एक पिछड़ा, नासमझ राष्ट्रवादी

मेरी उत्तमार्द्ध ‘बहनजी’ हैं। ‘बहनजी’ याने शिक्षक। रोज सुबह उन्हें स्कूल छोड़ना और शाम को स्कूल से लाना मेरी दिनचर्या का अनिवार्य अंग है।

26 जनवरी को जब मैं उन्हें ले कर लौट रहा था तो बोलीं - ‘जब से इस स्कूल में आई हूँ, हर साल छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को हमारे स्कूल के झण्डे की प्रेस के पैसे नहीं देने पड़े। हम बच्चों से पुछवाते हैं तो वह प्रेसवाला बताता ही नहीं। पैसे लेने से मना कर देता है।’ मैंने उसके बारे में पूछा तो बोलीं कि नाम जानना तो दूर की बात रही, उन्होंने तो उसकी शकल भी नहीं देखी है। सुनकर मुझे अच्छा तो लगा ही, इस्तरी करनेवाले से मिलने की इच्छा भी बलवती हुई। चार दिनों तक लगातार कोशिश की उससे मिलने की किन्तु सफलता कल, पाँचवें दिन, 31 जनवरी की शाम को मिली।

उसे देखकर मेरी कल्पना की मूरत ध्वस्त हो गई। मेरा कम्प्यूटर खराब होने के कारण मैं उसका चित्र यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ। (अब ठीक हो गया है तो फिरोज का चित्र लगा रहा हूँ।) मेरे कस्बे के रोटरी बाल उद्यान के बाहर, ठेले पर, इस्तरी करने की ‘पोर्टेबल’ दुकान चलाता है। सुबह आकर दुकान जमाना और सूरज ढलते-ढलते समेट लेना। पहली ही नजर में मालूम हो जाता है कि उसकी दुकान, नगर निगम की जमीन पर अस्थायी अतिक्रमण है। क्षीणकाय, चेहरे पर कोई उल्लास नहीं, उलझे-बिखरे लम्बे बाल, गालों की हड्डियाँ बाहर निकली हुईं, कोई तीस-पैंतीस बरस के ‘नौजवान’ से मेरा सामना हुआ।

वह अपनी दुकान समेट रहा था। मैंने कहा - ‘यार! तुम अजीब आदमी हो! प्रेस करने के पैसे नहीं लेते? तुम्हारा नाम क्या है?’ जवाब आया - ‘पैसे क्यों नहीं लूँगा? पैसे नहीं लूँगा तो खाऊँगा क्या?’ मैंने कहा - ‘झूठ बोलते हो। चार दिन पहले तुमने झण्डे की प्रेस करने के पैसे नहीं लिए।’ दुकान समेट रहे उसके हाथ रुक गए। आँखों में चमक आ गई। बोला - ‘अरे! वो! आप झण्डे की बात कर रहे हो? अरे क्या सा‘ब! आपने भी क्या बात कर दी? वो तो ‘अपना झण्डा’ है। उसकी प्रेस करने के पैसे कैसे ले सकता हूँ?’

उसका ‘अपना झण्डा’ कहने पर जोर देना मुझे विगलित कर गया।

बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो मालूम हुआ कि दिन भर में 60-70 रुपयों की ग्राहकी हो जाती है। यह रकम गुजारे के लिए कम तो पड़ती है किन्तु वह कोशिश करने के सिवाय और कर ही क्या सकता है? प्रति वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को आसपास के स्कूलों से और विभिन्न संस्थाओं से लगभग बीस-बाईस झण्डे उसके पास प्रेस करने के लिए आते हैं। वह किसी से पैसे नहीं लेता। ‘अपना झण्डा’ जो है! उसकी बातों से मालूम हुआ कि इन दिनों चार रुपये प्रति कपड़े से कम का भाव नहीं है इस्तरी करने का। मैंने हिसाब लगाया, 26 जनवरी और 15 अगस्त को वह अपने दिन भर की ग्राहकी से अधिक की रकम की प्रेस मुफ्त में करता है - ‘अपना झण्डा’ जो है! पहली बार तो उसने अपना नाम नहीं बताया। दूसरी बार पूछा तो लापरवाही से बोला - ‘फिरोज।’

झण्डों की इस्तरी मुफ्त में करने के लिए उससे किसी ने नहीं कहा। ‘अपने झण्डे’ की खिदमत करने की भावना से, अपनी मर्जी से वह यह काम कर रहा है। जब वह यह सब बता रहा था तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था - मुद्राविहीन मुद्रा में बता रहा था यह सब। जी में आया, उससे पूछूँ कि क्या यार फिरोज! पैसे नहीं लेते तो मत लो। कोई बात नहीं। पर अपने इस काम का एक प्रेस नोट तो जारी कर देते। साथ में अपना फोटू भी दे देते तो अच्छा होता। लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हुई। डर लगा। कहीं पलट कर न कह दे - ‘क्या सा’ब! कैसी बातें करते हो? यह तो ‘अपने झण्डे’ का काम है! इसका क्या बखान करना? क्या लोगों को बताना?’

इस ‘पिछड़े और नासमझ राष्ट्रवादी’ पर मुझे गुमान हो आया। उसे तो पता भी नहीं होगा कि वह 'राष्‍ट्रवादी' है। मुझे बरबस ही वे लोग याद आ गए जो अपने राष्ट्रवादी होने का ढिंढोरा पीटने के मौके तलाश करते हैं और न मिले तो पैदा कर लेते हैं। राष्ट्र के नाम पर भारी-भरकम आयोजनों के लिए लोगों से चन्दा एँठते हैं, सचित्र प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करते हैं और अपने ऐसे कारनामों से रौब जमाते हैं। एक यह फिरोज है जो अपने किए की बात भी पूरी-पूरी नहीं बताता!

फिरोज के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर मैंने भरे गले से कहा - ‘भाई फिरोज! मैं तुम्हें सलाम करता हूँ। तुम मुझसे बेहतर आदमी और बेहतर हिन्दुस्तानी हो।’

12 comments:

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    1. इस पोस्‍ट को ब्‍लॉग बुलेटिन में समाहित करने के लिए अन्‍तर्मन से आभार।

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  2. काम का गुणगान में समय व्यर्थ नहीं करना चाहते हैं फिरोज, काश जिन्हे यह सीखना चाहिये, वे भी पढ़ें।

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  3. सलाम फ़िरोज़ भाई और अपने झंडे को !!! जय हिन्द ...

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  4. फ़िरोज़ को सलाम. एक राष्ट्रवादी ये और एक और की बात आपने पहले बतायी थी.

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  5. नैतिकता का आधार व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्वेदनाओं पर आधारित होता है।

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  6. फ़िरोज़ से मिलकर बहुत अच्छा लगा। यदि सम्भव हो तो फ़िरोज़ का और उनके कार्यस्थल का चित्र और उनका सन्क्षिप्त परिचय भी दीजिये।

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    1. फिरोज का चित्र तो लगा दिया है। उसके कार्यस्‍थल का चित्र लगाने का प्रयास करूँगा और उसके बारे में कुछ जानकारी प्रस्‍तुत करने की भी।

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    2. धन्यवाद, कितना अच्छा हो कि इस स्वतंत्रता दिवस पर (या पहले) सभी/कुछ स्कूल (व नागरिक) मिलकर फ़िरोज़ का सम्मान करें और उनके (व उनके स्तर के अन्य कर्मियों के लिये) कुछ वॉलंटरी सेवाकार्य (मसलन उनकी बस्ती में जाकर स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी देना या उनके नाम से एक छात्रवृत्ति चलाना आदि) करें। एक सुझाव मात्र है जिसे विस्तार दिया जा सकता है।

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  7. फिरोज तो बहुतेरे होंगे, लेकिन उन पर न नजर पड़ती, न चर्चा ही होती उनकी.

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  8. फेस बुक पर, श्री स्‍वालेह खान, रतलाम की टिप्‍पणी -

    वाह। इसीलिए तो कहता हूँ - 'विष्‍णु बैरागी....विष्‍णु बैरागी है।'

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  9. Reading the post was quite overwhelming... thanks for sharing your experience...

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