क्या सम्वेदनाएँ भी ‘तकनीकी’ हो सकती हैं? इन्हें ‘सेवा शर्तों’ का हिस्सा बनाया जा सकता है? शायद नहीं। ‘शायद’ क्या, बिलकुल ही नहीं। एक समाचार पढ़कर ये सवाल मेरे मन में उभरे। समाचार पढ़कर पहले तो मैं ठठाकर हँसा था - अकेले में ही। किन्तु अगले ही क्षण उदास हो गया था।
समाचार के अनुसार, मेरे कस्बे के महाविद्यालय के, चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी के पिता का निधन हो गया। कर्मचारियों ने शोक सभा करने का निर्णय लिया। किन्तु शोक सभा में छोटा सा हंगामा हो गया। शोक सभा में बहुत ही कम लोग उपस्थित थे। प्राध्यापक समुदाय तो लगभग पूरा का पूरा अनुपस्थित था - कोई पचपन प्राध्यापकों में से कुल दो ही उपस्थित थे। इसके विपरीत, महाविद्यालय में कार्यरत तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के अतिरिक्त, कस्बे के विभिन्न शासकीय कार्यालयों के, इन वर्गों के कर्मचारी संगठनों के अनेक पदाधिकारी उपस्थित थे।
यह देखकर, चतुर्थ श्रेणी के सारे कर्मचारी उत्तेजित और आक्रोशित हो गए। शोक सभा का मूल भाव तिरोहित हो गया और स्थिति ‘कर्मचारी आन्दोलन’ जैसी बन गई। कुछ क्षण तो स्थिति यह हो गई कि लोग, दिवंगत को भूल गए और अनुपस्थितों को ही याद करने लगे। प्राध्यापकों की न केवल प्राध्यापकों की अनुपस्थिति पर अपितु प्राचार्य द्वारा शोक सभा का समय सायंकाल पाँच बजे रखने पर भी आपत्ति जताई, क्योंकि उस समय सारे प्राध्यापक जा चुके होते हैं। कर्मचारियों का कहना था कि शोक सभा जल्दी, उस समय रखी जानी चाहिए थी जब प्राध्यापकों सहित समस्त कर्मचारी उपस्थित रहते हैं। इस स्थिति को ‘छोटे कर्मचारियों के प्रति उपेक्षा और असम्मान’ तथा ‘मौत-मरण के सम्वेदनशील मामलों में भेदभाव’ निरूपित किया गया।
शाक सभा में उपस्थित, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ग के कर्मचािरयों ने तथा इन वर्गों के विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों ने, महाविद्यालय के प्राचार्य से ‘विधिवत औपचारिक भेंट’ कर अपनी अप्रसन्नता और प्रतिवाद प्रकट किया। प्रत्युत्तर में, प्राचार्य ने आश्वस्त किया कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा और आगे से ‘व्यवस्थित शोकसभा’ आयोजित की जाएगी।
यह न तो प्राध्यापकों की अनुपस्थिति का बचाव है और न ही कर्मचारियों के व्यवहार पर आपत्ति। हमारी खुशी में लोग शरीक हों, यह हम सबकी इच्छा भी होती है और अपनी इस इच्छा पूर्ति हेतु हम यथासम्भव प्रयास भी करते हैं। आमन्त्रितों से किए जानेवाले आग्रह हमारी इन्हीं कोशिशों का हिस्सा होते हैं और न आने पर हमारी अप्रसन्नता और उलाहना देते हुए इस अप्रसन्नता का प्रकटीकरण हमारा अधिकार भी होता है। किन्तु हमारे शोक में किसी के आने न आने पर यह स्थिति नहीं होती। ऐसे प्रसंगों पर, अपनों की उपस्थिति की अपेक्षा हम सबको होती तो है किन्तु किसी के न आने पर उलाहना देने या कि अप्रसन्नता जताने की अपनी भावनाएँ हम सब दबा लेते हैं।
किन्तु यह उदाहरण हमारे लोक मानस में आ रहे परिवर्तन का, सचेत करनेवाला उदाहरण है। इस परिवर्तन का आधार क्या हो सकता है? कोई आर्थिक-सामाजिक कारण है या शासक-शासित के बीच स्थापित असन्तोष इसका कारण है?
दुखद उदाहरण! यह सच है कि बहुत से लोग सम्वेदना प्रकट करने में भी लाभालाभ देखते हैं लेकिन यह भी सच है कि श्रमिकों का पक्षधर बनने वाले बहुत से संगठन असंतोष भडकाने के हर अवसर का शर्मनाक दुरुपयोग कर रहे हैं।
ReplyDeleteआग्रह या अधिकार,
ReplyDeleteभावनायें व्यापार।
दुखद, बदलते हुए समाज में भावनाओं के पतन का उदाहरण है ये।
ReplyDeleteबहुत सारे विचारणीय बिंदुओं को एक साथ उभारती पोस्ट.
ReplyDeleteमुझे लगता है कि समस्या शोक सभा में कर्मचारी नेताओं के पहुँचने के कारण हुई. नेतागिरी हर जगह चमकानी जरूरी है - शोक सभा हो या सुख सभा.
ReplyDeleteपर, यह बात भी तय है कि यदि यह ऐसी ही कोई सुख-सभा भी होती तो स्थिति बहुत भिन्न नहीं होती - ये तो मेरा जिया हुआ अनुभव है - बड़ा चूहा - छोटा चूहा का खेल है ये.
मैं भी यह पढ़कर हँस रहा हूँ, और, पता है कि बाद में उदास होने वाला हूं :(