राज करिए दीप को




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की पचीसवीं कविता 




राज करिए दीप को

फूँक देकर मत बुझाओ
उस दीये को
जो लड़ा हो रात भर अँधियार से
आ गई हो यदि
दिवाकर की कनक किरणें
तुम्हारे द्वार पर।
तो 
दीये को दो विदा सादर
मानकर आभार उसका
वन्दना उसकी करो
प्रार्थना में सिर झुकाओ
फूँक देकर मत बुझाओ
‘राज’ कर, दो विदा।
माँ मुझे अकसर यही कहकर
दीये के सामने करती खड़ा
और करती प्रार्थना
‘ज्योतिधर! हे ज्योति के वंशज!!
यह कृपा कुछ कम नहीं
हम पर तुम्हारी
जबकि कोई भी नहीं तैयार था
इस युद्ध को तुमने लड़ा
तम-तोमवाली कज्जली काली अमावस
रात से निष्कम्प जूझे
हारकर हम सो गए
किन्तु तुम हारे नहीं
रात भर देकर उजाला
दी हमें आश्वस्तियाँ
हो गई उजली हमारी बस्तियाँ
हे ज्योतिधर! अब तुम करो विश्राम!
और फिर करती ‘पवन’
आँचल उढ़ाकर
दीप की उजली किरण को
एक पल भर ढाँकती
आह्वान करके
‘राज’ करती।
फिर वही आँचल उढ़ाती थी मुझे
शीश मेरा ढाँकती
और कहती,
‘दीप है तू ही मेरे वंश का
जिन्दगी में हो अँधेरा
तो कभी विचलित न होना
जूझना-लड़ना मगर
बुझना नहीं, हारना मत
साथ दे संघर्ष में
आभार उसका मानना
जो अँधेरे से लड़े उस
बन्धु को फूँक देकर
मत मारना।
‘राज’ का मतलब नहीं है
राज्यसत्ता
राज का मतलब
उसे राजी रखो
नाराज उसको मत करो
फूँक देना थूक देना है
तपस्या पर किसी की
दीप का अपमान है
यह।
राज करके यदि विदा दोगे
उसे तो
हौसला उसका सदा जीवित रहेगा
कल तुम्हारे युद्ध में
इस हौसले के साथ वह
फिर से जलेगा
भावना मन से
निरादर की निकालो
ज्योति का व्यवहार
यह संसार
सादर ही चलेगा।’
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















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