‘नईदुनिया’ ने मेरे कस्बे के उन लोगों में मुझे भी सम्मिलित किया जिनसे, वर्ष 2012 के लिए उनकी ‘शुभेच्छा’ पूछी गई थी। (इसकी चर्चा मैंने, पहली जनवरी को प्रकाशित अपनी पोस्ट यदि यह नया साल है तो........ में की थी।) मैंने कहा कि मेरी नीयत भली और नेक होने के बावजूद अपनी साफगोई के कारण मैं अनेक लोगों का दिल दुखाने का अपराध करता रहा हूँ। इस बात की पीड़ा मुझे गत वर्ष से ही नहीं, कई बरसों से बनी हुई है। इस वर्ष मैं कोशिश करूँगा कि लोगों का दिल दुखाए बिना अपनी स्पष्टवादिता बनाए रख सकूँ।
पोस्ट पर आई, श्रीयुत करमरकरजी और कविताजी रावत की टिप्पणियों ने तो चकित किया ही था किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि लोगों ने मेरी इस ‘शुभेच्छा’ से असहमति जताई। शब्दावली सबकी अलग-अलग थी किन्तु अन्तिम परामर्श एक ही था - ‘जैसे हो, वैसे ही बने रहो।’
सबसे पहला फोन आया पड़ौस से, भैया साहब, सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ का। बोले - ‘हमें आप पर और आपकी स्पष्टवादिता पर गर्व है। परेशान मत होइए। कोई आपको गलत नहीं समझता और दुःखी नहीं होता। सब आपको जानते भी हैं और समझते भी हैं। आप तो अपने हिसाब से बिन्दास चलते रहें।’ चूँकि भैया साहब मेरे प्रति ‘मुग्ध-भाव’ रखते हैं, इसलिए मैंने उनकी बरत अनसुनी कर दी।
फोन बन्द किया ही था कि मेरे साथी अभिकर्ता प्रदीप का फोन आया - ‘ये क्या पढ़ रहा हूँ दादा? आप अपने आप को बदल रहे हो! क्या कर रहे हो। हें! आप, आप नहीं रहोगे और हम जैसे बन जाओगे? ऐसा गजब मत करो दादा! आपसे तो हमें ताकत मिलती है और आप ही बदल जाओगे?’
अभिकर्ता कैलाश तो एक कदम आगे निकला। फोन पर कहा - ‘दादा! कहीं जाना मत। मैं आ रहा हूँ।’ दस मिनिट की दूरी सात मिनिट में पूरी कर, आते ही बोला - ‘क्या हो गया सरजी? हममें से किसी ने कुछ कह दिया? कुछ कहा-सुना हो तो आज नये साल के पहले दिन माफ कर दो सरजी और वादा करो कि जैसा छपा है वैसा कुछ भी नहीं करोगे। ये भी कोई बात हुई?’
एक उठावने (तीसरे) में गया तो लगा कि मेरा ही उठावना हो जाएगा। एक से एक नेक परामर्श, भरपूर आश्वासन, तसल्लियाँ और दिलासे मिले मुझे। विश्वास दिलाया कि वैसा कुछ भी नहीं है जैसा मैं लोगों के बारे में सोच कर बैठा हूँ। मुझे अपना छोटा भाई जैसा स्नेह देनेवाले, ब्याज का धन्धा करनेवाले वयोवृद्ध सज्जन (जिन्हें मैं ‘दाऊजी’ सम्बोधित करता हूँ) ने (मानो, मेरी वास्तविकता उजागर कर रहे हों, कुछ इस तरह) कहा - ‘क्यों लोगों को बेवकूफ बना रहा है? क्यों बदमाशी कर रहा है, पोलिटिक्स खेल रहा है लोगों के साथ? तू खुद जानता है कि तू तो क्या तेरे फरिश्ते भी तुझे अब नहीं बदल सकते। जो कोई नहीं कर सका वह तू करेगा? पके हाँडे में मिट्टी लगाएगा? बदमाश कहीं का।’ वे चुप हुए ही थे कि सवाल आया - ‘अच्छा! उन लोगों के नाम बताएँ जो आपकी बातों की वजह से आपसे नाराज हुए?’ ऐसे सवाल के लिए मैं कतई तैयार नहीं था। मेरे बोल नहीं फूटे। मेरी यह दशा देख कर, मुझ पर पोलिटिक्स करने का आरोप लगानेवाले ‘दाऊजी’, निःशब्द हँसी हँसते हुए (मामला ‘उठावने’ का जो था) अपनी मूँछों पर हाथ फेरने लगे।
मुझे हैरत हुई। मेरा आकलन इस सीमा तक गलत हो सकता है? ऐसा तो हो नहीं सकता। निश्चय ही सारे लोग शालीनता, संस्कारशीलता और शिष्टाचार के अधीन ही ऐसी बातें कर रहे होंगे। मुझे अपराध-बोध से मुक्ति दिलाने के लिए, मुझे आत्म ग्लानि से छुटकारा दिलाने के लिए, मेरा हौसला बढ़ा रहे होंगे।
घर पहुँच कर अधलेटा हुआ ही था कि झालानी यातायात वाले भाई विनोद झालानी का फोन आया। वे मेरे प्रति अतिशय प्रेमादर भाव रखते हैं। गजलों के शौकीन हैं। बात कम करते हैं, शेर अधिक उद्धृत करते हैं। बोले - ‘आज आपका वक्तव्य पढ़कर आनन्द भी आया और हँसी भी आई। आनन्द इसलिए कि आपको अपने बोलने की हकीकत मालूम है। और हँसी इसलिए कि आप गालिब को झूठा साबित करने की हसरत पाल रहे हैं। चचा गालिब तो आखिरी उम्र तक मुसलमान नहीं हो सके। देखते हैं, आपका क्या होता है।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही बोले - ‘आपको क्या करना है और क्या नहीं, यह तो आप ही जानो पर एक शेर सुन लो। शायर का नाम मत पूछना। शेर आप पर फिट बैठता है -
सच बोलता हूँ तो घर में पत्थर आते हैं,
झूठ बोलता हूँ तो खुद पत्थर हो जाता हूँ।’
और मैं कुछ कहूँ, धन्यवाद दूँ, उससे पहले ही फोन बन्द कर दिया।
दिन भर ऐसी ही बातों में व्यतीत हुआ। एक ने भी मेरी शुभेच्छा पूरी होने की कामना नहीं जताई। या तो मना किया या अविश्वस किया या फिर उपहास को स्पर्श करता परिहास किया।
मुझे अचानक ही फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में पृथ्वीराज कपूर (अकबर) का वह सम्वाद याद हो आया जो उन्होंने मधुबाला (अनारकली) से कहा था - ‘अनारकली! सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम तुझे जीने नहीं देंगे।’
क्या होगा इस अनारकली का? यह अनारकली क्या करे?
क्या करे ये अनारकली,
ReplyDeleteहा हा हा हा हा हा (गब्बरसिंह का अट्टाहास इमेजिन करें)...
हा हा हा हा हा हा हा हा....
घटना के बहुत बाद जब कोई सोचता है तो स्पष्टवादिता बहुत हितकारी लगती है।
ReplyDeleteइसी द्वंद्व की संधि पर जीवन की कविता का सौंदर्य निखरता है शायद.
ReplyDeleteछवि बदलना इतना आसान नहीं ...
ReplyDeleteरोचक !
ई-मेल से प्राप्त, श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर की टिप्पणी -
ReplyDeleteअनारकली ,सलीम की याद मैं फना हो जायेगी।
अनारकली को गाना पड़ेगा... जब प्यार किया (जनम लिया) तो डरना क्या ...
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री बृजमोहनजी श्रीवास्तव (गुना) की टिप्पणी -
ReplyDelete"मजेदार आलेख , झालानी द्वारा सुनाया गया शेर मन को भा गया।"
नई दुनिया!!!!!! अपुन तो पुरानी दुनिया के है-- जब अनारकली यह गाती- ज़माना ये समझा के हम पी के आये..पी के आये :)
ReplyDelete२ जनवरी २०१२, को हुई वार्तालाप में आपकी जो मन:स्थिति प्रकट हुई थी, उसको आपने यूं विस्तार दिया है कि आप अपनी 'स्पष्टवादिता' वाली सोच को कोई ऐसा मोड़ देना चाहते है कि "आक्षेपित को भी सम्मानजनक लगे".
ReplyDeleteशायद यहीं उस दिन आपकी चर्चा का निचोड़ था. जिस मानसिक अवसाद के दौर से आप गुज़र रहे है, उसका यह एक तरह से हल भी है.
लेकिन 'शुजाअ' एसी ही स्थिति में यूं कह गए थे :
"कुछ न बोला तो 'शुजाअ' अंदर से तू मर जाएगा,
और कुछ बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा".
म.हाश्मी
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