यह प्रसंग भाषा के चमत्कार का तो नहीं, भाषा के सुन्दर उपयोग का अवश्य है। सूझ-समझ हो तो, जो भाषा, धारादार और घातक औजार के रूप में आपके विरुद्ध प्रयुक्त की जा रही है, उसे ही आप अपना कवच कैसे बना सकते हैं, यह भी इस प्रसंग से समझा जा सकता है। भाषा तो वही होती है, बस! आवश्यकता होती है, उसे प्रयुक्त करने के कौशल की। यही कौशल, सामनेवाले द्वारा प्रयुक्त किए गए घातक-शस्त्र को बूमरेंग बनाकर, आक्रामक को लौटा सकता है, जिस पर वार किया गया है, वही इसे अपना कवच बना लेता है। कुछ इस अन्दाज में कि ‘कैसे तीरन्दाज हो? सीधा तो कर लो तीर को!’
बात 1980 की है। दादा मध्य प्रदेश सरकार में, स्वतन्त्र प्रभारवाले खाद्य राज्य मन्त्री थे। विधान सभा का सत्र चल रहा था। उस दिन के प्रश्न-काल में, खाद्य मन्त्रालय से जुड़े प्रश्न शामिल थे। संयोग से उस दिन मैं भोपाल में ही था। दादा, एक शाम पहले से ही ‘होम वर्क’ कर रहे थे। वे तनाव में तो नहीं थे किन्तु तनिक अतिरिक्त सतर्क अवश्य थे। मैंने पूछा तो बोले - ‘प्रश्न-काल, मन्त्री की केवल राजनीतिक परीक्षा ही नहीं होता। वह मन्त्री की प्रतिभा की तथा चीजों को कैसे सम्हाला जाए, इस क्षमता की भी परीक्षा होता है। मूल प्रश्न का उत्तर तो अधिकारी तैयार कर देते हैं किन्तु पूरक प्रश्न तो मन्त्री को अपने दम पर ही झेलने और निपटाने पड़ते हैं। ये पूरक प्रश्न ही किसी भी मन्त्री की वास्तविक परीक्षा होते हैं। जब पूरे सदन की नजरें और ध्यान आप पर हो तो असावधान रहने की जोखिम उठा ही नहीं सकते। पूरी सरकार की फजीहत हो जाती है। मन्त्री को इतना दक्ष, सक्षम और कुशल होना चाहिए कि पूरक प्रश्नों के उत्तर न होने की दशा में, इस वास्तविकता को कबूल न करे, जवाब भी नहीं दे और जवाब देना साबित कर दे।’
बात मेरी समझ से ऊपर थी। बिना समझे ही मैंने समझदार बनने का अभिनय करते हुए सहमति में मुण्डी हिला दी। लेकिन दादा समझ गए कि मैं नहीं समझा हूँ। हँस कर बोले - ‘आज देखना। आज शीतलाजी के सवाल हैं। उन्हें जवाब देना अपने आप में एक परीक्षा होता है।’
शीतलाजी से दादा का मतलब था श्री शीतला सहाय से। वे ग्वालियर से विधायक थे। राजनेता से अलग और ऊपर उठकर वे अपनी प्रबुद्धता, प्रखरता, तात्कालिकता जैसे दुर्लभ गुणों के लिए अलग से पहचाने जाते थे। दूर की कौड़ी भाँपना उनकी विशेषज्ञता थी। उन्हें ‘टरकाना’ किसी के भी लिए ‘आसान’ होना तो दूर रहा, कल्पनातीत ही था। इसीलिए दादा अतिरिक्त रूप से सतर्क थे।
दादा दो बार विधायक रहे, दोनों ही बार मन्त्री बने किन्तु मैं केवल एक बार विधान सभा सत्र देखने गया। यही वह दिन था जिस दिन मैंने शीतला सहायजी को प्रश्न पूछते देखा था।
प्रश्न काल शुरु हुआ। मेरी याददाश्त के मुताबिक सम्भवतः श्रीयुत यज्ञदत्तजी शर्मा विधान सभा अध्यक्ष थे। शीतलाजी का नम्बर आया। वे, ग्वालियर-चम्बल सम्भाग स्थित, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर खाद्यान्न पहुँचाने हेतु प्रयुक्त की जा रही परिवहन व्यवस्था के बारे में ‘जानने’ के नाम पर सरकार से कुछ स्वीकारोक्तियाँ करवाना चाहते थे। उनके प्रश्न से लग रहा था कि वे किसी परिवहन-ठेकेदार और सरकार की मिली भगत उजागर करना चाहते थे किन्तु खुद उस परिवहन-ठेकेदार का नाम नहीं लेना चाहते थे। उनका प्रश्न कुछ इस प्रकार था - ‘माननीय अध्यक्ष महोदय! क्या खाद्य मन्त्रीजी बताने की कृपा करेंगे कि चम्बल-ग्वालियर सम्भाग की, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों तक, खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुएँ पहुँचाने के लिए किस परिवहन-प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है?’
प्रश्न पूछकर शीतलाजी बैठे। अध्यक्षजी ने दादा की ओर देखा - ‘मन्त्रीजी! जवाब दीजिए।’ दादा खड़े हुए और कुछ इस तरह जवाब दिया - ‘माननीय अध्यक्षजी! ग्वालियर और चम्बल सम्भाग के अतिरिक्त प्रदेश में, जिस परिवहन-प्रणाली से, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की दुकानों पर खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुएँ पहुँचाई जा रही हैं, उसी परिवहन-प्रणाली से ही यह सब, ग्वालियर-चम्बल सम्भाग स्थित, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर पहुँचाया जा रहा है।’ कह कर मन्त्रीजी बैठते, उससे पहले ही शीतलाजी खड़े हो गए। भड़क कर बोले - ‘यह जवाब कोई जवाब हुआ?’ मन्त्रीजी फौरन उठे और बोले - ‘माननीय अध्यक्षजी! माननीय सदस्य के मूल प्रश्न से स्वतः स्पष्ट है कि उन्हें ग्वालियर-चम्बल सम्भाग की व्यवस्थाओं के अतिरिक्त, पूरे प्रदेश की परिवहन-प्रणाली की जानकारी है। मैं वह जानकारी दोहरा कर सदन का और माननीय सदस्य का अमूल्य समय नष्ट नहीं करना चाहता।’ शीतलाजी तार्किक रूप से निरुत्तर हो चुके थे। अपने नाम में ‘सहाय’ जोड़े हुए शीतलाजी ने तनिक असहाय मुद्रा में, सहायता के लिए अध्यक्षजी की ओर देखा। अध्यक्षजी हँस दिए। बोले - “शीतलाजी! आपने शब्दों पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया और मन्त्रीजी ने शब्दों पर ही ध्यान दिया। आपने ‘परिवहन-प्रणाली’ के बारे में पूछा और मन्त्रीजी ने आपके सवाल से ही साबित कर दिया कि प्रणाली की जानकारी आपको तो पहले से ही है। इसलिए, जहाँ तक प्रश्न के उत्तर की बात है तो सरकार ने स्पष्ट और अन्तिम उत्तर दे दिया है। मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता।” समूचे घटनाक्रम से सर्वथा असन्तुष्ट शीतलाजी को मन मारकर बैठ जाना पड़ा।
बाद में, भोजनावकाश में दादा मिले तो बहुत खुश थे। बोले - ‘अभी शीतलाजी के चरण स्पर्श करके आ रहा हूँ। आज उन्होंने दस लोगों के बीच मुझे प्रमाण-पत्र दिया है। कह रहे थे कि उन्हें यह तो याद रहा कि वे राजनीति के कुशल खिलाड़ी हैं किन्तु भूल गए थे कि उनके सामने शब्दों का कुशल खिलाड़ी है। उन्होंने मेरी पीठ ठोकी।’
शीतलाजी, दादा से बहुत ही वरिष्ठ राजनेता थे और अपने किसी वरिष्ठ से, वह भी प्रतिपक्ष के वरिष्ठ से ऐसी सराहना प्राप्त कर पाना किसी के भी लिए सचमुच ही आत्म सन्तोष और गर्व की बात होती है।
इसका समानान्तर सच यह भी है कि अपने प्रतिपक्षी की ऐसी सराहना करने के लिए भी बहुत बड़ा मन, निर्मल आत्मा, यथेष्ठ आत्म-बल और निरपेक्ष राजनीतिक साहस की आवश्यकता होती है। यह घटना बताती है कि यह सब केवल शीतलाजी में ही नहीं, उनकी पीढ़ी के समस्त राजनेताओं में रहा होगा।
अब तो ऐसी बातें ‘किस्सों-कहानियों की बातें’ ही रह गई हैं।
गजब की सूझ शक्ति चाहिए...... आकृमण तीर को ढाल मेँ परिवर्तित करने के लिए!!
ReplyDeleteशीतलाजी, दादा से बहुत ही वरिष्ठ राजनेता थे और अपने किसी वरिष्ठ से, वह भी प्रतिपक्ष के वरिष्ठ से ऐसी सराहना प्राप्त कर पाना किसी के भी लिए सचमुच ही आत्म सन्तोष और गर्व की बात होती है।
ReplyDeleteइसका समानान्तर सच यह भी है कि अपने प्रतिपक्षी की ऐसी सराहना करने के लिए भी बहुत बड़ा मन, निर्मल आत्मा, यथेष्ठ आत्म-बल और निरपेक्ष राजनीतिक साहस की आवश्यकता होती है। यह घटना बताती है कि यह सब केवल शीतलाजी में ही नहीं, उनकी पीढ़ी के समस्त राजनेताओं में रहा होगा।
यही शब्द शक्ति कहलाती है ...
शब्द बनाते, शब्द बचाते।
ReplyDeleteफेस बुक पर, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteमैं भाग्यशाली हूँ कि मैं बचपन से ही दादा को, रामपुरा, गरोठ, मन्दसौर, मनासा आदि स्थानों पर सुनता रहा हूँ।