‘अण्णा’ ही बने रहिए अण्णा

शुक्रवार, 8 जुलाई की रात 8 बजे मैंने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर लिखा - ‘हे भगवान! अण्णा को शहीद होते देखने को उतावले मूर्ख मित्रों से बचाना। हमें अण्णा की आवश्यकता है।’ मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस टिप्पणी पर (मेरी ‘प्रति प्रतिक्रियाओं’ सहित) 20 से अधिक प्रतिक्रियाएँ दर्ज हुईं। मैं आत्म-मुग्ध होने ही वाला था कि मेरे विवेक ने टोका - ‘अपने कपड़ों में रहो! विषय की महत्ता के चलते तुम्हें ये प्रतिक्रियाएँ मिली हैं, तुम्हारी बात पर नहीं।’ और मैं खुद पर इतराने की आत्मघाती मूर्खता से बच गया।

तीन प्रतिक्रियाएँ मुझे महत्वपूर्ण लगीं। मेरी टिप्पणी दर्ज होने के 22 मिनिट बाद ही डॉक्टर प्रदीपजी त्रिवेदी (ई-मेल pk_trivedi@rediffmail.com मोबाइल नम्‍बर 9425106549) ने दो हिस्सों में लिखा -‘ये बात मुझे समझ में नहीं आती कि अण्णा और उनकी टीम तथा बाबा रामदेव चुनाव क्यों नहीं लड़ना चाहते? यदि बदलाव लाना है तो संसद से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। बजाय अनशन करने के।’

प्रसंगवश उल्लेख है कि डॉक्टर त्रिवेदी नीमच के हैं और मेरे पॉलिसीधारक भी। ‘प्रति प्रतिक्रिया’ में मैंने लिखा - ‘डॉक्टर त्रिवेदी साहब! यह सवाल केवल आपका नहीं, असंख्य लोगों का है। लेकिन यह सवाल सबसे अन्त में पूछे जानेवाला है। मौजूदा चुनाव प्रणाली में केवल बाहुबली, धनबली और ऐसे ही अन्य बली ही जीत सकते हैं। अण्णा की माँग और नीयत पर मुझे कोई सन्देह नहीं है किन्तु मैं यह भी मान रहा हूँ कि लोकपाल से पहले चुनाव सुधारों पर काम किया जाना चाहिए। लोकपाल तो भ्रष्टाचार हो जाने के बाद हरकत में आएगा जबकि यदि वाजिब चुनाव सुधार हो जाएँ तो मुमकिन है, लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं रहे। किन्तु इसके बाद भी, मैं अण्णा के साथ इस नीयत से हूँ कि लोगों ने इस बारे में सोचना तो शुरु किया। बहुत जल्दी मैं चुनाव सुधारों पर अपने मन की बात लिखनेवाला हूँ। आप पढेंगे तो शायद मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। मुझ पर नजर बनाए रखिएगा।’

लम्बे समय से मैं चुनाव सुधारों पर अपनी बात लिखना चाह रहा हूँ किन्तु हर बार आलस्य का शिकार हो रहा हूँ। ‘जन लोकपाल मसविदे’ को लेकर देश में जो उद्वेलन छाया हुआ है, उसे देखते हुए मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ कि यदि वांच्छित चुनाव सुधार हो जाते तो परिदृष्य कुछ दूसरा ही होता। तब, लोकपाल और लोकपाल का कार्यालय उपेक्षित (और लगभग अनावश्यक) रहता। कोई पूछनेवाला शायद ही मिलता। यह मेरी ऐसी धारणा है जिस पर आज खुल कर हँसने का अधिकार और सुविधा सबको उपलब्ध है किन्तु मुझे विश्वास है कि चुनाव सुधारों से सम्बन्धित मेरे मन्तव्य निश्चय ही सबको अपना दृष्टिकोण बदलने को विवश करेंगे। किन्तु यह तभी हो सकेगा जब मैं आलस्य से मुक्ति पाऊँ।

दूसरी प्रतिक्रिया श्री अनीक गुप्ता( http://facebook.com/ANEEKGUPTA) की आई। यह भी दो अंशों में रही। पहला भाग सीधा-सपाट, दो-टूक था - ‘क्षमा करें श्रीमान्! वे (अण्णा) संसदीय लोकतन्त्र को नकारते हैं।’ दूसरा हिस्सा तनिक आक्रोशभरा और अण्णा तथा उनके साथियों की बखिया उधेड़नेवाला है। गुप्ताजी ने जो कुछ लिखा, उसकी अधिकांश बातें मैं पहले से ही जानता हूँ। यह दूसरा हिस्सा मैं यहाँ उद्धृत नहीं कर रहा। क्योंकि गुप्ताजी से सहमत और अण्णा से आंशिक रूप से असहमत होने के बावजूद मैं अण्णा की नीयत पर सन्देह नहीं करना चाह रहा। चाह रहा हूँ कि अण्णा के अभियान को पूरी न सही, आंशिक सफलता तो मिले ही मिले। इसलिए मैंने गुप्ताजी से उनका ई-मेल पता और फोन नम्बर माँगा जो उन्होंने उपलब्ध करा दिया। उनसे, अलग से अपनी बात कहूँगा।

किन्तु आशीष कुमार ‘अंशु’ (ई-मेल ashishkumaranshu@gmail.com मोबाइल - 9868419453) ने मानो मेरे मन का चोर पकड़ लिया। अगले दिन, शनिवार को दोपहर लगभग दो बजे उन्होंने लिखा - जिस अन्ना की आपको आवश्यकता है, वह ‘अन्ना’ बने रहें, इस बात की अधिक आवश्यकता है। ‘बहुत मुश्किल है दुनियाँ में बड़े बनकर बने रहना।’ उन्हें मेरा जवाब था - ‘दोपहर तक तो मैं आपसे सहमत न होता किन्तु दोपहर बाद समाचार चैनलों पर अण्णा को सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हुए देख कर मुझे आपसे सहमत होना पड़ रहा है। अण्णा को खुद को लोकपाल मसविदे तक सीमित रखना चाहिए।’

ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, त्यों-त्यों अण्णा अनावश्यक, अप्रासंगिक, असम्बद्ध वक्तव्य देते नजर आ रहे हैं। वे सरकार और मन्त्रियों पर आरोप लगा रहे हैं, व्यंग्योक्तियाँ कर रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। वे सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग कर रहे हैं और 65 वर्ष से अधिक के राजनेताओं को स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति का परामर्श दे रहे हैं। अनायास ही लगने लगता है कि असम्बद्ध-अप्रासंगिक-अनावश्यक वक्तव्यबाजी करने का ‘रामदेव प्रभाव’ कहीं अण्णा पर तो नहीं आ गया? इन सब बातों से ‘जन लोकपाल मसविदे’ का क्या लेना-देना? मुझे डर लग रहा है कि ये तमाम बातें, अण्णा के अभियान को गम्भीर क्षति पहुँचा सकती हैं। ऐसी बातें सुन-सुन कर सरकार और उसके मन्त्री खुश ही होते होंगे। ऐसी बातें, मुद्दे को पीछे धकेलने में और विषय को बदलने में अत्यधिक सहायक होंगी। सरकार और उसके मन्त्री यही तो चाहते हैं!

सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से निकालने की, अण्णा की माँग चौंकानेवाली है। सिब्बल के प्रति व्यक्तिगत अरुचि के सिवाय और कोई कारण इस माँग पीछे नजर नहीं आता। अण्णा को याद रखना पड़ेगा कि लोग उन्हें गाँधी से जोड़ते हैं और उनमें गाँधी की न केवल छवि देखते हैं अपितु अपेक्षा भी करते हैं कि अण्णा का आचरण गाँधी जैसा हो। गाँधी ने निजी बैर भाव को अपने चिन्तन, मनन, वचन, आचरण में कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने जब भी, जो कुछ भी कहा, सदैव ही वृत्ति को केन्द्र में रखकर ही कहा। नील की खेती को लेकर चलाए अपने आन्दोलन में गाँधी ने किसानों के लिए न्याय माँगा था - नीलगर किसानों को बन्दी बनाकर और उन पर अत्याचार करनेवाले अंग्रेजों के विरुद्व किसी कार्रवाई की माँग नहीं की थी। यहाँ अण्णा जब सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हैं तो वे गाँधी को परे धकेल कर, निजी घृणा-अप्रसन्नता को परवान चढ़ाते नजर आते हैं।

ऐसी बातें और ऐसी स्थितियाँ अण्णा और उनके साथियों के विरुद्ध व्यक्तिगत मोर्चे खोलेंगी। होना तो यह चाहिए कि मामले को केवल जन लोकपाल मसविदे तक ही सीमित और उसी पर केन्द्रित रखा जाए। यदि मन्त्रियों पर व्यक्तिगत छींटाकशी की जाएगी, उनकी जग हँसाई की जाएगी और सरकार तथा मन्त्रियों को गरियाया जाएगा तो अण्णा के साथियों की कमजोरियों को मुख्य विषय बनाकर लोकपाल को पार्श्व में धकेल दिया जाएगा। तब, व्यापक जनहितों को लेकर चल रहे आन्दोलनों से इन लोगों की दूरी, इन लोगों को मिलनेवाली आर्थिक सहायता के स्रोतों की शुचिता, केवल सरकारी भ्रष्टाचार पर हमला करना और कार्पोरेट भ्रष्टाचार से आँखें चुराना आदि को मुख्य विषय बनाकर वह दशा कर दी जाएगी कि इन लोगों को बोलना मुश्किल हो जाएगा। तब, अभियान की दिशा भले ही न बदले, ‘दशा’ बदलने का खतरा अवश्य पैदा हो जाएगा।

इसलिए यह केवल जरूरी नहीं, अनिवार्य है कि अण्णा खुद को केवल लोकपाल मसविदे तक ही सीमित रखें। कोई कुछ भी कहे, कुछ भी करे, उन्हें कितना ही उकसाए, उत्तेजित करे, करने दें। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करें। मुद्दे को भटकने न दें। याने जैसा कि भाई आशीष कुमार ‘अंशु’ ने कहा है - अण्णा केवल ‘अण्णा’ ही बने रहें। वे यदि रंचमात्र भी अण्णा से इतर कुछ और हो गए बेड़ा गर्क और सब कुछ तो बण्टाढार हो जाएगा।

नाव की दिशा में यदि एक अंश (डिग्री) का अन्तर आ जाए तो उसके गन्तव्य में कुछ मीटरों का ही अन्तर होगा। किन्तु दिशा में एक अंश (डिग्री) का यही बदलाव, जहाज के गन्तव्य में सैंकड़ों मीलों का अन्तर ला देता है। तब, ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ वाली स्थिति हो जाती है।

सो! अण्णा!! मेरी नहीं, ‘अंशु’ की सुनिए। अण्णा ही बने रहिए।

5 comments:

  1. जब सब अन्ना में अपने हिस्से का अन्ना ढूढ़ने लगेंगे तो एक मानव क्या क्या कर डालेगा?

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  2. अन्ना मे कमीयां हो सकती हैं ये माना लेकिन उन के देश के प्रति विचारों से असहमत होना मुश्किल है।इसी लिये अधिकतर जनता उनके साथ है।
    जहाँ तक चुनाव लड़ने की बात है सो अन्ना के बस की बात नही....बहुत से लोग चुनाव मे कूदना चाहते हैं लेकिन करोड़ो चाहिए उसके लिये....एक आम आदमी कहाँ से लायेगा भला!

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  3. अन्ना अन्ना हो रहें ... उनके बस का एक ही काम है वो करें ... कहीं न कहीं हम अपनी इच्छाओं को अन्ना के माध्यम से कह रहे हैं ..प्रवीण जी ने सही लिखा है ... सहमत हूँ मैं भी उनकी बात से ..

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  4. achhe samarthan ka arth na samajhkar prarambhik uddyshya se baad ki chijen mel nahi khati isliye evam rajniti ke karib lagne lage hain aur rajnitigyon ke bare me bolte hain jo thik nahin lagta evam uddeshya se bhatkav nazar aata hai

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  5. देखते हैं क्या होता है…
    फ़िलहाल अण्णा को सबसे पहली सलाह तो अपनी "सलाहकार मण्डली" और "घेर-चौकड़ी" में से कुछ काली भेड़ों को बाहर करने की देना चाहिए… :)

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