ताऊजी की बात सुनकर मुझे हँसी आ गई और साथ ही याद आ गए रमाकान्तजी। बात बाद में। पहले रमाकान्तजी के बारे में।
मेरे कस्बे से चौंतीस किलो मीटर दूर स्थित जावरा में रहते हैं रमाकान्तजी। एक शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य हैं। विक्रम विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में एम. एससी. परीक्षा स्वर्ण पदक सहित पास की। कर्मकाण्डी ब्राह्मण अवश्य हैं किन्तु कर्मकाण्ड को वास्तविकताओं और व्यावहारिकताओ की कसौटी पर कसते हैं। वे कर्मकाण्ड को जितनी ‘पारम्परिक आवश्यकता’ मानते हैं उतनी ही आवश्यक इस परम्परा को व्यक्तिशः निभाना भी मानते हैं। याने, जो भी कर्मकाण्ड करना है, खुद को ही करना है। खुद के लिए किसी और से कर्मकाण्ड करवाना न तो उचित और न ही फलदायी मानते हैं। साफ-साफ कहते हैं - ‘आपके नाम पर मैं भोजन कर लूँ तो पेट तो मेरा ही भरेगा। आपका नहीं। इसी प्रकार यदि अपने लिए या अपने किसी कष्ट निवारण के लिए कोई मन्त्र जाप करना है तो खुद को ही करना पड़ेगा। तभी उसका लाभ मिलेगा। जावरा में बैठकर उज्जैन में बैठे किसी पण्डित से जाप करवाने से आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा। वह लाभ तो जाप करनेवाले पण्डित को ही मिलेगा।’ रमाकन्तजी यह सब उन लोगों से कहते हैं जो अपने लिए विभिन्न मन्त्रों के जाप के लिए रमाकान्तजी से आग्रह करते हैं। वस्तुतः कुण्डली ज्योतिष में रमाकान्तजी का यथेष्ठ हस्तक्षेप भी है। सो, कुण्डली अध्ययनोपरान्त जब वे किसी अनिष्टकारक योग की सूचना देते हैं तो लोग उसके निवारण का उपाय भी पूछते हैं और तब ही वे सारी बातें सामने आती हैं जो मैंने ऊपर लिखी हैं।
ताऊजी की यह बात भी ऐसी ही थी - भूख किसी और को लगी थी और भोजन किसी और को कराने की।
ताऊजी के छोटे भाई की बेटी सरला का विवाह अभी-अभी, इसी सात जुलाई को सम्पन्न हुआ है। मायका महू में है। बारात इगतपुरी से आई थी। बारात आठ जुलाई को रवाना हुई। धवला नौ की सुबह अपनी ससुराल पहुँची। आज के जमाने से सब कुछ पहले से ही तय कर लिया जाता है। सो, हनीमनू के लिए नव दम्पति का, 14 जुलाई का रेल-आरक्षण पहले से ही करवाया हुआ था। नव दम्पति की यात्रा की तैयारियों के बीच ही एक परम्परा सवाल बन कर खडी़ हो गई - ‘पग-फेरा हुए बिना सरला कैसे जा सकती है?’ ‘पग-फेरा’ याने, विवहोपरान्त लड़की का पहली बार मायके जाना। देहातों में तो यह बहुत ही सामान्य बात है किन्तु सम्पन्न शहरी समाज ने इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर, तामझामवाली परम्परा में बदल दिया है। देहातों में लड़की का पग-फेरा किसी पर आर्थिक भार नहीं होता। किन्तु शहरी समाज ने ‘पग-फेरा’ से अधिक आवश्यक इसके तामझाम को बना दिया। यह तामझाम अच्छा-भला खर्चीला हो गया है। हममें से प्रत्येक, अपनी हैसियत को बढ़-चढ़कर ही जताता है। सो, आर्थिक सन्दर्भों में यह परम्परा भी ‘नाक से भारी नथ’ बन गई है। सो, सरला का पग फेरा केवल एक रस्म मात्र नहीं थी, दोनों परिवारों की हैसियत जताने का जरिया और अवसर भी थी। किन्तु, नौ को पहली बार ससुराल पहुँची धवला, पग-फेरा के लिए महू जाए तो कब जाए और यदि जाए तो चौदह की शाम तक वापस इगतपुरी पहुँचे तो कैसे पहुँचे? सो, नव दम्पति का हनीमून-प्रस्थान संकट में पड़ गया।
ऐसे में, जैसा कि होता आया है, परम्परा निभाने की खानापूर्ति करने की सम्भावना पर विचार किया। अगले ही पल समस्या का निदान मिल भी गया। धवला की बुआ भी इगतपुरी में ही रहती है। तय किया गया कि चौदह जुलाई की सुबह सरला, बुआ के घर चली जाएगी जहाँ से शाम को ‘कुँवर साहब’ उसे लिवा लाएँगे। इस तरह ‘पग-फेरा’ भी हो जाएगा और नव दम्पति का हनीमून प्रस्थान भी समय पर हो जाएगा।
सरला के ससुरालवालों ने सारी बात सरला के माता-पिता को बताई, समझाई। ‘समझाई’ इसलिए कि ‘पग-फेरा’ भले ही इगतपुरी में हो ही रहा हो किन्तु तामझाम तो पूरा करना ही पड़ेगा। ‘समझाइश’ न केवल, परम्परा की खानापूर्ति हेतु सहमति देने की थी बल्कि इसी तामझाम की भी थी। हम कितने भी प्रगतिशील क्यों न हों, लड़कीवाले आखिरकार लड़कीवाले ही होते हैं। मजबूरी में दी गई सहमति को समझदारी की शकल में परोसनी पड़ती है। सो, सरला के माता-पिता ने यही समझदारी दिखाई और कोर बैंकिंग की सुविधा के चलते, पग-फेरा के तामझाम की कीमत हाथों हाथ ही, बुआ के खाते में जमा करा दी।
सब कुछ ठीक समय पर, ‘ढंग-ढांग’ से निपट गया। सरला का पग-फेरा हो गया। वह हनीमून-प्रवास से ससुराल के लौट आईं है। सब खुश हैं - यहाँ ताऊजी, महू में सरला के माता-पिता और ससुराल में सब के सब।
किन्तु मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। रमाकान्तजी की बातें याद कर शुरु-शुरु मे आई हँसी दूर जा चुकी है। जो पग-फेरा दोनों परिवारों के लिए एक आह्लाददायक वास्तविकता होना चाहिए था, वह नीरस खानापूर्ति में बदल कर रह गया। माँ-बाप ने पग-फेरा का मूल्य चुकाया किन्तु बेटी तो माँ-बाप के आँगन में लौटी नहीं ? ब्याही बेटी को पहली बार ससुराल से लौटी देखने की जो खुशी माँ-बाप को मिलनी चाहिए थी वह तो मिली ही नहीं! ‘पग-फेरा’ कोई संस्कार नहीं है। सरला का पग-फेरा यदि हनीमनू के बाद हो जाता तो कौन सा अनिष्ट, क्या अशुभ हो जाता?
परम्पराएँ हमने ही बनाई हैं और हमारी प्रसन्नता के लिए ही बनाई हैं। किन्तु सब कुछ उल्टा हो रहा है। जिन परम्पराएँ को हमारी संस्कृति की पायल बन कर हमारे जीवन के आँगन में में ‘रुन-झुन’ करनी चाहिए, उन परम्पराओं को हम प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक रुढ़ि की बेड़ियों में बदल रहे हैं - बिना सोचे समझे।
गलत तो नहीं कह रहा?
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"मजबूरी में दी गई सहमति को समझदारी की शकल में परोसनी पड़ती है" बहुत पसंद आया।
ReplyDeleteअप बिलकुल सही कह रहे हैं। हम अपने पाँव पर कुल्हाडी खुद मार रहे हैं बहुत अच्छा लगा आपका संस्मरण। बहुत दिन बाद आपके ब्लाग पर आने के लिये क्षमा चाहती हूँ। आपका स्वास्थ्य कैसा है?? शुभकामनायें
ReplyDeleteपग-फेरा यदि हनीमनू के बाद हो जाता तो कौन सा अनिष्ट, क्या अशुभ हो जाता?
ReplyDeleteकुछ कहा नहीं जा सकता है विष्णु जी। हमारा समाज बहू-रसोई दुर्घटना में विश्व में सर्वप्रथम है।
पग फेरा ही नहीं कई रस्मे पैरो की बेड़िया बन चुकी है. और इन सब के मूल में एक ही बात है आदमी से ज्यादा पैसो का महत्व.
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