशज माना था। उन्होंने ‘वंशज का वक्तव्य’ शीर्षक अपनी कविता में दिनकरजी को इस तरह श्रद्धांजलि दी -

क्या कहा? क्या कहा कि दिनकर डूब गया दक्षिण के दूर दिशांचल में;
क्या कहा कि गंगा समा गई रामेश्वर के तीरथजल में?
क्या कहा कि नगप्रति नमित हुआ तिरुपति के घने पहाड़ों पर?
क्या कहा कि उत्तर ठिठक गया दक्षिण के ढोल नयाड़ो पर?

कल ही तो उसका काव्य प्राठ सुनता था सागर शान्त पड़ा,
तिरुपति का नाद सुना मैंने, हो गया मुग्ध रह गया खड़ा,
वह मृत्यु याचना तिरुपति में। अपने श्रोत्रा से कर बैठा।
हो वहीं कहीं वह समाधिस्थ क्या कहते हो कि मर बैठा?

यदि यही मिलेगा देवों से उत्कृष्ट काव्य का पुरस्कार,
तो कौन करेगा धरती पर ऐसे देवों को नमस्कार?

इतिहास अपने आप को दोहराता है, उपरोक्त पंक्तियाँ फिर से सजीव हो उठीं। हिन्दी माँ के सरस्वती पुत्र बालकवि बैरागी अपने गुरु दिनकर की तरह मौन व्रत धारे चुपचाप इन्द्रसभा में दिनकर और सुमन के संग होनेवाले कवि-सम्मेलन में शरीक हो गए।

13 मई 2018 की सुबह वे उद्घाटन समारोह में पहुँचे। लगभग 40 मिनिट तक सबको हँसाया, गुदगुदाया। तीन बजे मित्रों के साथ गपशप की, फिर अपने शयनकक्ष में विश्राम के लिए चले गए। अपराह्न 4 बजे उनका सेवक जब चाय लेकर पहुँचा तो वे एक हाथ सिर पर रख सो रहे थे। उन्हें जगाया, वे नहीं उठे। ऐसा लग रहा था, शान्त मुद्रा में वे कोई कविता रच रहे हों। जब हिलाने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तब तक यह खबर आग की तरह देश भर में फैल गई। साहित्य मनीषी बालकवि बैरागी मौन धारण कर चुपचाप अलविदा कह गए। देश-विदेश में जिसने भी यह समाचार सुना, अश्रुधारा बह निकली। कवि-सम्मेलन के सहपाठी नीरज ने उनके निधन पर कहा, मेरे शरीर का आधा हिस्सा अनायास चला गया और कुमार विश्वास ने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा, ‘एक और दिनकर प्रकृति की गोद में हम सबको अपनी ओजस्वी रचनाओं का रसपान कराकर चुपचाप चल दिया।’

बालकवि बैरागी का सूत्र वाक्य था-‘साहित्य मेरा धर्म है, राजनीति मेरा कर्म। अपने धर्म और कर्म की शुचिता का मुझे पूरा ध्यान है। बाएँ हाथ से लिखता हूँ। ईश्वर ने मुझे बाएँ हाथ में कलम और पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने मेरे दाहिने हाथ में शहीदों के खून से रंगा तिरंगा थमाया। मैं दोनों की गरिमा को दाग नहीं लगने दूँगा।’ उन्हीं की ये पंक्तियाँ जिसका जीवनभर अनुसरण किया, ‘मैं मरूँगा नहीं, क्योंकि कोई काम ऐसा करूँगा नहीं’ पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया।

बालकवि बैरागी एक राष्ट्रकवि के रूप में कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर सदैव हम सबके दिलों में जिन्दा रहेंगे। माँ सरस्वती पुत्र को शब्द-श्रद्धा-सुमन अर्पित उन्हीं के इस छन्द से-

आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूँ कहा,
‘आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यों रहा?’
तमतमाकर वह दहाड़ा, ‘मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ तुम लड़ो।’
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(श्री लालबहादुर श्रीवास्तव का यह आलेख, ‘साहित्य अमृत’ के फरवरी 2019 अंक में छपा था। श्री लाल बहादुर श्रीवास्तव मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय मन्दसौर में रहते हैं। जब यह आलेख पोस्ट हो रहा है तब वे जनपद पंचायत मन्दसौर में सहायक विस्तार अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनका पता - ‘शब्द शिल्प’, एलआईजी ए-45, जनता कॉलोनी, मन्दसौर - 458004, मध्य प्रदेश तथा मोबाइल नम्बर 94250 33960 है।)

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