नहीं। वे तीनों परिहास नहीं कर रहे थे। उपहास तो बिलकुल ही नहीं कर रहे थे। मुझे आकण्ठ विश्वास और अनुभूति है कि वे तीनों मुझे भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। हाँ, साप्ताहिक उपग्रह में मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में मेरे लिखे पर तनिक विस्मित होकर प्रसन्नतापूर्वक बात कर रहे थे। तीनों अर्थात् सर्वश्री डॉक्टर जयन्त सुभेदार, वरिष्ठ अभिभाषक मधुकान्त पुरोहित और डॉक्टर समीर व्यास।
अपनी और अपनी उत्तमार्द्ध की नियमित जाँच कराने के लिए जब डॉक्टर सुभेदार साहब के कक्ष में पहुँचा तो मधु भैया के कागज देखे जा रहे थे। मैं पंक्तिबद्ध हो गया। मेरा क्रम आने पर मैंने अपने कागजात दिखाए और डॉक्टर साहब से निर्देश लेने के बाद अपनी ओर से कुछ जानना चाहा तो मधु भैया तपाक् से बोले - ‘इनसे सम्हल कर बात करना। पता नहीं ये किस बात पर कब, क्या लिख दें!’ सुभेदार साहब ने हाँ में हाँ मिलाई और उतने ही तपाक् से बोले - ‘इन्हें तो लिखने के लिए कोई सब्जेक्ट चाहिए। आपकी-हमारी बातों में से अपना सब्जेक्ट निकाल लेंगे।’ डॉक्टर समीर निःशब्द मुक्त-मन हँस दिए। हँस तो तीनों ही रहे थे। मुझे कोई उत्तर सूझ नहीं पड़ा। उनकी हँसी में शरीक होने में ही मेरी भलाई थी। मैं शरीक हो लिया। मेरी उत्तमार्द्ध के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ऐसे क्षणों में सबका साथ देना ही बुद्धिमत्ता होती है। सो, वे भी सस्मित हम चारों को देखने लगी।
ऐसा मेरे साथ पहली बार नहीं हुआ था। काफी पहले, वासु भाई (श्री वासुदेव गुरबानी) कम से कम दो बार कह चुके थे - ‘दादा! जिन छोटी-छोटी बातों की हम लोग अनदेखी कर देते हैं आप उन्हीं को अपनी कलम से बड़ी और महत्वपूर्ण बना देते हो।’ ऐसा ही कुछ, ‘विस्फोट’ वाले संजय तिवारी (नई दिल्ली) आठ-दस बार कह चुके हैं।
अपने लिखने पर जब-जब ऐसे जुमले सुने, तब-तब हर बार, अपनी धारणा पर विश्वास और गहरा ही हुआ। मेरा मानना रहा है कि हमारे जीवन में कोई भी बात छोटी नहीं होती। इसके विपरीत, छोटी-छोटी बातें प्रायः ही बड़े प्रभाव छोड़ जाती हैं। बच्चों की बातों की अनदेखी और उपेक्षा करना हमारा स्वभाव है। किन्तु बच्चों की बातें भी हमें सबक सिखा देती हैं। मेरा छोटा भतीजा गोर्की पाँच-सात साल का रहा होगा। दादा ने उसे कोई काम बताया। वह अनसुनी कर जाने लगा। दादा ने कहा - ‘गुण्डे! कहाँ चल दिया?’ तब तक गोर्की दौड़ लगा चुका था। लेकिन दादा की बात सुनकर वह पलटा और घर के बाहर, सड़क से ही चिल्लाया -‘मैं गुण्डा तो आप गुण्डे के बाप।’ और कह कर गोर्की यह जा, वह जा। दादा के पास मौजूद सब लोग ठठा कर हँस दिए। किन्तु दादा गम्भीर हो गए। उसके बाद उन्होंने अपने तो क्या, किसी और के बच्चे को भी ऐसे सम्बोधन से नहीं पुकारा। आप-हम अपने बच्चों को ‘बेवकूफ, गधा, पाजी’ जैसे ‘अलंकरण’ देते रहते हैं। इसका एक ही मतलब हुआ कि हम बवेकूफ, गधे, पाजी के भी बाप हैं। बात छोटी है किन्तु मर्म पर प्रभाव करती है।
मुझे लगता है कि हमारे संकटों में सर्वाधिक व्यवहृत संकट यही है - किसी बात को छोटी मान कर उसकी अनदेखी करना। एक बार की गई अनदेखी कालान्तर में हमारा स्वभाव बन जाती है और इसके परिणाम प्रायः ही कष्टदायक होते हैं।
अपने बड़े बेटे वल्कल को मैंने तब ही मोटर सायकिल सौंपी जब वह 18 वर्ष पूरे कर चुका था और लर्निंग लायसेन्स ले चुका था। मैं जानता था कि वह घर से बाहर, स्कूल के मित्रों के दुपहिया वाहन चलाता है। मैंने उसे ऐसा करने से हमेशा ही हतोत्साहित किया और कहता रहा कि वह अपराध कर रहा है। परिणाम यह हुआ कि वह यातायात नियमों और कानूनों के प्रति आज भी अतिरिक्त सतर्क है। इसके विपरीत, छोटे बेटे तथागत को सोलह वर्ष की अवस्था से पहले ही मोटरसायकिल चलाने को मिल गई। इस मामले में वह अपने बड़े भाई के मुकाबले अधिक असावधान और कम गम्भीर बना हुआ है।
यदि हम तनिक सावधानी से, तनिक ध्यानपूर्वक देखें तो हमें हमारे आस-पास ऐसे पचासों प्रकरण उपलब्ध हो जाएँगे जहाँ छोटी सी बात ने बाड़ा बिगाड़ दिया या फिर जिन्दगी सँवार दी। रत्नावली के एक उपालम्भ ने दुनिया को गोस्वामी तुलसीदास उपलब्ध करा दिया। मूक मादा क्रौंच के क्षणिक विलाप ने एक लुटेरे को वाल्मिकी बना दिया। वृद्ध, रोगी और मृत देह ने एक राजकुमार को गौतम बु़द्ध बना दिया। भार्या की बेवफाई ने राजा को सन्यासी भर्तहरी बना दिया। ये तो नाम मात्र के उल्लेख हैं।
वस्तुतः, पहली बार के स्खलन को जब हम छोटी बात या ‘ऐसा तो होता रहता है’ जैसे जुमले उच्चार कर छोड़ देते हैं तो नहीं जानते कि हम स्खलन को स्वीकार कर उसकी आवृत्ति को प्रोत्साहित कर रहे होते हैं। वह कहानी याद हो आती है जिसमें मृत्यु दण्ड पाने वाला अपराधी अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में में अपनी माँ के कान में कुछ कहने की अनुमति लेता है और कुछ कहने के स्थान पर अपनी माँ का कान काट लेता है। कहता है कि यदि पहली बार चोरी करने पर माँ ने टोका होता तो मृत्यु दण्ड की नौबत नहीं आती।
निष्कर्ष यह कि कोई भी बात छोटी नहीं होती। हर बात अपना व्यापक अर्थ रखती है और उससे भी अधिक व्यापक प्रभाव छोड़ती हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरा लिखा ‘बिना विचारे’ नहीं पढ़ा जाता और न ही यह टिप्पणी लिखने की स्थिति बनती।
यह छोटी बात नहीं है।
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हमारे संकटों में सर्वाधिक व्यवहृत संकट यही है - किसी बात को छोटी मान कर उसकी अनदेखी करना।
ReplyDelete-बहुत सही कह रहे हैं आप. बड़े दिनों बाद दिखे आप? सब ठीक ठाक?
प्रकट भए कृपाला।
ReplyDeleteसत्य वचन, छोटी-छोटी बातों पर ही गौर करके बड़ा बना जा सकता है।
ReplyDeleteगोर्की, बल्कल , तथागत - हम तो इनके बाप-चाचा-ताऊ को प्रणाम करते हैं । क्या चुनिंदा नाम हैं !
ReplyDeleteबहुत दिन बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ बहुत सी पोस्ट पढने से छूट गयी हैं -- कभी पढती हूँ । आज की आपकी पोस्ट विचारनीय है ,मन योग्य है धन्यवाद आशा है आपकी सेहत अब ठीक होगी। शुभकामनायें
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