मनुष्य क्या खोजता/चाहता है? शायद वही, जो उसके पास नहीं होता। मनुष्य की सारी चेष्टाओं और मानव मनोविज्ञान के मूल में यही अवधारणा होगी सम्भवतः। शायद इसी कारण लोग, कोई चालीस बरस पहले जिस बात की माँग किया करते थे, आज उसी से चिढ़ रहे हैं।
वीआईपी सुरक्षा को लेकर चारों ओर मचे हल्ले पर ध्यान गया तो यही बात मन में आई और उसके साथ ही साथ आ गई, कोई चालीस बरस पहले हुई घटना।
बात 1969 से 1972 के बीच की है। तब दादा, मध्य प्रदेश सरकार में राज्य मन्त्री थे। 1968 में मैंने बी.ए. कर लिया था। मैदानी पत्रकारिता कर रहा था। लेकिन पत्रकारिता से पेट भर पाना मुमकिन नहीं था। सो, काम-काज भी तलाश रहा था। इसी दौरान बस कण्डक्टरी का अस्थायी काम मिल गया था। चूँकि पत्रकारिता, नौकरी नहीं थी सो बड़े मजे से दोनों काम कर पा रहा था। लेकिन दादा जब भी मन्दसौर जिले के दौरे पर आते, मैं उनके साथ हो लेता। यह संस्मरण, दादा के राज्य मन्त्री बनने के शुरुआती समय का है।
दादा, मनासा विधान सभा क्षेत्र से चुन कर आए थे। सो, उनके दौरे, मनासा विधान सभा क्षेत्र में ही अधिक होते थे। वे जब भी दौरे पर आते, तब पुलिस और सरकारी अधिकारियों का अच्छा-खासा लवाजमा, पाँच-सात गाड़ियों में उनके साथ चलता था। गृह नगर में आते ही उन्हें डाक बंगले पर ले जाया जाता जहाँ उन्हें ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जाता। ये दोनों ही बातें मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं। आज भी नहीं लगतीं। सुरक्षा तथा प्रशासकीय सहायता के नाम पर साथ में बना हुआ पुलिस और प्रशासकीय अधिकारियों का अमला मुझे, जन-प्रतिनिधि और उसके मतदाताओं के बीच ऐसा अप्रिय व्यवधान लगता है जो कहीं न कहीं मतदाता और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी बढ़ाता है और अन्ततः सम्वादहीनता की स्थिति बना देता है। कल तक जो जन-प्रतिनिधि, ‘अपने लोगों’ से घिरा रहकर, उनके दुःख-सुख की बातें सुनता/करता था, पता ही नहीं चलता कि कब वह उन सबसे दूर हो कर सरकारी अमले का कैदी बन गया है और उस तक वे ही बातें पहुँच रही हैं जो सरकारी अमला पहुँचा रहा है। मेरा मानना रहा है कि अपने ही मतदाताओं के बीच किसी जन-प्रतिनिधि को भला सुरक्षा की आवश्यकता क्यों कर होनी चाहिए? इसी तरह, ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ को मैं अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की घिनौनी, परम्परा मानता हूँ। दरिद्रता और विपन्नता की हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि में तो ये दोनों बातें मुझे कभी भी हजम नहीं हुईं।
मुझे जब-जब भी मौका मिलता, अपनी ये दोनों बातें दादा के सामने रखता और आग्रह करता कि वे इन दोनों बातों से बचें। दादा हर बार मुझसे सहमत हुए लेकिन हर बार सूचित करते कि इस लवाजमे की माँग उन्होंने कभी नहीं की। ऐसे ही एक दौरे के समय मैं कुछ अधिक ही अड़ गया। मेरी बात का ‘मान’ रखते हुए उन्होंने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को बुलाया और कहा कि अब से वे न तो कहीं ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ लेंगे और न ही उनके साथ सरकारी लवाजमा जाएगा। दोनों अधिकारियों ने विनम्रतापूर्वक कहा कि ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ वाली बात तो ‘मन्त्रीजी की व्यक्तिगत इच्छा’ पर निर्भर रहती है इसलिए इस दादा की इस इच्छा का पालन तो तत्काल प्रभाव से किया जा रहा है किन्तु सरकारी अमले के मामले में उन्होंने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक यह कह कर क्षमा माँग ली कि इस मामले में वे ‘शासनादेश’ से बँधे हुए हैं। थोड़ी-बहुत खींचतान के बात तय हुआ कि, कुछ अधिकारी तो दादा के साथ रहेंगे ही रहेंगे किन्तु संख्या में इतने ही होंगे कि एक सरकारी गाड़ी में समा जाएँ। याने, दादा के दौरे में, सरकारी अमले के नाम पर अब कुल-जमा एक गाड़ी रहेगी। दादा ने मेरी ओर कुछ इस तरह से देखा मानो, मचले हुए किसी बच्चे को उसका मनचाहा खिलौना थमा कर पूछ रहे हों - ‘बस! अब तो खुश?’ मैंने विजयी भाव और मुख-मुद्रा में, इतरा कर सहमति में इस तरह मुण्डी हिलाई मानो उनसे सहमत होकर मैं उन्हें उपकृत कर रहा होऊँ।
लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसने मुझे मानो औंधे मुँह धरती पर पटक दिया।
नई व्यवस्था के ठीक बाद वाले पहले दिन दादा जिस-जिस भी गाँव में गए, प्रत्येक गाँव में उन्हें उलाहने सुनने पड़े। बुजुर्गों ने अधिकारपूर्वक उन्हें डाँटा-डपटा, नसीहत दी तो हमउम्र और नौजवान कार्यकर्ताओं ने नाराजी तथा असन्तोष जताया। शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु मन्तव्य एक ही था - ‘यह आना भी कोई आना हुआ? कोई मन्त्री ऐसे आता है भला? आप तो वैसे ही आ गए जैसे कि चुनावों के दिनों में, वोट माँगने आते थे। अब तो आप उम्मीदवार नहीं हो। अब तो हमने आपको मन्त्री बनवा दिया है। आपको मन्त्री की तरह आना चाहिए। लोगों को लगना चाहिए कि उनके गाँव में मन्त्री आया है। मन्त्री के साथ दस-बीस अफसर, पुलिस के जवान और सरकारी जीपों का लाव-लश्कर हो, तभी लगता है कि गाँव में कोई मन्त्री आया है।’ अपने-अपने गाँव से ‘मन्त्रीजी’ को विदा करते हुए सबने मानो हिदायत दी - “आज आ गए सो आ गए। लेकिन आगे से, ऐसे ‘सूखे-सूखे’ मत आना। बाकी गाँवों की बात नहीं करते, बस! हमारे गाँव में ऐसे मत आना। आपको भले ही अपनी इज्जत की फिकर नहीं हो किन्तु ‘हमारा आदमी’ मन्त्री बना है। इसलिए ‘हमारी इज्जत की फिकर’ आपको करनी चाहिए।”
ऐसे प्रत्येक उलाहने, प्रत्येक नसीहत के समय दादा ने मेरी ओर देखा। उनकी नजरों में सवाल और उपहास नहीं, मेरे प्रति दया-ममता और ‘अपने लोगों’ के प्रति करुणा थी। लोगों का यह आग्रह उन्हें भावाकुल भी करता रहा। वे सब, उन्हें मन्त्री बनवानेवाले उनके तमाम मतदाता, दादा के सम्मान में अपना सम्मान देखना चाह रहे थे।
आज जब वीआईपी सुरक्षा को लेकर मचे बवाल को देखता/पढ़ता/सुनता हूँ तो मन अकुलाहट और व्याकुलता से भर आता है। हम कहाँ से चले थे और कहाँ आ गए हैं? जो लोग ‘अपने आदमी’ के आसपास के सरकारी लवाजमे और लाव-लश्कर में अपना महत्व अनुभव करते थे, वे ही लोग आज उसी ‘अपने आदमी’ को, ‘अपने जैसा’ देखना चाह रहे हैं।
लोगों की चाहत में इस बदलाव के कारण कहाँ हैं - लोगों में ही या लोगों के ‘अपने आदमी’ में आ गई मगरूरी में?
सोच को बदल पाना मुश्किल . और पर उपदेश कुशल बहुतेरे ...
ReplyDeleteआज के नेताओं के गिर्द दीवारें नहीं किले बने हुए हैं। जिन्हें दो वक्त की रोटी मुहाल है उनके प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले करोड़पति से खरबोंपति तक हैं - और हैं सत्ता के एकाधिकार के मद में मत्त। अति तो किसी भी चीज़ की बुरी होती है, जनता क्यों न बिगड़े भला?
ReplyDeleteस्मार्ट इंडियन से सहमत.
ReplyDeleteलोग गीला होने के लिये चुनते हैं तो सूखे रहने का क्या लाभ? मानसिकता गहरे डुबोयेगी।
ReplyDeleteAchchha rahaa ki aap Travels-line se baahar ho gaye varna itne achchhe aur santulit vicharon wale Blog se hum vanchit rahte,bhale hi tab Malwa ko ek Banshilal mil gaya hota.
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