मैं जानता हूँ वसन्त




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की सातवीं कविता 







मैं जानता हूँ वसन्त

मैं जानता हूँ वसन्त
तुम आओगे
और जरूर आओगे
मैं यह भी जानता हूँ कि
अपने साथ
क्या-क्या लाओगे।

दर्जन भर मोर
एक-दो पपीहे
दस-पाँच कोयलें
सौ पचास भँवरे
हजार-दो हजार तितलियाँ
मुट्ठी भर कलियाँ
अँजुरी भर फूल
आकाश भर खुशबू
और पलाश का
कलेजा चीरने को
अनंग के पाँच बाण।

अलसाई अलसी
पियराई सरसों
अमराई के बौर
और.....और.....और.....
वासन्ती हवा की
मेंड़ों से मस्ती
गेहूँ की बालों पर
माँदल की सरपरस्ती
याने कि, रस ही रस
और इस रस में
सारा आलम परबस।

अटाटूट है तुम्हारी
अकूत सम्पदा
आखिर ‘ऋतुराजा’
जो ठहरे!
और राजा के मतलब
हमारे यहाँ
होते हैं बहुत गहरे।

मैं जानता हूँ
तुम आने से पहले
पेड़-पेड़ की नोच लोगे हरियाली
टहनी-टहनी को
कर दोगे नंगा
करोड़ों पत्तों को
मिला दोगे धूल में
उनकी छाती पर
दौड़ाओगे अपना रथ
इस सत्य से
तुम भी अवगत
मैं भी अवगत।
आखिर वसन्त जो हो!
समय के सामन्त जो हो!

तब भी,
मैं करूँगा तुम्हारा स्वागत
क्योंकि
लाख राजा बनो तुम अपने घर के
पर तुमसे डर के
फूटना बन्द नहीं करतीं
कोमल कमसिन कोंपलें।
ललाट की लालिमा
और भविष्य की हरीतिमा लेकर
फूट ही पड़ती हैं।

ठेठ ऊपर की अटारी पर
वो ध्यान ही नहीं देती
किसी राजा या महाराजा
की सवारी पर।

होगे तुम राजे महाराजे
लाट या सम्राट
तुम्हारे रथ को
फुनगियों में ठेंगा दिखाती
कोंपल के नीचे से
गुजरना होगा।

राजमुकुटों के ऊपर भी
होता है एक आकाश
उसके सम्मान में 
तुम्हें
धरती पर उतरना होगा।
मैं जानता हूँ वसन्त।
तुम आओगे
और जरूर आओगे
मैं यह भी जानता हूँ कि
अपने साथ
क्या-क्या लाओगे।

तुमसे पहले आई
और चली गई
एक नहीं, दो नहीं
पूरी पाँच-पाँच ऋतुएँ
पर मेरी धरती पर
एहसान उनका या
तुम्हारा नहीं है।

तुम दबे-छिपे आओ
या आओ चौडे़-धाले
धरती पर आए बिना तुम्हारा भी
गुजारा नहीं है।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















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