नेताओं को पीठ पीछे गालियाँ देना, पानी पी-पी कर भ्रष्टाचार को कोसना और इन दोनों के फलने-फूलने में अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार घोषित करना, यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य और हमारी राष्ट्रीय पहचान बन गया है। ये दोनों ‘नेक काम’ करने में हमें न तो देर लगती है और न ही अकल लगानी पड़ती है। सब कुछ बड़ी सहजता से करते हैं हम लोग यह सब। सचमुच में बिना विचारे। इन दोनों मुद्दों पर हम जिस दिन सोच-विचार कर बोलना, काम करना शुरु करेंगे, उसी दिन, उसी पल से हमें कष्टों से मुक्ति मिलनी शुरु हो जाएगी। लेकिन शुरुआत कौन करे? ऐसी शुरुआत के लिए हममें से प्रत्येक खुद को अशक्त, असमर्थ और विवश पाता है। वास्तविकता यह है कि हममें से कोई भी न तो अशक्त है, न असमर्थ और न ही विवश। हम सब स्वार्थी हैं। देश के नाम की दुहाइयाँ भले ही जोर-शोर से देते हैं किन्तु वास्तव में हम केवल स्वार्थी और आत्म केन्द्रित हैं। इससे कम या ज्यादा कुछ भी नहीं। हम कहें कुछ भी किन्तु वास्तविकता तो यही है कि देश हमारी प्राथमिकता सूची में तो दूर रहा, हमारी विचार सूची में ही कहीं नहीं है।
भारतीय जीवन बीमा निगम के हम एजेण्टों को कुछ आर्थिक सुविधाएँ मिलती हैं। निस्सन्देह इन सुविधाओं के लिए एजेण्टों को ढेर सारी व्यावसायिक शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। किन्तु, चैबीस से लेकर साठ तक की आसान मासिक किश्तों में, बिना ब्याज का ऋण न केवल आकर्षक अपितु ललचानेवाली भी सुविधा है। कार्यालय फर्नीचर ऋण भी ऐसी ही एक सुविधा है। किन्तु हम भारतीय बड़े उस्ताद लोग हैं। हम लोग सुविधाएँ भी अपनी शर्तों पर चाहते हैं। अपने मन माफिक हो जाए तो सब कुछ ठीक-ठाक और मन माफिक न हो पाए तो सारे नेता चोट्टे और पूरा देश भ्रष्ट।
अपने इसी राष्ट्रीय चरित्र वाले एक रोचक अनुभव से अभी-अभी गुजरा हूँ।
फर्नीचर ऋण सुविधा की पात्रता प्राप्त एक एजेण्ट मित्र ने मदद चाही। मुझे आश्चर्य हुआ। सब कुछ तो नियमानुसार और सुस्पष्ट है! भला मदद की आवश्यकता क्यों? मालूम हुआ - वे डेड़ लाख रुपयों का कार्यालय फर्नीचर ऋण लेकर पलंग, आलमारियों जैसा घरेलू फर्नीचर बनवाना चाहते हैं और इसीलिए मेरी मदद चाहते हैं। मैंने पूछा - ‘इसमें मैं मदद कैसे और क्या कर सकता हूँ?’ वे बोले - ‘आप किसी फर्नीचर व्यापारी से मुझे कार्यालय फर्नीचर का बिल बनवा दीजिए।’ मुझे और आश्चर्य हुआ। ऐसा भी होता है? हो सकता है? वे बोले - ‘कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता!’ मैंने जानना चाहा कि उन्होंने ऐसी कोई कोशिश की? जवाब मिला - ‘हाँ। कोशिश की। दुकानदार सेल्स टैक्स रजिस्टर्ड है और बिल भी देने को तैयार है किन्तु बिल की रकम (याने डेड़ लाख रुपये) पर साढ़े बारह परसेण्ट टैक्स माँगता है।’ मैंने कहा -‘मुझे नहीं लगता कि एलआईसी आपको ऐसा करने देगी। क्योंकि शाखा प्रबन्धक द्वारा व्यक्तिगत रूप से फर्नीचर का भौतिक सत्यापन करने के बाद ही ऋण मिल पाता है। किन्तु यदि आपको लगता है कि ऐसा करने से आपका काम हो जाएगा तो बिल ले लीजिए।’ मेरी बात उन्हें नहीं जँची। तनिक क्रुद्ध होकर बोले - ‘आपने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि बिल ले लीजिए। साढ़े बारह परसेण्ट से पूरे पौने उन्नीस हजार रुपये बनते हैं! मैं सामान तो नहीं ले रहा! केवल बिल ही तो ले रहा हूँ?’ मैंने कहा - ‘तो आप ऑफिस फर्नीचर ही ले लीजिए।’ मेरी ‘जड़ मति’ पर तरस खाते हुए बोले - ‘आप समझ नहीं रहे। फर्नीचर तो मुझे घर के लिए बनवाना है। ऑफिस फर्नीचर का तो केवल बिल चाहिए।’ मैंने कहा - ‘मैं समझ रहा हूँ।’ इस बार तनिक अधिक गुस्से में बोले - ‘खाक समझ रहे हैं? अरे! दुकानदार सीधे-सीधे पौने उन्नीस हजार का भ्रष्टाचार कर रहा है और आप उसकी तरफदारी कर रहे हैं? उसकी बात माननी होती तो आपके पास आता ही क्यों? आपके पास इसीलिए आया हूँ कि आप दुकानदार से मेरी सिफारिश कीजिए कि वह टैक्स की रकम न ले और बिल दे दे।’ क्षण भर को तो मुझे हैरत हुई किन्तु अगले ही पल मुझे हँसी आ गई। बोला - ‘आपको दुकानदार का पौने उन्नीस हजार का भ्रष्टाचार तो नजर आ रहा है किन्तु आप पूरे एक लाख इकतीस हजार दो सौ पचास रुपयों का जो भ्रष्टाचार कर रहे हैं, वह नजर नहीं आ रहा?’ अब वे भड़क गए। बिलकुल वैसे ही जैसे कि साँड को लाल कपड़ा दिखा दिया हो। तैश में बोले - ‘वहाँ दिल्ली में कॉमन वेल्थ खेलों में एक रुपये की चीज सौ रुपयों में खरीदी जा रही है। मन्त्री और अफसर लूटखोरी में लगे हुए हैं। आपको वह सब नजर नहीं आया। मेरा भ्रष्टाचार ही नजर आया?’
उनकी ‘दुर्वासा मुद्रा’ ने मेरी हँसी और बढ़ा दी। कहा - ‘रिश्वत देना आपकी-मेरी मजबूरी हो सकती है। रिश्वत लेना मजबूरी नहीं होती। आप यदि सचमुच में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं तो सचमुच में ऑफिस फर्नीचर ही ले लीजिए। झूठा बिल बनवाकर घरेलू फर्नीचर मत बनवाइए। ऐसा करना आपकी मजबूरी नहीं है। किन्तु आप ऐसा ही करना चाह रहे हैं तो दुकानदार को टैक्स की रकम देना आपकी मजबूरी है। दुकानदार को भ्रष्टाचार करने का अवसर तो आप दे रहे हैं! यदि आप चाहते हैं कि दुकानदार यह भ्रष्टाचार न करे तो आप खुद ईमानदारी बरतें, झूठा बिल न बनवाएँ।’
मेरी बात सुनकर वे चुप तो हो गए किन्तु चेहरा बता रहा था कि सन्तुष्ट तो बिलकुल नहीं हुए। उल्टे, मदद के लिए मेरे पास आने का पछतावा उनके चेहरे को ढँकने लगा था। मानो, कोढ़ की दवा लेने आए थे और खाज साथ ले चले।
वे एजेण्ट बन्धु अभी-अभी गए हैं। मैं चाह रहा हूँ कि उन्हें मेरी बातों का बुरा लगे और वे झूठा बिल न बनवाएँ। किन्तु जानता हूँ कि मेरे चाहने से क्या होता है? वे तो कामन वेल्थ खेलों से ही प्रेरणा लेंगे, उन्हीं का अनुकरण करेंगे और अपने एक लाख इकतीस हजार दो सौ पचास रुपयों के भ्रष्टाचार की अनदेखी कर, दुकानदार के पौने उन्नीस हजार के भ्रष्टाचार को आजीवन कोसते रहेंगे। यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है।
चौंसठवे स्वाधीनता दिवस की प्रभात वेला में, मेरी ओर से, अपने इसी राष्ट्रीय चरित्र की महक में रचे-बसे अभिनन्दन स्वीकार कीजिए।
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हा हा हा, हर चोर को दूसरे की चोरी ही चोरी नज़र आती है!
ReplyDeleteस्वाधीनता दिवस की शुभकामनायें और अभिनन्दन
शायद अधिकांश लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरे भ्रष्ट कहने वाले मौका मिलने स्वयं भी भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। सभी के लिए नहीं लेकिन अधिकांश के लिए तो यह बात सही है।
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