पहली मार्च की शाम यादव साहब (माँगीलालजी यादव) की दुकान पर चला गया। बहुत दिनों से न तो उनकी शकल दिखाई दी और न ही आवाज सुनाई दी। फोन किया तो बोले - ‘अरे! वाह! आपके बारे मे ही सोच रहा था। फौरन दुकान पर आ जाइए। आज से दुकान पर कचोरी की शुरुआत हुई है। छोड़ की कचोरियाँ (मालवा में हरे चने को ‘छोड़’ कहते हैं) निकल रही हैं। झन्नाट कचौरियाँ हैं। चले आईए! एक बार खाइए और दो बार अनुभव कीजिए।’ मैंने कहा - ‘एक बार खाने पर दो बार अनुभव कैसे?’ मानो, थैली में बँधे, विक्टोरिया छाप, चाँदी के हजारों ‘कल्दार’ (पुराने जमाने के, एक रुपयेवाले सिक्के), थैली का मुँह अचानक खुलने पर फर्श पर बिखर गए हों - कुछ ऐसी ही जोरदार, टनटनाती, खनखनाती हँसी हँसते-हँसते बोले - ‘क्यों? कल सुबह भी तो मालूम पड़ेगा! झन्नाट कचौरियाँ हैं सा’ब!’
कचौरियाँ हों, न हों, मुझे तो जाना ही था। पहुँचा तो उन्हें प्रतीक्षरत पाया। गर्मजाशी से अगवानी की। मैं बैठूँ उससे पहले ही कर्मचारी को आवाज दी - ‘अरे! मुन्ना! एक कचोरी ला तो!’ मैं बैठकर साँस लूँ और कोई बात करूँ, तब तक, कचोरी लेकर मुन्ना हाजिर। उससे लेकर मुझे थमाते हुए यादवजी बोले - ‘बाकी सब बातें बाद में। पहले कचोरी खाइए।’ अखबारी रद्दी के दो कागजों पर रखी कचोरी इतनी गरम कि हाथ में थामे रखना असहनीय। जबान जल जाए, इतनी गरम कचोरी भला कोई कैसे जल्दी खा सकता है? सो, कचोरी टेबल पर रख, उनसे मुखातिब हो गया। उधर कचोरी खाने लायक ठण्डी हो रही थी, इधर हमारी बातों में गर्मजोशी आती जा रही थी। मानो, ऊष्मा का स्थानान्तरण हो रहा हो।
चलते-चलते बात, मुनाफे पर आ गई। मैं जानना चाहता था कि मुनाफे के अंश (प्राफिट मार्जीन) का निर्धारण कैसे होता है और एक ही सामान का भाव सारी दुकानों पर एक जैसा कैसे हो जाता है। क्या, कस्बे के सारे व्यापारी कोई सामूहिक निर्णय लेते हैं? यादवजी बोले - ‘कुछ बातें समझाई नहीं जा सकतीं। आप बाजार में बैठेंगे तो खुद-ब-खुद यह अकल आ जाएगी।’ मुझे अचानक ही याद आया कि एनडीटीवी इण्डिया के ‘जायका इण्डिया का’ कार्यक्रम में विनोद दुआ, लखनऊ के, दुकानदारों से बातें कर रहे थे। मुनाफे को लेकर उनके एक सवाल के जवाब में एक दुकानदार ने कहा था - ‘तिजारत में मुनाफा इतना, खाने में हो नमक जितना।’ मैंने यादवजी को यह जवाब सुनाया तो हँसकर बोले - ‘कुछ बातें कहने-सुनने के लिए होती हैं और कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं। जरूरी नहीं कि वे सब सच हों ही। अभी-अभी का, ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह दिन पहले का, किस्सा सुनिए और अपने सवाल का जवाब खुद ही तलाश कर लीजिए।
यादवजी का यह किस्सा उन्हीं की जबानी कुछ इस तरह रहा -
“एक के बाद एक, मेरे चार दाँत गिर गए। डॉक्टर को दिखाया तो उसने नकली दाँत लगाने की सलाह दी। मैंने फौरन ही हाँ भर दी। भाव-ताव किया और सौदा साढ़े तीन सौ रुपयों में तय हुआ। डॉक्टर ने सप्ताह भर बाद आने को कहा।
“सातवें दिन मैं डॉक्टर के यहाँ जा ही रहा था कि सामने से मदन आ गया। मेरा दोस्त है किन्तु उम्र में मुझसे छोटा है इसलिए मुझे ‘भैया’ कह कर सम्बोधित करता है। उसे मालूम हुआ कि मैं दाँत के डॉक्टर के यहाँ जा रहा हूँ तो उसने डॉक्टर का नाम पूछा। मैंने नाम बताया तो वो तपाक् से बोला - ‘भैया! रुको। मैं एक छोटा सा काम निपटा कर अभी पाँच मिनिट में आता हूँ। मैं आपके साथ चलूँगा। आप मेरे बिना मत जाना। मुझे थोड़ी देर हो जाए तो राह देख लेना लेकिन चलना मेरे साथ ही।’
“मदन की बात सुन कर मैं रुक गया। अपना काम निपटा कर वह जल्दी ही आ गया। हम दोनों चल दिए। मदन को देखकर डॉक्टर खड़ा हो गया। नमस्कार करते हुए बोला - ‘भैया! आप?’ मदन बोला - ‘पहले हाथ काम निपटा। फुर्सत से बात करेंगे। हम बैठते हैं।’
“मैंने देखा, डॉक्टर असहज हो गया था। उसने पहले बैठे लोगों को जल्दी-जल्दी निपटाया और मदन से बोला - ‘भैया हुकुम करो। कैसे आना हुआ?’ मदन बोला - ‘हुकुम-वुकुम कुछ नहीं। दिख नहीं रहा, भैया के साथ आया हूँ? भैया का काम कर। जल्दी। भैया को और भी काम हैं।’ ‘जी भैया’ कह डॉक्टर ने मुझे सम्हाल लिया। उसने चारों दाँत तैयार कर रखे थे। मेरे मुँह में फिट किए। मुझसे मुँह चलवाया, बातें करने को कहा। बार-बार मुँह खुलवाया। बन्द करवाया। जोर-जोर से हँसने को, ठहाका लगाने को कहा। नकली छींक छिंकवाई। वह जैसा-जैसा कहता गया, मैं वैसा-वैसा करता रहा। काम उसने अच्छा किया था। नकली दाँत पहली बार लगे थे किन्तु मुझे कोई खास अटपटा नहीं लग रहा था। मैं सन्तुष्ट था। मेरा काम हो गया था। भुगतान करने के लिए मैंने जेब में हाथ डाला तो मदन ने रोक दिया - ‘ठहरो भैया।! मैं रुक गया। मदन ने छत की ओर देख मानो, मन ही मन कुछ हिसाब लगाया और बोला -‘भैया! बीस रुपये दे दो।’ मैं चक्कर में पड़ गया। बात मेरी समझ में नहीं आई। मैंने डॉक्टर की ओर देखा तो पाया कि वह मदन की ओर देख रहा था। कुछ इस तरह मानो बौरा गया हो। मैं चक्कर में पड़ गया। मैं कुछ कहूँ उससे पहले ही मदन बोला - ‘देख क्या रहे हो भैया? बीस रुपये दे दो इसे।’ अब डॉक्टर के बोल फूटे। हिम्मत करके बोला - ‘भैया! बीस रुपये? ये क्या कर रहे हो?’ मदन ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया। हड़काते हुए बोला - ‘क्यों? इसमें गलत क्या है? तुझे घर में घाटा हो रहा हो तो बोल?’ घिघियाते हुए डॉक्टर बोला - ‘बात वो नहीं है भैया.....’ मदन ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी। बोला - ‘मैं कुछ नही कहना चाहता था। लेकिन अब तू ही जबान खुलवा रहा है। अपनी पोल खुलवा रहा है। चल! हिसाब बताता हूँ। तू दो रुपये के भाव से दाँत खरीदता है। चार दाँत के हुए आठ रुपये। इनमें मसाला-वसाला हुआ पाँच रुपयों का। हुए तेरह रुपये। दो रुपये तेरा मेहनताना। ये हुए पन्द्रह रुपये। इनमें पाँच रुपये तेरा मुनाफा मिला दिया। हो गए बीस रुपये। और क्या चाहिए तुझे?’
“डॉक्टर नीची नजर किए, गूँगे की तरह चुप और मैं सन्न। मदन बोला - ‘गलत हिसाब लगाया क्या मैंने? पन्द्रह रुपयों पर पाँच रुपयों का मुनाफा याने तैंतीस परसेण्ट से भी ज्यादा। यह भी तुझे कम पड़ रहा है? तेरा पेट है या पखाल? जान लेगा क्या लोगों की?’ डॉक्टर चुप बना हुआ था यह बात तो अपनी जगह लेकिन उसकी शकल देख कर मुझे दया आने लगी। यह तो मुझे समझ में आ गया था कि क्यों मदन मुझे अकेला नहीं आने दे रहा था। लेकिन डॉक्टर की दशा भी मुझसे देखी नहीं जा रही थी। हिम्मत करके मैंने कहा - ‘यार! मदन! बीस रुपये तो बहुत कम होते हैं।’ मदन मुझ पर चढ़ बैठा। बोला - ‘भैया! मैं तो गणित में फेल हूँ। लेकिन आप तो व्यापारी हो। तैतीस परसेण्ट मुनाफा कम होता है? बोलो?’ मदन की बात अपनी जगह सोलह आने सच थी लेकिन मैं तो बँधा हुआ था। सौदा ठहरा चुका था। मैंने अपने मन की बात मदन को कही तो वह झल्ला गया। बाहर निकलते हुए बोला - ‘आप के मारे भी दुखी हैं। डॉक्टर भी मेरा है और आप भी मेरे हो। मैं जो कर रहा हूँ उसमें किसी का नुकसान नहीं है। लेकिन आपको कौन समझाए? जो करना हो, कर लेना। मैं बाहर आपकी राह देख रहा हूँ।’ फिर, आँखें तरेर कर डॉक्टर को बोला - ‘मैं जा रहा हूँ। भैया का ध्यान रखना।’
“मदन चला गया। अब डॉक्टर और मैं - हम दोनों ही थे। मैंने डॉक्टर से पूछा - ‘कितने दूँ?’ डॉक्टर की आवाज नहीं निकल रही थी। मानो फुसफुसा रहा हो, इस तरह बोला - ‘अभी भैया आपके सामने ही तो बता गए हैं? बीस।’ मुझे डॉक्टर पर दया आ रही थी और खुद पर झुंझलाहट। हिसाब-किताब इतना साफ हो चुका था कि साढ़े तीन सौ देने की इच्छा नहीं हो रही थी और बीस रुपये देना भी बुरा लग रहा था। लेकिन मैं, साढ़े तीन सौ को कम करूँ भी तो कितना? जैसे-तैसे मैंने पचास का नोट डॉक्टर को थमाया। नकली दाँतों की डिबिया उठाई और खड़ा हो गया। डॉक्टर भी खड़ा हो गया और घुटी-घुटी आवाज में बोला - ‘भैया से कहिएगा जरूर कि मैंने बीस ही माँगे थे। पचास तो आपने अपनी मर्जी से दिए हैं।’ मुझे रोना-रोना आ गया।
“बाहर आया। मदन ने उबलते स्वरों में पूछा - ‘कितने दिए?’ मैंने आँकड़ा बताया तो आँखें चौड़ी कर, झल्लाते हुए बोला - ‘क्या? पचास? पूरे ढाई गुना? डॉक्टर की तो लॉटरी खोल दी आपने! अपने हाथों अपनी जेब कटवाना कोई आपसे सीखे। वाह! भैया! वाह! जवाब नहीं आपका। आपने तो कहीं का नहीं रखा। किसी से कह भी नहीं सकते कि आपने यह कारनामा किया है।’ मैं चुप ही रहा। कुछ भी कहना-सुनना बेकार था। कोई मतलब नहीं रह गया था। बाद में मदन ने बताया कि डॉक्टर नकली दाँतों की खरीदी इन्दौर से करता है और ऐसी खरीदी के समय दो-एक बार वह डॉक्टर के साथ इन्दौर जा चुका है।”
पूरा किस्सा सुना कर यादवजी बोले - ‘खाने में किसको कितना नमक अच्छा लगता है, यह खानेवाला ही तय करता है। अपने सवाल का जवाब आप ही तलाश कर लीजिएगा।’
मैं बौड़म की तरह यादवजी का मुँह देख रहा था। मेरी दशा देख कर यादवजी हँसकर बोले - ‘लेकिन यदि आदमी थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अपनी अकल लगा ले तो मुनाफाखोरी से बच सकता है।’ मैंने कहा - ‘कैसे?’ यादवजी बोले - ‘पहले कचोरी खतम कीजिए। पानी पीजिए। फिर, चाय पीते-पीते आपको वह भी बताता हूँ।
और, चाय पीते-पीते, यादवजी ने जो किस्सा सुनाया, वह सुनने से पहले आप भी चाय पी लीजिए। जल्दी ही बताता हूँ।
चाय तो कबकी खतम हो गई, इंतज़ार अभी भी बाकी है ...
ReplyDeleteवाह....!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...!
आपकी इस पोस्ट का लिंक आज सोमवार के चर्चा मंच पर भी है।
थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल लगाने वाले अनुभव का इंतज़ार है :)
ReplyDeleteअब डॉक्टर कोई किराने की दुकान थोड़े ही है, वह भी आज के जमाने के हिसाब से अपनी प्रोफ़ेशनल फ़ीस ले रहा है, अगर वह पहले ही २० रूपये बताता तो लगता कि पता नहीं कैसा डॉक्टर है, केवल २० रूपये लेता है और विश्वास ना होता और कोई भी इनके पास ना आता ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर किस्सा था जनाब,सादर आभार.
ReplyDeleteसुंदर किस्सा
ReplyDeleteहा हा हा -
ReplyDeleteसुबह तक स्वाद-
खाने में पानी जितना मुनाफ़ा रुचता रहा है सदियों से-
Deleteउफ़-- मदन
Deleteमजेदार-
Deleteइन्तजार है आगे-
किस्से का क्या हुआ !!
ReplyDelete>>>खाने में किसको कितना नमक अच्छा लगता है, यह खानेवाला ही तय करता है
ReplyDeleteयह बात उन्होंने खूब कही. पिछले महीने एक होटल में एक पार्टी में (जबरन बुलाया) गया था. वहाँ मेनू में एक तंदूरी रोटी की (जी हाँ!, एक,) कीमत थी पच्चीस रूपए - जी हाँ, पूरे 25 रुपए. और, वो कोई फ़ाइव स्टार होटल नहीं था!!!
रोचक अध्याय..मेहनताना इतना अधिक, विशेषज्ञ होने का लाभ यही है।
ReplyDeleteहा हा हा , मजेदार किस्सा था और जानकारी भी बढा गया
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 5/3/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है|
ReplyDeleteक्षमा करें, मैंने यादव जी की जगह पर आपको रख दिया.
ReplyDeleteकोई बात नहीं। चलेगा।
Deleteहो सकता है कि उसने जो दांत लगाए वे महज़ दस-बीस रुपये के थे. लेकिन, यदि वह डिग्रीधारी क्वालिफाइड डॉ. था तो आपने उसके साथ अन्याय किया है. वह सड़क पर बैठकर कान साफ़ करनेवाले आदमी की तरह नहीं है जिसे पचास रुपये में टरका दिया जाए, हांलांकि यह आपकी मंशा नहीं थी. घर में कोई बिजली मैकेनिक या प्लंबर को हम रिपेयर के लिए बुलाते हैं तो वह तक सौ-पचास रुपये लेने का हक रखता है. क्या अपने मरीजों से बीस रुपये लेकर वह महज़ रोज़ की दो-तीन सौ की कमाई में घर चला सकता है? इससे अच्छा होता कि वह न तो पढता-लिखता और न ही दूकान खोलता बल्कि मनरेगा मजदूर बन जाता.
ReplyDeleteमुझे लगता है कि आपको इस एंगल से देखना चाहिए था. डॉ. के प्रति मदन भाई का रवैया निर्मम और अन्यायपूर्ण है. इसमें मजेदार कुछ नहीं है.
दूसरा किस्सा सुनने की उत्सुकता है.
नहीं। वह क्वालिफाइड, डिग्रीधारी डॉक्टर (डेण्टल सर्जन) नहीं है। आप-हम जिसे डेण्टिस्ट कह सकते हैं, वह है।
Deleteफिर भी, मुझे इस काम का इतना कम मेहनताना जायज़ नहीं लगता. कई बार डेंटल टेक्नीशियन ही डॉ. बनकर इलाज़ करने लगते हैं जो कि गलत है, फिर भी वे उनके लिए ज़रूरी होते हैं जो महंगा डॉ. अफोर्ड नहीं कर सकते.
Deleteइंदौर मे तो बड़े-बड़े लुटेरे डॉक्टर/व्यवसाई बैठे है, यहा इकाई का काम सेकड़ों और हजारो मे होता है,मुनाफा 500 से 5000 परसेंट मामूली बात है ।
ReplyDeleteIndore ke maamale me Ravi Sharmaji se sahmat.
ReplyDeleteमेह्नताना कं ही लग रहा है भले नकली दाँत मुफ्त में भी मिलते हों.
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