हम लगभग 30-35 एजेण्टों ने मेरी कलवाली पोस्ट काम करने की शर्त का, बड़े ही मनोयोग से सामूहिक वाचन किया और बिना किसी गहन विचार विमर्श के, कर्मचारियों को निम्नानुसार तीन श्रेणियों में विभाजित किया -
पहली श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो ‘काम‘ करते हैं। ये यथा सम्भव समय से पहले ही दफ्तर पहुँचते हैं और दफ्तर का समय हो जाने के बाद भी, देर शाम तक काम करते रहते हैं। इनकी भावना रहती है कि इनकी टेबल पर कल के लिए कोई काम लम्बित नहीं रह जाए। ये कर्मचारी भोजनावकाश में अपनी कुर्सी छोड़ते जरूर हैं किन्तु इन्हें लौटने की उतावली बनी रहती है। भोजन करने के बाद गपियाने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। ये कर्मचारी चाय-पानी के नाम पर भी अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते और जब भी चाय पीनी होती है, अपनी टेबल पर ही मँगवा लेते हैं।
पहली श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो ‘काम‘ करते हैं। ये यथा सम्भव समय से पहले ही दफ्तर पहुँचते हैं और दफ्तर का समय हो जाने के बाद भी, देर शाम तक काम करते रहते हैं। इनकी भावना रहती है कि इनकी टेबल पर कल के लिए कोई काम लम्बित नहीं रह जाए। ये कर्मचारी भोजनावकाश में अपनी कुर्सी छोड़ते जरूर हैं किन्तु इन्हें लौटने की उतावली बनी रहती है। भोजन करने के बाद गपियाने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। ये कर्मचारी चाय-पानी के नाम पर भी अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते और जब भी चाय पीनी होती है, अपनी टेबल पर ही मँगवा लेते हैं।
काम के मामले में ये सदैव ही ‘ओव्हर लोडेड’ रहते हैं किन्तु इन्हें कोई शिकायत नहीं होती। मेनेजमेण्ट को जब भी कोई काम तत्काल ही करवाना होता है, वह काम इन कर्मचारियों को सौंप दिया जाता है। सुखद आश्चर्य यह कि पहले से ही काम से लदे-फँदे ये कर्मचारी, इस तरह अचानक आए काम को भी प्रसन्नतापूर्वक, सर्वोच्च प्राथमिकता पर निपटा देते हैं।
संख्या, प्रतिशत और अनुपात में ये ‘अत्यल्प समुदाय’ के लोग हैं और हम सबने माना कि ऐसे कर्मचारियों के दम पर ही दफ्तर की इज्जत बनती है और बनी रहती है। अच्छी बात यह है कि मेनेजमेण्ट भी इनकी इस भूमिका को यथेष्ठ सम्वेग और गहनता से अनुभव करता है और इनके काम में कोई अड़ंगा पैदा नहीं करता। हम सबने यह भी महसूस किया कि प्रथमतः तो ये कर्मचारी अपने लिए कोई अतिरिक्त ‘फेवर’ चाहते ही नहीं किन्तु यदि कभी ऐसी स्थिति बनी तो मेनेजमेण्ट ने, इनके कहने से पहले ही इन्हें यह ‘फेवर’ दे दिया। किन्तु जो बात हमें सबसे अच्छी लगी वह यह कि उत्तम चरित्रावली और पदोन्नति के मामले में इनमें से किसी के साथ कभी कोई अन्याय नहीं हुआ।
दूसरी श्रेणी के कर्मचारी ‘नौकरी’ करते हैं। ये अपने अधिकारों के प्रति चौबीसों घण्टे सजग रहते हैं। ये समय पर दफ्तर आते हैं (कानूनन जितनी देर से आना अनुमतेय होता है, उतनी देर से ही आते हैं), समय होते ही भोजनावकाश पर चले जाते हैं, भोजन करने के बाद थोड़ी देर गप्प गोष्ठी जमाते हैं और सदैव ही, भोजनवाकाश की निर्धारित समयावधि से दस-पाँच मिनिट देर से ही अपनी कुर्सी पर लौटते हैं। ये लोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक काम करते हैं और पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि कानूनों का पालन करते हुए किस तरह, कम से कम काम किया जाए। ये लोग, चाय-पानी के नाम पर गाहे-ब-गाहे अपनी कुर्सियों से गायब हो जाते हैं। आज का काम कल पर छोड़ने में इन्हें रंचमात्र भी संकोच नहीं होता। ये लोग यह चिन्ता भी नहीं करते कि इनके ऐसे व्यवहार के कारण ग्राहकों को कितनी असुविधा होती है। ये अत्यन्त सहज भाव से, ग्राहकों को ‘अब आज तो मुमकिन नहीं। कल तलाश कर लीजिएगा।’ जैसे जुमलों से ‘टरका देते’ हैं। ग्राहक के चेहरे पर उभरी प्रतिक्रिया इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। दफ्तर का समय होने से बीस-पचीस मिनिट पहले ही ये कर्मचारी अपने कागज-पत्तर समेट लेते हैं और हाथ पर हाथ धरे, घड़ी की ओर ताकते रहते हैं। कानूनी सुविधा का लाभ उठाकर देर से आनेवाले ये कर्मचारी, जाने के मामले में कानून को पूरा सम्मान देते हैं और निर्धारित समय के बाद क्षण भर भी नहीं रुकते।
मेनेजमेण्ट का व्यवहार भी इनके प्रति ‘कानूनी’ ही होता है और इसीलिए दोनों के बीच आए दिनों कोई न कोई खिचखिच चलती रहती है। ये कम से कम काम करना चाहते हैं और मेनेजमेण्ट चाहता है ये लोग, कम से कम काम तो करें। ‘कम से कम’ के, दोनों के अपने-अपने अर्थ हैं।
संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ये ‘मध्यमवर्गीय’ श्रेणी में आते हैं - याने सर्वाधिक। ये सदैव किसी न किसी बात का रोना रोते रहते हैं और अपनी-अपनी यूनीयन के नेताओं की आलोचना करते हुए उनके प्रति अपना असन्तोष जताते रहते हैं। ये किसी की परवाह नहीं करते किन्तु चाहते हैं कि सब इनकी परवाह करें।
तीसरी श्रेणी के कर्मचारी न तो काम करते हैं और न ही नौकरी। इन्हें ‘फुल पे पेंशनर’ कहा जाता है। ये रोज ही, दौड़ते-हाँफते, निर्धारित समय की अन्तिम सीमा वाले क्षणों में दफ्तर पहुँचते हैं। जल्दी से जल्दी अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं और बिना किसी की ओर देखे, बिना किसी की चिन्ता किए, फौरन ही दफ्तर छोड़ देते हैं। किसी को अपनी बच्ची को स्कूल छोड़ना होता है तो किसी को अपनी साली को रिसीव करने के लिए स्टेशन जाना होता है। सुबह-सुबह सब्जियाँ ताजी मिलती हैं इसलिए ऐसे कर्मचारी, हाजरी दर्ज करने के फौरन बाद सब्जी मण्डी चले जाते हैं। यदि ऐसा कुछ न हो तो ये कर्मचारी, फौरन ही दफ्तर के सामनेवाली, चाय की गुमटी पर पहुँच जाते हैं और तीन मिनिटों में पी जा सकनेवाली चाय को बीस मिनिटों में खत्म कर पाते हैं। इन्हें अपनी कुर्सी पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं होती। जैसे-तैसे कुर्सी पर पहुँचते हैं तो पहले ही क्षण परेशान हो जाते हैं कि कहाँ से काम शुरु किया जाए। अनिर्णय की स्थिति से मुक्ति पाने में इन्हें देर नहीं लगती और ये काम शुरु ही नहीं करते। अपनी कुर्सी इन्हें काटती है। सो, ये (अपने जैसे ही) दूसरे कर्मचारी के पास चले जाते हैं। इन्हें अपने दफ्तर की इज्जत की बड़ी चिन्ता रहती है इसलिए अपना काम छोड़कर दूसरों को नसीहत देते रहते हैं।
इनके लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं होती। जब चाहे, चले जाते हैं और तभी आते हैं जब या तो मजबूरी में आना पड़ता है या फिर इसलिए कि कल फिर आ सकें। इन दिनों, कम्प्यूटर पर हाजरी दर्ज कराने की व्यवस्था हो गई है। तीसरी श्रेणी के ये कर्मचारी, एक दूसरे की भरपूर चिन्ता और सहायता करते हैं और ‘अपने जैसे’ किसी का सन्देश मिलते ही, उसकी हाजरी भी कम्प्यूटर पर दर्ज कर देते हैं।
ईश्वर की असीम कृपा है कि संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ऐसे लोग ‘अल्पतम समुदाय’ में होते हैं किन्तु चर्चा इन्हीं की (याने, इनके निकम्मेन की) होती है और इतनी और इस कदर होती है मानो सारे के सारे कर्मचारी ऐसे ही हैं। ये ईश्वर से लेकर, सड़क पर आ-जा रहे, अनजान लोगों तक से नाराज रहते हैं। इन्हें लगता है कि सारी दुनिया ने इनके विरुद्ध षड़यन्त्र रच लिया है जिसके चलते इन्हें न तो पदोन्नति मिल रही है न ही इनकी पूछ-परख हो रही है। अच्छी बात यह भी है कि मेनेजमेण्ट इनकी रग-रग से वाकिफ होता है। यह अलग बात है कि मेनेजमेण्ट चाहकर भी इनके विरुद्ध खुलकर कुछ नहीं कर पाता (कर्मचारी यूनियनें अपने कामचोर सदस्यों को बचाने में भी पूरी-पूरी ईमानदारी जो बरतती हैं!) किन्तु वार्षिक गोपनीय चरित्रावली लिखते समय इनका पूरा-पूरा ध्यान रखता है। इसी कारण, ये तो जहाँ के तहाँ बने रह जाते हैं जबकि इनके साथ नौकरी में आनेवाले लोग, उपरोल्लेखित प्रथम श्रेणी के कर्मचारी बनकर, दो-दो, तीन-तीन पदोन्नतियाँ लेकर, कभी-कभी इनके नियन्त्रक की स्थिति में आ चुके होते हैं।
ऐसे लोगों के भरोसे दफ्तर का कोई काम नहीं छोड़ा जाता। हम एजेण्टों ने तेजी से अनुभव किया इन्हें प्रायः वही काम दिया जाता है जिसके न करने में इनका भी नुकसान होने की आशंका हो।
अच्छी बात यह भी कि ऐसे कर्मचारी, लोगों की नजरों में अपनी छवि के बारे में भली प्रकार जानते हैं
इसलिए, किसी के कुछ कहने की परवाह बिलकुल ही नहीं करते। (परवाह करने लगें तो खुद को बदल न लें?) उलटे कुछ इस तरह हरकत करते हैं मानो अपने कपड़ों पर से धूल झटक कर कह रहे हों - ‘शरम तो आनी-जानी है, बन्दा ढीढ होना चाहिए।’
कोई सवा घण्टे की अपनी इस मशक्कत के निष्कर्षों पर हम सबने जब पुनर्विचार किया तो पाया कि हम सबके सब एक मत थे - अपने इन निष्कर्षों को न बदलने के लिए।
विष्णु जी, मेरी नज़र में सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य वही होते हैं जिनमें सच के अलावा कुछ न हो, न रंचमात्र अतिश्योक्ति और न ही दाल में नमक के बराबर कड़वाहट, मगर मज़ा भरपूर हो। यह प्रविष्टि ऐसे ही उत्तम व्यंग्य आलेखों में से एक है। सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरी के दौरान मेरा एक अवलोकन था कि पहले वर्ग के कर्मचारी बाकी दोनों वर्गों को ससम्मान अपने साथ चलाते (और घसीटते व धकियाते) हैं। मगर पूरे विभाग की गति अक्सर उतनी ही होती है जितनी तीसरे वर्ग की जब तक कि उन्हें पूरी तरह अदृश्य न मान लिया जाये। तीसरी श्रेणी में वे भी हैं जिनके दफ़्तर आने का एकमेव उद्देश्य दफ़्तर के फ़ोन से लेकर एसी तक का सदुपयोग करके वहाँ से अपना निजी उद्योग चलाना होता है और यह उद्योग शेयर ब्रोकर, महाजनी, वसूली आदि से लेकर लघु उद्योग तक कुछ भी हो सकता है। आजकल शायद इनमें से कुछ लोग दफ़्तर के समय में कमाई या व्यक्तिगत विकास के उद्देश्य से ब्लॉगिंग भी कर रहे होंगे।
ReplyDeleteसंतुलित लेकिन पैनी नजर.
ReplyDeleteसार्वजनिक क्षेत्र के दफ्तरों की यही स्थिति है. आपने स्वयं के अनुभव के आधार पर हम भी सहमत हैं.
ReplyDeleteBEAUTIFUL BALANCED AND DEFINED CATAGORY WITH THEIR SPECIFIC CHARACTERSTICS.
ReplyDeleteएकदम सही और सटीक आंकलन...
ReplyDeleteऐसा लगा जैसे किसी कंसल्टिंग रिपोर्ट को व्यंगकार ने लिखा है. अगर मैं इसे छापूंगा तो शीर्षक दूंगा "Workforce Analysis: Smile Please". एक दम सही आंकलन, मैनेजमेंट की भाषा में इसे पैरीटो सिद्धांत (Pareto Principle) कहा जाता है, इसके अनुसार 'जीवन की/में अधिकांश चीज़े (कार्य, पुरस्कार, उत्पादकता) सामान भाव नहीं बँटी हैं - कुछ का प्रभाव दूसरी चीजों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है' | इसे कुछ ऐसे समझे;
ReplyDelete- २०% कर्मचारी से ८०% परिणाम प्राप्त होते हैं.
- २०% ग्राहकों से ८०% आय प्राप्त होती है
- २०% तकनिकी खराबियो के कारण ८०% बार मशीन खराब होती है
- २०% खूबियों के कारण ८०% इस्तेमाल होता है
यहाँ २०% और ८०% सांकेतिक है और इसका ये मतलब कतई नहीं है की २०%+८०%=१००%, ये २० कभी ३०, ४० और ५० भी हो सकता है और ८० कभी ९० या १०० भी हो सकता है.
चार साल पहले एक किताब पढ़ी थी जिसमे लेखक ने समझाया था की हमारे ८०% फ़िज़ूल खर्ची का कारण २०% आदते होती है. उनमे से एक आदत क्रेडिट कार्ड का उपयोग भी थी, लेखक ने लिखा था की 'अपने क्रेडिट कार्ड को काट कर फेंक दीजिये'. हिम्मत करके मैंने अपने तीनो क्रेडिट कार्ड काट कर, जी हाँ काट कर फेक दिए, और तब से ले कर आज तक मेरे पास क्रेडिट कार्ड नहीं है, केवल डेबिट कार्ड है. दो बहुत बड़े फायदे हुवें हैं; पहला, महीने के आखरी दिनों में दोस्तों से उधार बंद हुवा और दूसरा, बजट के अनुसार खर्च की आदत पड़ी.
एक और जगह इस नियम को आप देख सकते हैं, जीवन की ८०% खुशियाँ केवल २०% कारणों से होती हैं, या फिर अगर आपका दिन बहुत अच्छा गया हो, जिसे आप कह सके की ८०% दिन काफी अच्छा गया तो पाएंगे की ऐसा दिन भर में घटित हुई केवल २०% घटनाओ के कारण हुवा.
बहुत-बहुत धन्यवाद वल्कल। तुमने मेरी एक तलाश खत्म कर दी। मैं इस नियम के नाम की तलाश में था।
Deleteपता नहीं पर पहली श्रेणी में आ सकते हैं हम, बैल की तरह लगे हुये।
ReplyDeleteतीक्ष्ण अवलोकन!!
ReplyDeleteसही वर्णन ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !