अकेला करता धर्म
कुछ बातें सुनने में तो तत्काल अच्छी लगती हैं किन्तु समझ में बाद में आती हैं। होना तो यह चाहिए कि दोनों ही स्थितियों में आनन्दानुभूति हो किन्तु आवश्यक नहीं कि ऐसा हो ही। कुछ ऐसा ही में गए कुछ दिनों से अनुभव कर रहा हूँ। जब भी यह बात मन में आती है, मन कसकने लगता है।
देख रहा हूँ कि ‘नमस्कार’ और ‘नमस्ते’ जैसे पारम्परिक और लोक स्वीकृत अभिवादन लुप्त होते जा रहे हैं। अब अभिवादन के स्थान पर लोगों की धार्मिक, पांथिक अथवा किसी सन्त/गुरु के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जताने वाली शब्दावली या शब्द-युग्म सुनने को मिलते हैं। सम्भव है कि गाँवों में अब भी सब कुछ वैसा का वैसा ही हो किन्तु कस्बों, नगरों में स्थिति तेजी से बदलती जा रही है।
जिस गाँव के मन्दिर की पूजा मेरे परिवार का जिम्मा रही है वह गाँव पीपलोन (जिसे बोलचाल में पीपण अथवा फीफण उच्चारा जाता है) बहुत ही छोटा है। आज का तो पता नहीं किन्तु मैंने जब मनासा छोड़ा तो वह मुश्किल से सौ-सवा सौ घरों की बस्ती हुआ करता था। मीणा पटेल और गायरी समाज का प्रभुत्व था उस गाँव में। कुछ घर माली समाज के थे। वहाँ का चौकीदार था मेहताब खाँ मेवाती। वह अकेला गैर हिन्दू परिवार था उस गाँव में। ‘राम! राम!’ या ‘जै रामजी की’ कह कर परस्पर अभिवादन किया जाता था। मेहताब भी यही कह कर अभिवादन करता था और हम लोग भी ‘राम-राम मेताब भई’ कह कर ही अभिवादन करते थे। एक बार मैंने सहज जिज्ञासावश पूछ लिया था -‘मेताब भई! तुम तो मुसलमान हो! फिर राम-राम क्यों कहते हो?’ जवाब में उसने चा चौंक कर, अपनी ठोड़ी खुजलाते हुए कहा था - ‘अरे! बब्बू माराज! तुमने याद दिलाया तो याद आया कि मैं मुसलमान हूँ।’ बात इससे आगे नहीं बढ़ी।
मनासा मेरा पैतृक गाँव है। हमारा मकान, गाँव के उत्तर में, सबसे अन्तिम से पहले वाले, धोबी मुहल्ले की पुरबिया गली में है। मोहल्ले में कुछ मुसलमान परिवार थे। आज भी होंगे। कुछ सब्जी बेचते थे तो कुछ ऊँटों पर जंगल से लाद कर लकड़ी लाकर बेचा करते थे। एक सब्जी विक्रेता मोहम्मद भाई हमारा किरायेदार था। ये सब लोग या तो पहनावे से (खास कर महिलाओं के पहनावे से) या फिर ईद-मुहर्रम जैसे त्यौहारों पर ही मुसलमान मालूम होते थे अन्यथा बोलचाल और रहन-सहन में इनमें भेद कर पाना कठिन होता था। मेरे अपंग पिताजी सवेरे-सवेरे, बाहर चबूतरे पर बैठ जाते थे। आने-जानेवाले स्त्री-पुरुष (जिनमें हिन्दू, मुसलमान सब हुआ करते थे) उनसे ‘जै रामजी की माराज’ या फिर ‘राम-राम माराज’ कह कर ही अभिवादन करते थे। मोहम्मद भाई भी इसी शब्दावली में अभिवादन करता था। पिताजी भी ‘राम-राम रे भई मम्मद’ कह कर ही उत्तर देते थे।
मनासा की सामाजिकता पर माहेश्वरी और जैन समाज (श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों) का प्रभाव-प्रभुत्व है। वस्तुतः मनासा तो बसाया ही माहेश्वरियों और मीणाओं ने। बाजार पर माहेश्वरियों के प्रभुत्व के चलते माहेश्वरियों को ‘साहजी’ कह कर सम्बोधित किया जाता रहा है। सो, आज के मनासा की व्युत्पत्ति ‘मीणा-साह’ से हुई है। मुस्लिम समाज के लोग भी वहाँ भरपूर हैं। नगर पालिका के दो-एक वार्डों में तो मुस्लिम मतदाताओं का ही बाहुल्य है। किन्तु वहाँ भी अभिवादन के नाम पर सब कुछ पारम्परिक ही बना हुआ था। सबको पता था कि कौन किस समाज से है। अपना समाज या पंथ बताने के लिए किसी को अलग से कुछ कहना नहीं पड़ता था।
किन्तु आज काफी कुछ बदल गया है। जैसा कि मैने शुरु में कहा, ‘नमस्ते’ या ‘नमस्कार’ अब लुप्त होता लग रहा है। अब लोग परस्पर अभिवादन नहीं करते। अभिवादन करने के नाम पर वे अपनी अलग पहचान बताते हैं। कोई ‘जय श्री कृष्ण’ कह कर तो कोई ‘राधे-राधे’ कह कर अपना सम्प्रदाय उजागर कर रहा है। कोई ‘जय जिनेन्द्र’ कह कर अपनी धार्मिक पहचान उजागर कर रहा है तो कोई इससे भी आगे बढ़कर ‘जय केसरियानाथ’ उच्चारकर ‘विशेष में विशेष’ बनता नजर आ रहा है। स्निग्ध और आत्मीयता भरे ‘जै रामजी की’ का स्थान भयभीत कर देने वाले स्वरों वाले ‘जय श्री राम’ ने ले लिया है। कोई ‘ओऽम्’ उच्चार कर अपने गुरु की पहचान बताता है तो कोई ‘हरि ओऽम्’ कह कर अपने गुरु की। ‘साँई राम’ या ‘जय साँई राम’ का घोष कर कोई अपने आस्था पुरुष के प्रति सम्मान जताता है तो कोई ‘साहेब बन्दगी’ कह कर। हर कोई अपनी-अपनी पहचान बताने की कोशिश में खुद को सबसे अलग कर रहा है। सुना और पढ़ा था कि अध्यात्म लोगों को जोड़ता है और धर्म लोगों को बाँटता है। जुमलेबाजी और वाणी विलास के लिहाज से यह वाक्य अच्छा लगा था। किन्तु उसे सच होते देखकर अच्छा नहीं लगता। ये सारे व्यवहार हिन्दू या सनातनी या गैर मुस्लिम, गैर ईसाई समुदाय की न केवल स्थायी पहचान बन गए हैं बल्कि अपने ऐसे व्यवहार पर प्रत्येक को गर्वानुभूति भी होती है। गोया, खुद को सबसे अलग कर हम खुश हुए जा रहे हैं और फूले नहीं समा रहे हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि सुनी-पढ़ी हुई कुछ बातें वास्तविकता न बनें तो ज्यादा अच्छा लगता है?-----
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शायद ये भी बदलते हुए ज़माने का एक सूचकभर हो। जय रामजी की बोलना भी किसी न किसी बात का तो सूचक है ही। शायद दूसरे धर्मों को सम्मान देनेवाले अब अपने धर्म को भी सम्मान देना चाह रहे हो।
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