देख लेना अदृष्यप्रायः रेखा को


यह मेरे लिए अनायास, अनपेक्षित, अतिरिक्त प्राप्ति थी। बिलकुल किसी ‘विस्मय उपहार’ (सरप्राइज गिफ्ट) की तरह। इसका माध्यम बने श्री मनोज फड़नीस। यह अलग बात है कि वे खुद नहीं जानते होंगे कि उनके माध्यम से मुझे यह उपहार मिला।


रतलाम के चार्टर्ड अकाउण्टेण्टों और कर सलाहकारों के दोनों संगठन प्रति वर्ष, केन्द्रीय और प्रान्तीय बजटों के विश्लेषण-व्याख्यान आयोजित करते हैं। देश-प्रदेश के ख्यात, स्थापित और विशेषज्ञ चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट तथा कर सलाहकार यह विश्लेषण करते हैं। ऐसे व्याख्यान मेरे बीमा व्यवसाय में सहायक होते हैं। इन संगठनों के अज्ञात कृपालुओं का यह अनुग्रह ही है कि मुझे प्रति वर्ष इस आयोजन का निमन्त्रण मिलता है। यह निमन्त्रण न मिलता तो भी मैं जाता ही जाता - सचमुच में ‘अनामन्त्रित-अतिथि’ बन कर। इस बार यह आयोजन इसी 03 मार्च, रविवार को आयोजित था। मुम्बई से श्री अतुल भेड़ा तथा इन्दौर से श्री मनोज फड़नीस और श्री शैलेन्द्र पोरवाल विषय-विशेषज्ञ-वक्ता थे। अतुलजी और मनोजजी केन्द्रीय बजट पर बोले और शैलेन्द्रजी प्रान्तीय बजट पर। शैलेन्द्रजी का, ‘वेट’ में यथेष्ठ हस्तक्षेप और अधिकार है।

मनोजजी के उद्बोधन ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। सधे हुए, गम्भीर स्वर में उनका उद्बोधन, ‘धारा के प्रतिकूल’ था। अखबार हों या समाचार चैनल, चारों ओर केन्द्रीय बजट की आलोचना तथा वित्त मन्त्री चिदम्बरम और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह की खिंचाई जमकर हो रही है। चिदम्बरम और मनमोहन सिंह की तो खिल्ली भी उड़ाई जा रही है। अतुलजी ने भी जब-जब मौका मिला, दोनों को बारीक चिकोटियाँ काटीं और तीखी व्यंग्योक्तियाँ कीं। श्रोताओं को खूब आनन्द आया। किन्तु मनोजजी का व्याख्यान एकदम दूसरे छोर पर था। उन्होंने कहा कि चिदम्बरम के इस बजट में न तो राजनीतिक चिन्ता की गई, न चुनाव को ध्यान में रखा गया। इससे परे हटकर यह बजट देश की मौजूदा आर्थिक दशा और राजकोषीय घाटे की चिन्ता पर केन्द्रित है। उन्होंने कम से कम तीन बार कहा कि यह बजट बहुत अच्छा है, इसके अनुकूल प्रभाव धीरे-धीरे अनुभव होने लगेंगे और हम सबने इसका स्वागत करना चाहिए।

केन्द्रीय बजट को लेकर ऐसी प्रतिक्रिया मैंने पहली बार सुनी थी। मेरे लिए यह प्रतिक्रिया ‘धारा के प्रतिकूल’ थी, जैसा कि मैंने पहले कहा है।

किन्तु मनोजजी ने केवल प्रशंसा नहीं की। उन्होंने बजट के कुछ प्रावधानों को अपर्याप्त और अधूरा भी बताया। मनोजजी की जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा वह थी - उन्होंने ने तो प्रशंसा में अतिरेक बरता और न ही उसकी अपर्याप्तता, अधूरापन बताने में। एकदम सन्तुलित। इतना कि उनके उद्बोधन के बीच एक बार भी तालियाँ नहीं बजीं।

मैं खुद को रोक नहीं पाया। कार्यक्रम के बाद, भोजन से पहले उनसे ‘सोद्देश्य’ मिला और दो बातें पूछीं। पहली तो यह कि बजट को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा है, उससे वे खुद से भी सहमत हैं? अकेले में भी उस सब पर कायम हैं? और दूसरी यह कि उन्होंने चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर छींटाकशी क्यों नहीं की?

उन्होंने दोनों ही बातों का जवाब ‘तत्क्षण’ दिया। बिना सोचे। अंग्रेजी में जिसे ‘विदाउट थॉट’ कहते हैं, उसी तरह। उन्होंने कहा कि बजट को लेकर कही अपनी प्रत्येक बात पर वे, खुद के सामने अपनी व्यावसायिक निष्ठा सहित कायम हैं। उन्होंने परिहास किया - ‘लोग तो अकेले में कही बात पर दृढ़ता दिखाने के लिए, उस बात को सार्वजनिक रूप से कहने का आग्रह करते हैं और आप हैं कि सार्वजनिक रूप से कही बात के प्रति, एकान्तिक निष्ठा की पुष्टि चाह रहे हैं?’

मेरी दूसरी बात के जवाब में मनोजजी ने जो कहा, वही मेरे लिए ‘अनायास, अनपेक्षित, अतिरिक्त प्राप्ति’ और ‘विस्मय उपहार’ (सरप्राइज गिफ्ट) थी। उन्होंने कहा कि वे समीक्षक हैं, टिप्पणीकार नहीं। समीक्षक सदैव ‘वस्तुपरक भाव’ से बात करता है। जो अच्छा है, उसे अच्छा बताता है। जो अच्छा नहीं है, उसे अच्छा नहीं बताता है। जो अपर्याप्त, अधूरा है उसे अपर्याप्त, अधूरा बताता है। वह यह नहीं कहता कि यह ‘अच्छा’, ‘अच्छे’ के रूप में और ‘अपर्याप्तता तथा अधूरापन’ इनके इस स्वरूप में ‘क्यों’ रखे गए। समीक्षक का काम केवल यह सब बताने भर का है, इन सबके होने के पीछे कारण जानने और बताने का नहीं। 

मनोजजी की इस बात ने मुझे विचार में डाल दिया। तनिक सोचा तो अनुभव हुआ कि टिप्पणीकार और समीक्षक में यही अन्तर होता है - समीक्षक वस्तुपरक भाव से बात करता है और टिप्पणीकार, आत्मपरक भाव से। इसीलिए टिप्पणियों में प्रशंसा और/या आलोचना, अतिरेक की सीमा स्पर्श कर जाती है और व्यक्तिगतता में अनायास ही प्रवेश कर लिया जाता है।

चीजों को देखने और उन पर अपनी बात कहने को लेकर मुझे मनोजजी ने सर्वथा नई दृष्टि दी। मुमकिन है, अधिकांश लोगों को यह फर्क पता हो किन्तु इस ‘अदृष्यप्रायः’ विभाजन रेखा को मैंने तो पहली ही बार देखा। यह सूत्र मेरे बड़े काम आएगा और मुझे अकारण विवाद स तोे बचाएगा ही, लोगों के बीच मुझे अतिरिक्त रूप से समझदार भी कहलवाएगा। यह सूत्र व्यक्ति के आयतन में भले ही बढ़ोतरी नहीं करे, व्यक्ति के घनत्व में अवश्य बढ़ोतरी करेगा। मैं मनोजजी के प्रति हार्दिक आभार, विनम्र कृतज्ञता प्रकट करता हूँ और उन्हें धन्यवाद देता हूँ।

लगे हाथ, मनोजजी के बारे में दो-एक जरूरी बातें। वे इन्दौरी हैं। बी. कॉम. इन्दौर से ही किया और जनवरी 1987 में चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बने। उनके परिचय में कम से कम दो पन्ने आसानी से भरे जा सकते हैं। मुझे जो दो-तीन बातें उल्लेखनीय लग रहीं वे हैं - वे पाँचवीं बार भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य के रूप में चयनित किए गए हैं। वे, एसोचेम (एसोसिएटेड चेम्बर्स ऑफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री इन इण्डिया) की, वित्त एवम् बैंकिंग सेवाओं की विशेषज्ञ समिति में नामित किए जा चुके हैं और वर्तमान में, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टेक्सेस) को सुझाव देने के लिए गठित, भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान् की प्रत्यक्ष कर समिति के चेयरमेन हैं।

5 comments:

  1. बहुधा हम प्रवृत्ति या निवृत्ति में न केवल मन बना लेते हैं वरन उद्धत भी हो जाते हैं। संतुलन ही श्रेष्ठ है।

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  2. गूगल पर श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    श्री चिदम्‍बरम और श्री मनमोहन सिंह का आकलन कर पाना तनिक कठिन ही है। अन्‍तरराष्‍ट्रीय एजेन्सियों के मूल्‍यांकन के अनुसार भारत, विश्‍व का दूसरा सर्वाधिक आत्‍मविश्‍वासवाला आर्थिक देश है। यहश्रेय चिदम्‍बरम और मनमोहन सिंह को ही जाता है।

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  3. खुबसूरत ही नहीं बहुत बेहतरीन संस्मरण संग लाजवाब टिपण्णी और समीक्षा की समीक्षा ।

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  4. यह भी एक समीक्षा ही रही. सुंदर.

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