जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें‘ मान कर अनदेखी कर देते हैं वे वाकई में छोटी-छोटी बातें होती हैं?
शर्माजी के यहाँ बैठा था। तिवारीजी आ गए। हाथों में निमन्त्रण-पत्रों की गड्डी लिए। उनके बेटे के विवाह के निमन्त्रण-पत्र थे। अत्यन्त विनम्रतापूर्वक शर्माजी को निमन्त्रण-पत्र दिया (कुछ इस तरह मानो किसी देवता को फूल चढ़ा रहे हों) और कहा - ‘आपको आना ही है। अवश्य पधारिएगा।’ शर्माजी ने भी उतनी ही विनम्रता और शिष्टता से कहा - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं? अपना ही काम है।’
अब तिवारीजी मेरी ओर मुड़े। पूछा - ‘आप घर पर कब मिलेंगे? मुझे आपके यहाँ भी हाजिर होना है।’ मैंने कहा - ‘फालतू की औपचारिकता में न पड़ें। मैं भुक्त-भोगी हूँ। जानता हूँ कि निमनत्रण-पत्र बाँटना कितना कठिन, श्रमसाध्य और समय-खाऊ काम है। मेरा कोई ठिकाना नहीं। उत्तमार्द्ध नौकरी में है और मैं बीमा एजेण्ट! दिन भर घर पर ताला मिल सकता है। इसलिए मेरा निमन्त्रण-पत्र यहीं दे दीजिए। मैंने मान लिया कि आप मेरे घर पधार गए हैं।’ तिवारीजी ने अविश्वास भाव से मेरी ओर देखा। मैंने अपनी बात दुहराई। तिवारीजी गद्गद हो गए। एक बार फिर वही, देवता को फूल चढ़ानेवाली विनम्र मुद्रा अपनाई और मुझे निमन्त्रण-पत्र दिया। वही अनुरोध दुहराया - ‘आपको आना ही है। अवश्य पधारिएगा।’ मैंने भी शर्माजी का सम्वाद दुहरा दिया।
तिवारीजी के जाने के बाद शर्माजी ने पहले अपना फिर मेरा निमन्त्रण-पत्र देखा। चेहरे पर खिन्नता के भाव उभरे। मुझसे पूछा - ‘आप जाएँगे तिवारीजी के यहाँ?’ मैंने कहा -‘हाँ। जाऊँगा। जाना ही पड़ेगा। बहुत प्रेम रखते हैं। आप नहीं जाएँगे?’ मलिन-मुद्रा और खिन्न स्वरों में शर्माजी बोले - ‘सोचना पड़ेगा।’ दोनों की मैत्री को मैं जानता था। सो पूछा - ‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सोचने की बात कहाँ से आ गई?’ शर्माजी ने अपना निमन्त्रण-पत्र मेरे सामने कर दिया - ‘आपने निमन्त्रण देखा?’ मैंने तो मेरे नामवाला निमन्त्रण-पत्र ही नहीं देखा था! शर्माजी का निमन्त्रण-पत्र देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था! मैंने प्रति-प्रश्न किया - ‘क्यों? क्या बात है?’ शर्माजी ने कहा - ‘दोनों निमन्त्रण-पत्र देखिए।’ मैंने ‘आज्ञा-पालन’ किया। मुझे कोई खास बात नजर नहीं आई। शर्माजी बोले - ‘जरा ध्यान से देखिए।’ मैंने फिर से ‘आज्ञा-पालन’ किया। ध्यान से देखा। इस बार अन्तर नजर आया। छोटा सा। मेरेवाले निमन्त्रण-पत्र पर ‘सपरिवार’ लिखा था जो शर्माजी के निमन्त्रण-पत्र पर नहीं था। मैंने कहा - ‘हाँ। एक शब्द का अन्तर है।’ शर्माजी मानो मेरे ऐसा कहने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। बोले - ‘यही तो! तिवारीजी की और मेरी दोस्ती, आपकी-उनकी दोस्ती से कम नहीं है। लेकिन मुझे सपरिवार निमन्त्रण नहीं है। उन्होंने इतना भी ध्यान नहीं रखा कि जब मुझे अकेले को निमन्त्रित कर रहे हैं तो मेरे ही घर में, मेरी मौजूदगी में अपको ‘सपरिवार’ वाला निमन्त्रण तो नहीं देते! आपके घर जाकर दे देते।’
मैं उलझन में पड़ गया। कौन, किसे, किस तरह, किस स्तर पर निमन्त्रित करे, यह उसका निर्णय होता है। अपनी-अपनी मानसिकता होती है। आयोजन को लेकर व्यवस्थाओं और परस्पर पूर्व व्यवहार के सन्दर्भ भी ऐसे निर्णय के आधार होते हैं। मुझे इसमें कभी हैरानी और आपत्ति नहीं हुई। शर्माजी की खिन्नता ने मुझे जिज्ञासु बना दिया। मैंने पूछा - ‘आपके यहाँ भी कुछ आयोजन हुए हैं। आपने सबको सपरिवार ही निमन्त्रित किया?’ जवाब आया - ‘नहीं। सबको सपरिवार तो बुला ही नहीं सकते। बुलाते भी नहीं। एक-एक नाम पर भरपूर विचार होता है और तय होता है कि किसे सपरिवार बुलाना है और किसे नहीं।’ मैंने फिर पूछा - ‘तिवारीजी को भी सपरिवार निमन्त्रित नहीं किया?’ सहजता से शर्माजी ने कहा - ‘हाँ। तिवारीजी को भी सपरिवार निमन्त्रित नहीं किया।’ मुझे अचरज हुआ। पूछा - ‘तो आपको बुरा क्यों लग रहा है?’ ‘बुरा इसलिए लग रहा है कि मेरे ही घर में, मेरी मौजूदगी में वे आपको सपरिवार निमन्त्रित कर गए जबकि मेरा निमन्त्रण तो अकेले का है। यह मुझे अच्छा नहीं लगा।’ शर्माजी का तर्क मेरी समझ में नहीं आया। मैंने कहा - ‘मुमकिन है, तिवारीजी ने सोचा हो कि बैरागीजी के परिवार में दो ही लोग (पति-पत्नी) हैं। एक को बुला लिया तो घर पर दूसरे के लिए, अकेले का भोजन बनाना पड़ेगा। ऐसा ही कुछ सोच कर हम दोनों को न्यौता दे दिया होगा। फिर, चूँकि आपने अपने यहाँ उन्हें सपरिवार नहीं बुलाया, इसीलिए उन्होंने भी आपको सपरिवार नहीं बुलाया। यह तो व्यवहार की बात है! इसमें बुरा माननेवाली बात कहाँ से आ गई?’ खिन्नता बनाए हुए शर्माजी बोले - ‘आपकी बात बराबर सही है। व्यवहार भी यही कहता है। किन्तु तिवारीजी को ध्यान रखना चाहिए था। उन्होंने आज जो किया, वह अच्छा नहीं किया। उन्होंने ऐसा नहीं करना चाहिए था। जाने-अनजाने उन्होंने मेरे ही घर में मेरी बेइज्जती कर दी।’
मुझे कुछ भी सूझ-समझ नहीं पड़ी। कौन सही है, कौन गलत? क्या उचित है, क्या अनुचित? दोनों के सम्बन्धों पर इस घटना के क्या प्रभाव होंगे? मैं उलझन में पड़ गया था। मुझे लौटना था। नमस्कार कर लौट आया।
अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। यही बात मन में कौंध रही है - जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें‘ मान कर अनदेखी कर देते हैं वे वाकई में छोटी-छोटी बातें होती हैं?
बात का बतंगड़, कभी अकारण, कभी सकारण.
ReplyDeleteछोटी बातें कितना गहरा प्रभावित कर देती हैं...
ReplyDeleteछोटी-छोटी बातें 'देखन में छोटे लागे घाव करे गंभीर.'
ReplyDeleteऐसा अक्सर देखने में आता है...लेकिन इस बात का बुरा नही मानना चाहिए क्यों कि हरेक अपने हिसाब से चलता है।लेकिन ऐसी छोटी-छोटी बातें संवेदनशील व्यक्तियों को अक्सर चोट पहुँचा जाती है।
ReplyDeleteमेरे ख्याल से हम हिन्दुओं में निमंत्रण सपरिवार का ही होता है. MBBS (मियां बीबी बालबच्चों सहित). हो सकता है, तिवारी जी से एक शब्द लिखना छूट गया हो. वैसे शर्मा जी की सोच कुछ दकियानूसी लग रही है.
ReplyDeleteHamne nimantran ke message me "sapariwar padharkar var-vadhu ko Aashish pradan kare"likha, aur card par kewal naam likha, to akele hi bulaya,aisa mana gaya.Doosri bar card par "Mr.& Mrs...."likha to sapriwar nahi likha kaha gaya;Jo log magnifing glass se doosron ke card padhate hai, ve apna kiya yaad nahi karte.
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री आशीष दशोत्तर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDelete"तमन्ना थी कि रस्मो रिवाज को मिटा देंगे हम
अफ़सोस अपनी ही कोशिश में नाकाम हो गए हम
अब औरों को समझाने कैसे जायें हम
जब अपने ही घर में बदनाम हो गए हम"