व्रत गीत




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की पहली कविता

भूमिका, समर्पण, संग्रह के ब्यौरे और अनुक्रमणिका भी 






समर्पण

स्वर्गीय दुष्यन्त भाई को,
जो यदि जीवित होते तो
इन कविताओं को फेंक देते।
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भूमिका

कवि बैरागी तो परम वैष्णव हैं श्रौर काव्य-साधना तथा जीवन के शृंगार की कला वैष्णव ही जानता है। भावलोक का मोहक रूप राधा-मोहन की सत्ता से अभिभूत होकर ही तो कवित्व की साधना की जाती है। यह साधना आदमी को बूढ़ा नहीं होने देती। सत्रसत्ता की रूपसी जब सौन्दर्य-लिप्सु कवि को, मेरा संकेत भावना सौन्दर्य से है, जब अपने आलिंगन पाश में कसने को तैयार हो जाय तब कवि हो या मनीषी, तपस्वी हो या साधक विश्वामित्र जैसी दुविधाजनक स्थिति अवश्य हो जाती होगी।

किन्तु लगता है बालकवि इस मामले में अधिक सजग हैं। साहित्य या राजनीति के उथलेपन को वह समझता है। साहित्यकार की नैतिकता, मौलिकता उसने अभी खोई नहीं है। सुविधाभोगी दरबारी चिन्तन को ललकारने की उसमें क्षमता है।

‘ओ अमलतास!’ काव्य-पुतिका में 23 छोटी-छोटी कविताएँ या लघु गीत हैं जिनमें लगभग 10 रचनाएँ उर्दू शैली की गजलें हैं। स्वर्गीय दुष्यन्त को यह पुस्तिका समर्पित की गई है, झिझक के साथ यह ईमानदारी उल्लेखनीय है।

चिन्तामणी उपाध्याय
उज्जैन
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‘ओ अमलतास’ की पहली कविता 
व्रत गीत

कौन यहाँ गाता है मन से
कौन यहाँ जुड़ता जीवन से
तुमने कहा शुरु हो जाओ
अवसर को अब भुनवाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

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रोज रात को धोखा देता, रोज सुबह धोखा खाता हूँ
इसलिए कुछ लिखे बिना ही, हिन्दी का कवि कहलाता हूँ
आखिर मेरा क्या कर लेंगे, तुलसी, सूर, कबीरा, मीरा
रहकर तो देखें मेरे संग, पल भर में खा लेंगे हीरा
क्या होती है यह मौलिकता?
शाश्वत मूल्यों की नैतिकता?
आत्महनन ही श्रेष्ठ काव्य है, स्वयं सिद्ध कर दिखलाऊँगा
गाता है कुछ भी गाऊँगा

000

सुविधाभोगी नट-मर्कट को, जब से तुमने कवि माना है
मैंने तब ही सोच लिया था, मुझको जीवन भर गाना है
गाँव-गाँव गाता फिरता हूँ, सिर पर शिला उठाये भारी
पापी पेट! तुम्हारी जय हो, जठरानल! तेरी बलिहारी
तुमको मनोरंजन करना है.
मुझको एक गढ़ा भरना है
जब-जब मुझे महान् कहागे, तब-तब करतब दिखलाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000


अभिनव को अभिनय में बदला, पीड़ा को वेश्या कर डाला
आँसू को आवारा करके, कविता को पेशा कर डाला
शब्द-ब्रह्म का शव बेचूँगा, प्रतिदिन अर्थवती मण्डी में
तिल फर्क नहीं पाओगे, रण्डी और इस पाखण्डी में
कंचन वाला कोढ़ी लाओ
मुझको बस कंचन दिखलाओ हो
जिसके संग न कीड़े सोयें, उसके संग भी सो जाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000

चिन्तन सारा दरबारी है, लेखन सारा अखबारी है
कुम्भीपाक नरक में जी लूँ, इतनी मेरी तैयारी है
लाख लानतें मारे दर्पण, बड़ा सख्त है मेरा पानी
मैंने सुख को साध लिया है, किसकी परवा, क्या हैरानी?
दोनों ही तट खुद तोडूँगा
सारे अमृत घट फोडूँगा
विष वैतरणी का विषधर हूँ, विष से बाहर मर जाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000

लेखन की रेखा से रीती, बेशक मुझको मिली हथेली
किन्तु कलम के पाँवों बँध गई, वजनी एक रेशमी थैली
इतना वजन पाँव में बाँधे, कोई कैसे चल पायेगा?
तिल भर कलम नहीं चल पाई, बन्दा तो कवि कहलायेगा
न्यौता दो मुझको बुलवाओ
कवि कहकर माला पहिनाओ
अगर तमाशा है ताली का खूब, तालियाँ पिटवाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

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अनुक्रम

01 व्रत गीत
02 अँधियारे से क्या डरते हो
03 एक गीत गाकर तो देखो
04 मेरे नगर क्षमा कर देना
05 आज तो करुणा करो
06 क्यों तुमने यह बिरवा सींचा
07 फूल तुम्हारे, पात तुम्हारे
08 सेनापति के नाम
09 यौवन के उत्पात बसन्ती
10 आलिंगन के बाहर भी प्रिय!
11 ओ अमलतास!
12 ओ किरनों कंचन बरसाओ
13 लहद से मैयत मेरी
14 मुरझा गये कमल
15 बड़ा मजा है
16 इन्कलाब है
17 चुप रहो
18 पूछिये मत
19 त्यौहार की सुबह
20 मन्दिर जिसे समझ रहे हैं
21 आप बस गुमनाम
22 फिर भी गा रहा हूँ
23 चाँद से
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संग्रह के ब्यौरे

ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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