हम कितनी सहजता से सामनेवाले को असहज कर देते हैं?
सुबह-सुबह वर्माजी का फोन आया। बोले - ‘बहू की तबीयत खराब है। डॉक्टर सुभेदार साहब को दिखाने जा रहा हूँ। अपाइण्टमेण्ट ले लिया है। साढ़े दस बजे का समय दिया है। आप जरा उन्हें फोन कर दीजिएगा कि जरा ध्यान से देखलें और बढ़िया इलाज कर दें।’ मुझे अच्छा नहीं लगा। कहा - ‘वे सबको ध्यान से ही देखते हैं और सबका इलाज बढ़िया ही करते हैं। उन्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।’ वर्माजी ने जवाब दिया - ‘हाँ। यह तो मैं भी जानता हूँ। फिर भी आप एक बार मेरी तसल्ली के लिए कह दीजिए।’ मैंने कहा - ‘जब आप सब जानते हैं तो कहने-कहलवाने की बात क्यों कर रहे हैं?’ वर्माजी बोले - ‘आपका-उनका रोज का मिलना-जुलना है। आपकी बात का असर पड़ेगा।’ मैंने तनिक रूखेपन से कहा - ‘माफ करें। जैसा आप चाहते हैं, वैसा मैं नहीं कह सकूँगा। ऐसा कहना उनकी ईमानदारी पर सन्देह करना होगा।’ वर्माजी नाराज हो गए। बोेले - ‘आपकी दो तोले की जबान हिलाने से हमारा सेर भर फायदा होगा। आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आपकी जेब से कुछ खर्च हो रहा हो!’ मैंने कहा - ‘मेरी जेब से तो कुछ खर्च नहीं हो रहा किन्तु किसी डॉक्टर से कहना कि वह मरीज को ध्यान से देखे और बढ़िया इलाज करे, उसके मुँह पर उसकी बेइज्जती करना है। सरकारी अस्पताल होता तो आप एक बार शंका कर सकते थे। किन्तु आप तो प्रायवेट मे दिखा रहे हैं। आपको उन पर कोई सन्देह भी नहीं है। फिर ऐसी बात करना उनकी बेइज्जती करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। मैं ऐसा नहीं कर सकता।’
वर्माजी को अच्छा नहीं लगा। किन्तु उनकी बात सुनकर मुझे तो उनसे पहले ही अच्छा नहीं लगा था।
दो-एक बार मुझे अनिच्छापूर्वक, संकोचग्रस्त होकर ऐसी (डॉक्टर की अवमानना करनेवाली) अनुचित सिफारिश करनी पड़ी थी। उसका असर यह हुआ कि डॉक्टर साहब ने, पहले से पंक्तिबद्ध मरीजों को छोड़कर, मेरे अनुशंसित मरीज को बुला कर देखा और परामर्श शुल्क भी नहीं लिया। शुल्क न लेनेवाली बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं किन्तु पहले से नम्बर लगाए बैठे मरीजों को बाद में देखना मुझे अपराध बोध से ग्रस्त कर गया। भला उन मरीजों का क्या अपराध था?
लगभग ऐसे ही एक और मामले का गवाह बना था मैं। महाविद्यालय के भौतिक शास्त्र के प्राध्यापकजी के घर बैठा था। उनसे बीमे की बात चल रही थी। एक सज्जन आए। उनका बेटा साथ था। वह इन प्राध्यापकजी का छात्र था। अभिवादन के बाद पिता बोला - ‘सर! आप जरा इस पर विशेष ध्याने देने की महरबानी कर दें।’ मेरे मित्र बोले - ‘यह तो कक्षा मे आता ही नहीं। मैं क्या ध्यान रखूँ?’ पिता बोला - ‘जानता हूँ सर और इसीलिए रिक्वेस्ट कर रहा हूँ। घर से तो कॉलेज के लिए निकलता है। पता नहीं कहाँ घूमता रहता है। आप ध्यान देंगे तो साल बच जाएगा।’ मित्र ने कहा - ‘इससे कहो कि रोज क्लास मे आया करे और वहाँ कोई बात समझ में न आए तो शाम को मेरे घर आ कर पूछ ले।’ पिता बोला - ‘सर! जब कॉलेज ही नहीं आता तो आपके घर क्या आएगा? आप तो इतनी मेहरबानी कर दें कि यह जब भी कॉलेज आए, इस पर विशेष रूप से ध्यान दें। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’ मित्र ने असमर्थता जताई तो पिता मुझसे मुखातिब हो गया - ‘आप ही सिफारिश कर दीजिए न? गरीब का भला हो जाएगा।’ मुझे अजीब लगा। कहा - ‘आप अपने बेटे को न तो कॉलेज भेजने को तैयार हैं और न ही प्रोफेसर साहब के घर पर। भला ऐसे में ये उसका ध्यान विशेष रूप से कैसे रख सकते हैं?’ पिता बोला - ‘भगवान ने आप लोगों को हमारी मदद करने की ताकत दी है और आप लोग मदद नहीं कर रहे हो। भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा।’
कह कर दोनों बाप-बेटे तो चले गए लेकिन हम दोनों उजबक की तरह एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।
हम सोचने की कोशिश ही नहीं करते कि हम कितनी सहजता से सामनेवाले को असहज कर देते हैं।
किसी की सिफारिश यदि अनुचित हो तो यथासंभव बचना चाहिये...मैं यही सिद्धांत अपनाने का यत्न करता हूँ..
ReplyDeleteये बात हर कोई सोचे तो ये दुनिया स्वर्ग बन जाये। बहुधा हम वही काम दूसरों से करवाना चाहते हैं जो शायद हम न करें।
ReplyDeleteसच में भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा।
ReplyDeleteDunia rang rangeeli baba, duniya rang rangeeli.
ReplyDeleteBimawale hain aap,jara-si madad hi to maang r........!
ReplyDeleteभलाई के मायने बदल गये हैं। पुरानी वाली भलाई का जमाना ही नहीं रहा! :-)
ReplyDeleteVery nice...
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