कल्प ऋषि दादा बालकवि बैरागी



- डॉक्टर पूरन सहगल

साहित्य, संस्कृति और इतिहास को दिशा-बोध देने वाले लोक पुरुष को मैं ऋषि मानता हूँ। संस्कृत और इतिहास का मुझे ज्ञान नहीं है। जब भी इतिहास या पुरातत्त्व पर चर्चा करनी होती है,  ज्ञात इतिहासज्ञ और पुरातत्वेत्ताओं की शरण में जाने में तनिक भी संकोच नहीं करता।

मैं ‘धूल-धाये’ (न्यारगर) की तरह सुनार की धूल के ढेर में से सोना, चाँदी तलाशने का श्रम करता हूँ। न सोना मेरा होता है न चाँदी, न धूल। सब कुछ सुनार का होता है। मेरा तो श्रम मात्र होता है। लोक से लोक साहित्य प्राप्त करना भी ठीक वैसा ही है।

मैंने उस धूल में से जो निकाला है वह कितना मूल्यवान है और कितना व्यर्थ, इसकी परख भी मुझे नहीं हैं। कबीर ने अपनी वाणी में ‘पारख ज्ञान’ की बात कही है जो केवल सद्गुरु के पास ही होता। वही सच्चा पारखी है। उसी को हम ऋषि कह सकते है। मेरे प्राप्य की परख भी होती है। दादा बालकवि बैरागीजी उसे परखते हैं। मेरे द्वारा प्राप्त का मूल्यांकन वे बिना बोले कर देते हैं।  मुझे ‘सार-सार को गहि ले थोथा देहि उड़ाय’ का पालन करना होता है। 

एक लोकोक्ति है ‘करमहीन कलप्यो करे, कलप बिरछ की छाँव’। कर्महीन व्यक्ति कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर भी दुःखी होता रहता है। कल्प वृक्ष के नीचे बैठने के बाद भी अपने इच्छित की प्राप्ति के लिए कर्म तो करना ही पड़ता है। 

मैं एक कल्प वृक्ष का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। इस कल्प वृक्ष को ‘कल्प ऋषि’ कहना अधिक उचित होगा। एक ऐसा ‘कल्प ऋषि’ जिसने स्वयम् को कल्प वृक्ष बना लेने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। आराम या विश्राम मैंने उनके जीवन में कभी नहीं देखा। जो मिल गया उसे मुकद्दर नहीं माना। श्रमफल माना। जो खो गया, उसे भुलाया नहीं। उसे याद रखते हुए सतत् प्रयत्न कर, पुनः प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित कर ‘चरैवेति-चरैवेति’ क्रम निरन्तर बनाए रखा। कबीर की तरह अपनी चादर को ओढ़ा भी, बिछाया भी लेकिन मैली नहीं होने दी। कबीर की ही तरह ज्यों की त्यों धर दी। मैं उन्हें डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन और दादा चिन्तामणी उपाध्याय की जीवन्त परम्परा का निर्वाहक मानता हूँ। वे निराला और दिनकर के वंशधर तथा प्रेमचन्द के प्रतिनिधि हैं। इसके बावजूद बैरागी, बैरागी ही बना रहा। अपना बैरागीपन नहीं छोड़ा। फकीरी मौज और खरा-खरा कहने की कबीरी मस्ती बरकरार बनाए रखी। वे न तो किसी वट वृक्ष के नीचे सोते रहे और न उन्होंने किसी कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर अपनी मनोमना पूरी होने की आकांक्षा की।

अपनी मंजिल में आने वाले रोड़े स्वयं हटाए। काँटे, कंकर स्वयं चुने और मार्ग की वर्जनाओं को अपने आत्मबल से हटाया। व्यक्ति से व्यक्तित्व तक की कठिन-कठोर यात्रा उन्होंने स्वयम् के वामन कदमों से तय की। किसी के कन्धों पर बैठकर नहीं। ख्यातनाम साहित्यकार धर्मवीर भारती जी एक बार निराला जी से मिलने गए। निरालाजी अस्वस्थ किन्तु प्रसन्नचित्त थे। उन्होंने भारतीजी से कहा - ‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे पता चल गया है कि मेरा परिवार बहुत बड़ा है। किन्तु व्यक्तित्व केवल दो हैं - भारतेन्दु और निराला।’ यह बात उन्होंने निराला युग में कही थी। आज मैं इसी कड़ी में एक नाम बालकवि बैरागी का भी जोड़ दूँ तब यह त्रिवेणी संगम अधिक पावन हो जाएगा। व्यक्ति से व्यक्तित्व बन जाना सुदीर्घ तपस्या का फल होता है।

एक बार बैरागीजी ने मुझे खलील जिब्रान की एक सूत्र पंक्ति सुनाई थी - ‘यदि ईश्वर तुम्हारे हाथों से मशाल ले ले तब मायूस मत होओ। शायद वह  तुम्हारे हाथों में आफताब थमाना चाहता हो।’ यह सूत्र सदा उनके जीवन का आधार बना रहा।

आर्य समाज ने बैरागीजी को ‘आर्य रत्न’ सम्मान से विभूषित किया। आर्य रत्न तो वे हैं ही, वे तो इससे भी ऊपर, ‘हिन्दी रत्न’ एवम् ‘संस्कृति रत्न’ हैं। सच तो यह है कि बैरागी जी को सम्मानित करके कोई भी संस्था स्वयं सम्मानित और गौरवान्वित हो जाती है। सम्मान से ऊपर है ऐसे लोक पुरुष को, ऐसे कल्प ऋषि को सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हो जाना।

अब उनका स्वाध्याय उन्हें निरन्तर दिव्यता प्रदान करता दीखता है। स्वाध्याय अर्थात् स्वयम् का अध्ययन। आत्मचिन्तन। स्वयं को जानने का प्रयत्न। अपने भीतर झाँक कर भीतर के उजास को जीवन्त बनाए रखने का प्रयास। इसे ही तो बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहा है। दादा बैरागीजी ने सदा यही किया है इसीलिए मैं उन्हें ‘कल्प ऋषि’ कहता हूँ। नहीं जानता कि कोई कल्प वृक्ष होता भी है या नहीं। किन्तु मैं ‘कल्प ऋषि’ को जानता हूँ। वे ऐसे कल्प वृक्ष हैं जिनके तले उगने वाला कोई पौधा न सूखा है न मुरझाया है। वह तो सदा पल्लवित और पुष्पित हुआ है। ऐसे कल्प वृक्ष को, ऐसे अश्वत्थ को, ऐसे ‘कल्प ऋषि’ को पीढ़ी का वन्दन, अभिनन्दन।

-----

(यह आलेख उज्जैन से प्रकाशित ‘समार्वतन’ के मई 2015 अंक में, इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का सम्पादित रूप है।)




डॉक्टर पूरन सहगल। जन्म - 13 जनवरी 1937, पंचग्राही, मियाँवाली, पाकिस्तान। ‘मालवालोक संस्कृति अनुष्ठान’ के संस्थापक-संचालक। मालवी लोक साहित्य और लोक संस्कृति पर निरन्तर शोध। अपराध पेशा और देह व्यवसाय में लिप्त जातियों, यायावर जाति वामनिया बंजारा, कालबेलिया, गाडोलिया, साटिया पर समाज शास्त्रीय अध्ययन-लेखन। दशपुर जनपद के सन्तों, सेनानियों पर लेखन। मालवी की कृष्ण-भक्त कवयित्री चन्द्रसखी, नवनिधि कुँवर, श्रृंगार की प्रसिद्ध कवयित्री सुन्दर एवम् रूपमति आदि के साहित्य का संकलन-सम्पादन-प्रकाशन। मालवी में उपलब्ध लोक देवता तेजाजी, वाबूजी, देवनारायणजी, रामदेवजी, महाराज विक्रमादित्य, भोज एवं भरथरी की गाथाओं का संकलन एवं सांस्कृतिक अनुशीलन। अब तक 78 पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पुरुस्कारों, सम्मानों से अलंकृत। पता - ऊषागंज कॉलोनी, मनासा-458110, जिला नीमच, मध्य-प्रदेश। मोबाइल - 94240 41310.

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.