मैं इस पर विश्वास नहीं करना चाहता


पन्द्रह फरवरी की रात को एक विवाह-भोज में हुई इस बात को यहाँ लिखने में मुझे (बात होने से लेकर यहाँ लिख देने तक) बार-बार खुद से जूझना पड़ा है। अपने आप से सवाल करने पड़े हैं। किन्तु अन्त तक किसी सुस्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। इसे लिखने से बचना बहुत आसान था और न लिखना ही शायद व्यावहारिक बुद्धिमानी भी होता। किन्तु भारतीय राजनीति के जन-जुड़ाव के व्यापक सन्दर्भ में मुझे इस बात को विमर्श में लाना ही बेहतर लगा। इसी भाव से यह सब लिख रहा हूँ और इसी भाव से ही इसे पढ़ा भी जाना चाहिए। यह लिखना मेरी मूर्खता हो सकता किन्तु ईश्वर जानता है कि यह मूर्खता सदाशयता के अधीन ही कर रहा हूँ।

गए लम्बे समय से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि हमारे विधायी सदनों का उपयोग, देश की नीतियाँ निर्धारित करने के बजाय राजनीतिक गतिविधियों के लिए अधिक किया जाने लगा है। जिन मुद्ददों को, सड़कों पर जाकर नागरिकों के बीच उठाया जाना चाहिए, वे विधायी सदनों में उठाये जाने लगे हैं। जिन मुद्दों में नागरिकों को शामिल किया जाना चाहिए, वे मुद्दे, विधायी सदनों का काम काज बाधित कर, नागरिकों को सूचित किए जाने लगे हैं। संसद हो या विधान सभाएँ, सरकारों की विधायी विषय सूची अब किसी भी सत्र में पूरी नहीं होती। 

प्रोन्नत सूचना तकनीक के इस समय में सारी जानकारियाँ लोगों को बहुत जल्दी और बहुत विस्तार से मिलने लगी हैं। इसी के चलते, पाठकों तक पहुँचने से पहले ही अखबार अपनी ताजगी खोने लगे हैं। इसी कारण लोगों को राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों की ही नहीं, उनके पीछे छिपे इरादों की भी जानकारी भली प्रकार हो जाती है। सम्भवतः यही कारण है कि राजनीतिक दलों की मैदानी गतिविधियों में लोगों का टोटा पड़ने लगा है। मेरे कस्बे की ऐसी गतिविधियों में मुझे वे ही लोग नजर आते हैं जिन्हें या तो अपने नेता के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा प्रकट करनी होती है या फिर राजनीति ही उनकी रोजी-रोटी है। जन सामान्य (और तो और, उसी राजनीतिक दल के सामान्य कार्यकर्ता भी) अब ऐसी गतिविधियों में दिखाई नहीं देते। शायद इस ‘जनाभाव’ के चलते ही, सड़कों की राजनीतिक गतिविधियाँ अब विधायी सदनों में सम्पादित की जाने लगी हैं। यह स्खलन तमाम राजनीतिक दलों में समान रूप से आया है। कोई भी पार्टी इससे बची हुई नहीं है। 

इसे मैं अनुचित और राजनीतिक शुचिता के विरुद्ध मानता हूँ और यही वह बात है, जिसे लेकर मैं यह सब लिख रहा हूँ।

पन्द्रह फरवरी को उस विवाह-भोज में जिन सज्जन से मेरी भेंट हुई वे मेरे पुराने परिचित हैं। राजनीतिक स्तर पर उनका जुड़ाव भाजपा से है। व्यक्तिशः वे बहुत ही भले और साफ-सुथरे हैं। मैं उन्हें उन लोगों में गिनता हूँ जो जिस भी व्यवसाय में या पद पर होते हैं, वह व्यवसाय या पद, उनसे गरिमा पाता है। वे दिल्ली में एक (भाजपाई) सांसद के निजी सहायक की तरह काम करते हैं। सम्भवतः सरकार ने सांसदों को यह सुविधा उपलब्ध करा रखी है कि वे सरकारी खर्चे पर, अपनी पसन्द के किसी गैर सरकारी आदमी को अपने सहायक के रूप में रख सकें। यदि ऐसा नहीं है तो फिर वे सांसद अपनी जेब से उनका पारिश्रमिक भुगतान करते होंगे।

भोजन करते हुए बात, भाजपा द्वारा, गृहमन्त्री शिन्दे के बहिष्कार के निर्णय पर आ गई। शिन्देजी ने हिन्दू-आतंकवाद, भगवा आतंकवाद की और ऐसी गतिविधियों में लिप्त लोगों से भाजपा तथा संघ के जुड़ाव की बात सार्वजनिक रूप से कही थी। इससे संघ और भाजपा का आक्रोशित होना सहज और स्वाभाविक ही था। शिन्देजी के बहिष्कार के इसी क्रम में भाजपा ने, लोकसभा के बजट सत्र को ठप्प करने की घोषणा भी की थी। 

शिन्देजी के बहिष्कार तक तो मुझे बात ठीक लगी थी किन्तु लोकसभा ठप्प करनेवाली बात मेरे गले नहीं उतरी। मेरी धारणा थी कि शिन्देजी का बयान, एक राजनीतिक आयोजन में, निहित राजनीतिक उद्देश्य से दिया गया राजनीतिक बयान था और इसका प्रतिकार भी राजनीतिक स्तर पर ही किया जाना चाहिए। निस्सन्देह शिन्देजी देश के गृहमन्त्री हैं और (मेरी राय में भी) कोई भी मन्त्री, चौबीसों घण्टे मन्त्री ही होता है। किन्तु उन्होंने यह वक्तव्य न तो संसद में दिया और न ही (अपने वक्तव्य से जुड़ा) ऐसा कोई प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत किया। इसलिए, भाजपा को यह मुद्दा लेकर लोगों के बीच जाना चाहिए था। 

यही बात मैंने ‘उनसे’ कही। मुझे ‘सुखद आश्चर्य’ हुआ यह देखकर कि ‘वे’ मुझसे सहमत थे। उनकी सहमति ने मुझे जिज्ञासु बना दिया। मैंने पूछा - ‘तो फिर लोकसभा ठप्प करने का फैसला क्यों?’ उन्होंने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। ससंकोच, हिचकिचा गए। हाथ का कौर हाथ में ही रह गया। साफ लग रहा था कि वे जवाब नहीं देना चाहते थे। मैंने इसरार किया तो बोले -  र्म संकट में पड़े व्यक्ति को लेकर आप ही ने एक बार एक लोकोक्ति सुनाई थी - ‘मेरी माँ ने मेरे बाप की हत्या कर दी। बोलूँ तो माँ को फाँसी हो जाए और न बोलूँ तो बाप की लाश सड़ जाए।’ आपके सवाल का जवाब देने में बिलकुल वही दशा इस समय मेरी है। मैंने कहा - ‘धर्म संकट तो दूर की बात रही, आपको किसी भी संकट में डालने का पाप मैं अपने माथे पर नहीं लूँगा। आप मेरे सवाल को भूल जाइए और प्रसन्नतापूर्वक भोजन कीजिए।’ वे जस के तस बने रहे। तनिक ठकर कर, गहरी निश्वास लेकर बोले - ‘कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा किन्तु दो-तीन कारणों से कह रहा हूँ। पहला तो यह कि पार्टी के इस निर्णय से अपनी असहमति मैं अपने सांसदजी को जता चुका हूँ। दूसरा यह कि मेरे सांसदजी भी इस निर्णय से सहमत नहीं हैं। तीसरा यह कि यह बात लोगों तक और खासकर पार्टी कार्यकर्ताओं तक पहुँचनी चाहिए और चौथा यह कि मुझे अपने आप से ज्यादा भरोसा आप पर है कि आप मरते मर जाएँगे लेकिन यह बात सार्वजनिक करते समय मेरा नाम नहीं बताएँगे।’ उसके बाद उन्होंने जो कुछ कहा, वह सुनकर मैं भोजन नहीं कर पाया। मैं, उनके कहे पर न तब विश्वास कर पा रहा था और न ही इस समय - यह सब लिखते हुए।

देश के विभिन्न स्थानों पर, सार्वजनिक स्थलों पर हुए  विस्फोटों के आरोप में, राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी (एनआईए) ने, संघ या/और इसके आनुषांगिक संगठनों से या इसकी वैचारिकता से जुड़े दस लोगों को नामजद  किया हुआ है। इनमें से कुछ लोग पुलिस गिरफ्त में हैं तो कुछ की तलाश जारी है। शिन्देजी के इस विवादास्पद बयान के बाद इस पर संसद में बात होगी ही। उस समय पार्टी, इन दस लोगों के बचाव में खड़ी नजर नहीं आना चाहती। पार्टी में कुछ लोगों को लग रहा है कि इन दस में से कुछ लोग अपराधी साबित हो सकते हैं। यदि सचमुच में ऐसा हो गया तब संसद के रेकार्ड के आधार पर पार्टी, आतंकियों और आतंकवादी गतिविधियों से जुड़ी साबित हो जाएगी। उस दशा में पार्टी का अस्तित्व तो खतरे में आ ही जाएगा, विचारधारा पर आजीवन लेबल भी लग जाएगा। सब कुछ चौपट हो जाएगा। उस दशा में, हिन्दू धर्म को आतंकवादी धर्म में बदलने का अमिट आरोप पार्टी को आजीवन झेलना पड़ेगा और पार्टी का तथा संघ का राष्ट्रवाद, आतंकवाद में बदल दिया जाएगा। वर्तमान की बात ही छोड़ दीजिए, संघ और पार्टी का तो भविष्य भी चौपट हो जाएगा। उन्होंने कहा - ‘आप जरा ध्यान से सब कुछ देखिए, पढ़िए। इन दस लोगों के पक्ष में या बचाव में पार्टी ने  अब तक कोई आधिकारिक स्टैण्ड नहीं लिया है। यह ऐसा नाजुक मामला है जिसने सबकी नींद उड़ा रखी है। ऐसे में, यदि संसद में मामला उठा तो क्या दशा होगा? पार्टी क्या स्टैण्ड लेगी? न हाँ कर सकेगी और न ही ना। इसलिए, संसद में इस मुद्दे से बचने का एक ही रास्ता है कि संसद से किनारा कर लिया जाए। शिन्देजी का बहिष्कार करने के नाम पर इस मुद्दे को चर्चा में लाने से रोकने के लिए संसद ठप्प करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है पार्टी के पास।’

पार्टी के इस फैसले से वे खुश नहीं थे। पुराने आदमी हैं। उनका कहना है कि वो जमाना गया जब बातों को बरसों तक दबाया जा सकता था। आज तो आपका सपना भी आपके कहने से पहले लोगों को मालूम हो जाता है। पार्टी को अपना स्टैण्ड साफ करना चाहिए। दिनोंदिन बढ़ती जा रही पारदर्शिता के इस जमाने में सुविधा की राजनीति कर पाना अब सम्भव नहीं हो पाएगा। अपने एजेण्डे की जिम्मेदारी भी लेनी पड़ेगी और उसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि लोग समझते नहीं। आप कहें, न कहें ,वे सब समझते हैं। 

उनकी बातों ने मुझे ‘मिश्रित मनःस्थिति’ में ला खड़ा कर दिया। उनकी साफ-सुथरी, दो-टूक बात कहने की आदत से ही मैं उनका प्रशंसक हूँ। वैचारिक स्तर पर असहमत हम दोनों को शायद यही बात जोड़े हुए है।

मैं, उनकी कही, यही बात सामने रख रहा हूँ। अब बात संसद को ठप्प करने के औचित्य को लेकर नहीं है। बात है ‘वह कारण’ जिसे मुद्दा बनाकर संसद ठप्प करने की बात कही जा रही है। भाजपा,  निस्सन्देह ‘संघ शासित, संघ संचालित’ है। किन्तु जो ‘विचार’ उसका जीवन तत्व है, जो उसकी आत्मा है, उसी से बचने के लिए वह संसद ठप्प कर देगी? फिर, यदि ऐसा है भी तो यह बात दिल्ली के मीडिया से अब तक कैसे बच गई? दिल्ली का एक आदमी यदि रतलाम में यह बात कह सकता है तो क्यों नहीं किसी ने अब तक दिल्ली में ही यह बात नहीं कही होगी?

यही मेरी उलझन है और इसी पर मैं विमर्श चाह रहा हूँ। एक बार फिर स्पष्ट कर रहा हूँ - भाजपा द्वारा संसद ठप्प करना मुद्दा नहीं है। मुद्दा है, संसद ठप्प करने का, ऊपरोल्लेखित कारण।

मैं कह चुका हूँ, यह कारण पहली बार सुनते समय भी मुझे विश्वास नहीं हुआ था और न ही इस समय हो रहा है। किन्तु जिन्होंने कहा है, उनका व्यक्तित्व, चरित्र, विश्वसनीयता, प्रतिबद्धता मुझे अविश्वास भी नहीं करने दे रही।

आपको क्या लगता है?

9 comments:

  1. यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक साबित हो रही है और संसदीय राजनीति को खोखला कर रही है।

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  2. आप ने अपनी बात रख दी और दिमाग हलका कर लिया, बस यही काफ़ी है.

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  3. बहुत ही सार्थक लेख.

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  4. यही मेरी उलझन है और इसी पर मैं विमर्श चाह रहा हूँ। एक बार फिर स्पष्ट कर रहा हूँ - भाजपा द्वारा संसद ठप्प करना मुद्दा नहीं है। मुद्दा है, संसद ठप्प करने का, ऊपरोल्लेखित कारण।

    मैं कह चुका हूँ, यह कारण पहली बार सुनते समय भी मुझे विश्वास नहीं हुआ था और न ही इस समय हो रहा है। किन्तु जिन्होंने कहा है, उनका व्यक्तित्व, चरित्र, विश्वसनीयता, प्रतिबद्धता मुझे अविश्वास भी नहीं करने दे रही।

    आपकी बेबाकी और खरा खारापन को नमन

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  5. राजनीति की पगडंडियाँ कहाँ सीधी जाती हैं? यदि जातीं तो, न जाने कब तक जनमानस को पा गयी होतीं।

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  6. http://www.jagran.com/news/national-home-minister-apologise-over-hindi-terrorism-statement-10149792.html

    अभी आपको क्या लगता है?

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  7. मसले पर कुछ धुंध तो छाई हुई थी। ऐसा लग रहा था कि यह बयान देकर शिंदे किसी ऐसे आगत संकट के लिए समझौते की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे जिसे दिग्विजय सिंह टाइप के हल्के बयान से निबटना कठिन था। क्या यह हैलिकोप्टर डील के बारे में था, कुरियन पर लगे आरोपों के बारे में था, या कुछ और, राजनीति के जानकार लोगों को बेहतर पता होगा।

    लेकिन अब शिंदे द्वारा अपने बयान को आधारहीन बताकर माफी मांग लेने के बाद स्थिति काफी स्पष्ट हो गई है। हमारे देश मे नेताओं द्वारा पहले तो आधारहीन बयान देने और हल्ला होने पर माफी मांग लेना आजकल का फैशन है, ट्रिक चल गई तो वारे-न्यारे वरना माफी मांग लेने में क्या घिसता है, विश्वसनीयता ही तो कम होती है, नेताओं की विश्वसनीयता का पैमाना वैसे ही शून्य पर है, उससे कम क्या होगा।

    इतना ज़रूर है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को आधारहीन बयान देने में जल्दबाई नहीं करनी चाहिए।

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  8. जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को मन की बात मन मे रखने की याने हाजमा अच्छा होने की स्थिति अब लगभग समाप्त हो गई है । इसलिए दिन प्रतिदिन इस प्रकार के विवादास्पद बयान जनता के समक्ष आ रहे है । सभी पार्टी बात का बतंगड़ बनाने मे माहिर हो गई है । संसद ठप्प करना पद का दुरुपयोग ही है ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.