कवि नहीं, मेरे अग्रज : सरोज भाई


(यह आलेख, सरोज भाई के 75वें जन्म दिन, 02 जनवरी 2013 पर प्रकाशन हेतु, आग्रह पर लिखा था।)  

अब तो यह भी याद नहीं आ रहा कि सरोज भाई से पहली बार कब मिला था या कि कब उन्हें पहली बार देखा था। बस, इतना याद पड़ रहा है कि उनके ‘नवोदित काल में, उनकी कविताओें के बराबर ही होती रही उनकी सुरुचि, सुघड़ता, नजाकत की चर्चाओं ने अतिरिक्त रूप से आकृष्ट किया था, उनके प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा जगाई थी। अब अखबार या पत्रिका का नाम तो याद नहीं आ रहा किन्तु उनकी सुन्दरता और नजाकत का उल्लेख करते हुए सपरिहास कल्पना की गई थी कि उन्हें कभी ‘सरोज कुमार’ के स्थान पर ‘उरोज कुमार’ न लिख दिया जाए। अपने नाम के साथ ‘कुल नाम’ (सरनेम) न लिखना भी उन्हें सबसे अलग कर रहा था। इन्हीं सब बातों के कारण, उनसे ‘मिलने’ से अधिक उन्हें ‘देखने’ की जिज्ञासा हुई थी।

सो, उन्हें ‘देखा’, उनसे मिला और उसके बाद शुरु हुआ सिलसिला आज इस मुकाम पर है कि मैं उन पर कुछ लिखने की स्थिति में आ गया।

उनसे परिचय का कारण निस्सन्देह उनका कलमकार होना ही था किन्तु आज वे ‘मेरे प्रिय कवि’ को कोसों पीछे छोड़कर अग्रज बन गए हैं। ऐसे अग्रज जिनसे मैं खुलकर बात करता हूँ और अपनी गलती/मूर्खता के कारण उनसे डरता भी हूँ। मैं कबूल करता हूँ कि मुझे उनकी एक भी कविता कण्ठस्थ नहीं है किन्तु उनका व्यक्तित्व मुझे नींद में भी याद रहता है। मेरे तईं उनका ‘भला मानुष’ होना उनके ‘कलमकार’ को पीछे छोड़ चुका है। इतना पीछे कि मैं उनसे ‘प्रभावित’ नहीं, ‘सम्मोहित’ हूँ। मन्त्र बिद्ध की तरह।

उनका, अकारण न बोलना, कम बोलना, धीमी आवाज में बोलना मुझे, उनसे परिचय के पहले ही क्षण से आकर्षित और प्रभावित करता रहा है - इस क्षण तक भी। किन्तु इससे आगे बढ़कर उनकी जो बात मुझे आत्म-बल देती है, वह है - इसी धीमी आवाज में, शान्त और संयत रहते हुए दृढ़ता से प्रतिकार करना, असहमति जताना और ऐसा करने में निमिष मात्र का भी विलम्ब न करना। प्रतिकार और असहमति जताते हुए अच्छे-अच्छों को मैंने आवेशित होते देखा है। किन्तु सरोज भाई इस मामले में मुझे तो ‘अपवादों में अपवाद’ ही लगे। मुझे जब-जब भी ऐसे क्षणों का सामना करना पड़ा, तब-तब मैंने सरोज भाई की नकल करनी चाही किन्तु नहीं कर सका और हर बार गुस्से का गुलाम बन कर अपना नुकसान करवा बैठा। मुझे उनसे ईर्ष्या होती है, उन पर गुस्सा आता है - वे गुस्सा क्यों नहीं करते? चिल्ला कर डाँटते-डपटते क्यों नहीं?

उनके होठों पर अपना साम्राज्य बनाए बैठी उनकी ‘भुवन मोहिनी मुस्कान’ भी मुझे पेरशान करती है। मैंने जब भी अपना कोई दुखड़ा उनके सामने रोया तो उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी तो जरूर किन्तु एक बार नहीं लगा कि वे गम्भीरता से सुन रहे हैं। मैं मरा जा रहा हूँ, अपना रोना रोए जा रहा हूँ और वे हैं कि मुस्कुराए जा रहे हैं! उस पर कठिनाई यह कि लिहाज में मैं अपनी यह मनोदशा उन्हें बता भी नहीं सकता! हर बार लगा कि मैंने बेकार में ही उनके सामने अपना रोना-गाना गाया। वे कोई मदद नहीं करेंगे। हर बार नाउम्मीद ही लौटा। किन्तु उन्होंने हर बार मेरी ऐसी ‘नाउम्मीदी’ को निरस्त कर दिया। दो-चार दिनों बाद उनका फोन आता - ‘अरे! विष्णु! सुनो! तुमने वो काम बताया था ना.......।’ और वे सिलसिलेवार, पूरा ब्यौरा दे कर, काम हो जाने की सूचना दे देते हैं। नितान्त एकान्त में उनकी बात सुन रहा मैं, खुद पर शर्मिन्दा होने लगता हूँ। इतना साहस भी नहीं जुटा पाता कि कह दूँ कि इस काम को लेकर मैंने उनके बारे में क्या सोचा था। उनके प्रति ऐसी असंख्य मूक शर्मिन्दिगियों और मूक क्षमा याचनाओं का बड़ा ढेर मेरे अन्तर्मन की शोभा बढ़ा रहा है।

माँगने पर नेक सलाह तो वे देते ही हैं किन्तु कुछ अनुचित करने पर उतनी ही चिन्ता और जिम्मेदारी से टोकते भी हैं। ऐसी टोका-टाकी करते हुए उनके स्वरों की व्यथा मुझे ठेठ भीतर तक हिला देती है। निश्चय ही उन्हें मुझसे ऐसी अपेक्षा नहीं रही होगी। मेरे कारण वे आहत-व्यथित हुए किन्तु अपनी दशा अव्यक्त रखते हुए मेरे सुधार की चिन्ता की।

मैं एक स्थानीय साप्ताहिक (‘उपग्रह’) में एक स्तम्भ लिखता हूँ। ‘उपग्रह’ उन्हें भी भेजा जाता है। दो-चार महीनों में उनका फोन आ ही जाता है। खूब प्रशंसा करते हैं। सराहते हैं। कभी-कभार ऐसा हुआ कि स्तम्भ नहीं लिख पाया। ऐसे प्रत्येक मौके पर उनका फोन आया। स्तम्भ न छपने की चर्चा कभी नहीं की। हर बार घुमा-फिरा कर पूछा - ‘‘तबीयत खराब तो नहीं? ‘उपग्रह’ वालों से झगड़ा तो नहीं हो गया?’’ मैं हँस देता हूँ। कहता हूँ - ‘साफ-साफ क्यों नहीं पूछते सरोज भाई?’ वे कहते हैं - ‘वही तो पूछ रहा हूँ।’ मैं, स्तम्भ न छपने का कारण बताता हूँ। वे कहते हैं - ‘हाँ। ठीक है। झगड़ा मत करना और लिखना कभी भी बन्द मत करना। लिखते रहना।’    

उनकी एक और बात जो मुझे ‘प्रभावित’ से आगे बढ़कर ‘विस्मित’ करती है, वह है उनके ठहाके। धीमी आवाज में बोलनेवाला कोई आदमी ऐसे आकाश-भेदी ठहाके कैसे लगा लेता है भला? उनके ठहाके देर तक नहीं, दिनों तक कानों में गूँजते रहते हैं।

पता नहीं, यह कामना मैं सरोज भाई के लिए कर रहा हूँ या खुद के लिए कि ये गगन-भेदी ठहाके यूँ ही गूँजते रहें और उनके शतायु-प्रसंग पर एक बार फिर ऐसा ही कुछ करने/कहने का अवसर मिले।

5 comments:

  1. अब तक उनके लिखे शब्दों से उनका परिचय पाते थे, आज आपने साक्षात विवरण दे दिया।

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  2. मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ कि उनसे संपर्क होते रहता है ...जन्मदिन की शुभकामनाएँ...

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  3. बहुत ही सुंदर विवरण दिए,आभार आपका.

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  4. .जन्मदिन की शुभकामनाएँ परिचय करवाने के लिये बहुत बहुत आभार

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  5. परिचय करवाने के लिये बहुत बहुत आभार

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