इस अनुभव को कौन से विशेषण से सजाऊँ? संज्ञाओं के कौन से वर्ग में इसे रखूँ? इसे सच की शक्ति कहूँ या सच की निर्ममता? आत्मा की अनवरत चैतन्यता के इस साक्षात्कार को कैसे और कहाँ सहेजकर रखूँ? सब कुछ इतना अनपेक्षित और अकस्मात हुआ कि न तो इसका ‘अथ‘ पकड़ पा रहा हूँ और न ही ‘इति‘ खोज पा रहा हूँ। ऐसे में, अच्छा यही होगा कि सब कुछ, ‘जस का तस’ परोस दूँ - खुद को पूरी तरह से दूर रख कर।
यह गए सप्ताह की बात है। वे बिना पूर्व सूचना दिए आए और बिना किसी भूमिका के बोले - ‘आपको फुरसत हो न हो, मेरी बात सुन लीजिए। पता नहीं मुझे कितनी देर लगेगी किन्तु अपनी बात कह कर फौरन ही चला जाऊँगा। बिलकुल वैसे ही, जैसे कि अचानक ही आया हूँ।’ मैं उनसे कुछ पूछता-कहता, उससे पहले ही वे शुरु हो गए। अब सब कुछ, लगभग उन्हीं के शब्दों में -
‘‘इस 31 मार्च को मैं रिटायर हो रहा हूँ। छब्बीस बरस की उम्र में मेरी नौकरी लगी थी। चौंतीस बरस हो गए, नौकरी लगने के पहले ही दिन से मैं अपनी आत्मा पर यह बोझ ढो रहा हूँ। पता नहीं क्यों, गए कुछ दिनों से मेरा जीना हराम हो गया है। न नींद आती है न रोटी गले उतरती है। सब इसे मेरे रिटायरमेण्ट का प्रभाव समझ रहे हैं। समझ रहे हैं कि मैं रिटायरमेण्ट के बाद होनेवाली अपनी दशा की कल्पना से परेशान हूँ। लेकिन बात कुछ और ही है। अब मुझसे सहा नहीं जा रहा। साँसें घुटी-घुटी लगती हैं। छाती में समाती नहीं। लगता है, मेरी छाती अचानक ही फट जाएगी। पता नहीं, मौत कब आएगी। किन्तु गए कुछ दिनों से तो मैं पल-पल मर रहा हूँ।
‘‘नौकरी लगने के एक दिन पहले ही मुझे बताया गया कि मुझे मेरी योग्यता और पात्रता से यह नौकरी नहीं मिली थी। मामा ने जुगत भिड़ा कर मुझे नौकरी दिलवाई थी। यह किस्सा मामा ने ही सुनाया तब मुझे सारी बात मालूम हुई।
‘‘नौकरी के उम्मीदवारों को एक लिखित परीक्षा देनी थी। मैं परीक्षा देने गया तो देखा कि उम्मीदवारों पर नजर रखने के लिए जिन लोगों की ड्यूटी लगी थी, उनमें मामा भी शामिल हैं। आपको पता ही है कि मामा भी इसी विभाग में थे। उन्हें देख कर मुझे अच्छा लगा क्योंकि पढ़ाई के मामले में मैं शुरु से एकदम मामूली स्तर का विद्यार्थी था। मुझे अपने पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी। मैं नकल की तैयारी करके गया था। मामा को देखकर लगा कि भगवान ने मेरी सुन ली। अब मैं आराम से नकल कर सकूँगा।‘‘परीक्षा शुरु हुई। एक-दो सवाल ऐसे थे जिनके जवाब मुझे कुछ-कुछ आते थे। सोचा, पहले वे ही लिख लूँ। नकल सामग्री का उपयोग बाद में कर लूँगा। लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। पन्द्रह-बीस मिनिटों के बाद ही, निरीक्षण करते हुए, मामा मेरे पास आकर रुक गए और कड़ी नजरों से मुझे देखते हुए बोले - ‘यह क्या कर रहे हो? हमें बेवकूफ समझते हो? समझते हो कि हमें कुछ नजर नहीं आ रहा? चलो! खड़े हो जाओ!’ कह कर मामा ने मेरी उत्तर पुस्तिका झपट ली। मुझे चक्कर आ गए। कहाँ तो मैं मस्ती से नकल करने की सोच रहा था और कहाँ मेरे ही मामा ने मुझे पकड़ लिया? वह भी तब जबकि मैं नकल कर ही नहीं रहा था! मुझे कँपकँपी छूट गई और मैं रोने लगा। लेकिन मामा जरा भी नहीं पसीजे। मेरी उत्तर पुस्तिका लिए मामा आगे-आगे और उनके पीछे-पीछे रोता हुआ मैं।
‘‘हम दोनों कमरे से बाहर आए। एकदम कोनेवाले कमरे के बाहर जा कर मामा रुके और उत्तर पुस्तिका मेरे हाथ में देकर बोले - ‘रोना बन्द कर गधे! जा। चुपचाप अन्दर जा। अन्दर ओमजी बैठे हैं। वे तुझे सारे जवाब लिखवा देंगे।’ मैं मानो आसमान से गिरा। मुझे कुछ सूझ पड़ती, तब तक मामा जा चुके थे। मैं हाथ में उत्तर पुस्तिका लिए, मूर्खों की तरह बरामदे में खड़ा था। ओमजी तेजी से बाहर आए और मुझे पकड़ कर अन्दर ले गए। इसके बाद क्या हुआ, यह कहने की जरूरत नहीं। बस, लोग समझे कि मुझे नकल करते हुए निकाल दिया गया है जबकि सौ टका सही उत्तरोंवाली मेरी कॉपी सबसे पहले जमा करा दी गई थी।
‘‘कुछ दिनों बाद परीक्षा का रिजल्ट आया। मुझे पास होना ही था। मैं पास हो गया। उसके कुछ दिनों बाद डाक से मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया। मैंने मामा को दिखाया तो मामा बोले - ‘कोई जाने न जाने, तू, मैं, ओमजी और भगवान जानता है कि तुझे यह नौकरी पात्रता और योग्यता से नहीं, भाग्य से मिली है। तेरे कमरे में अपनी ड्यूटी मैंने ही लगवाई थी। किसी और के हक पर डाका डाल कर तुझे नौकरी मिली है। पाप तो मैंने ही किया है। भगवान मुझे सजा देगा ही। पता नहीं वह कौन सी सजा देगा और किस रूप में देगा। किन्तु देगा जरूर और मुझे भुगतनी ही पड़ेगी। लेकिन तू दो बातें याद रखना। एक तो यह कि तुझे जितनी आसानी से यह नौकरी मिली है, इसे निभाना उससे हजार गुना मुश्किल होगा। निभाने की योग्यता, क्षमता और पात्रता तुझे ही हासिल करनी पड़ेगी। और दूसरी बात यह कि इस बेईमानी का प्रायश्चित तुझे पूरे सेवाकाल में करते रहना पड़ेगा। यह प्रायश्चित कैसे किया जाए, यह तू ही तय करना।’
‘‘मैं उछलता हुआ मामा के पास गया था और बुझे मन से लौटा। कहाँ तो शाबाशी की उम्मीद थी और कहाँ लम्बा-चौड़ा उपदेश लेकर लौटा। मामा पर गुस्सा आने लगा और रोना भी। मुझे लगा, मामा ने जानबूझकर मुझे बेइज्जत कर दिया है। यही सब करना था तो मुझे नौकरी दिलाई ही क्यों?
‘‘घर आया। मेरी नौकरी लग जाने से घर के सब लोग खुश थे किन्तु मैं खुश होने का नाटक भी नहीं कर पा रहा था। अगली सुबह मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी और मैं उदासियों से और मामा के प्रति गुस्से घिरा था।‘‘रात को देर तक नींद नहीं आई। विचारों का झंझावात आया हुआ था। गुस्सा धीरे-धीरे कम होने लगा। मन शान्त हुआ तो मामा की बातें फिर से कानों में गूँजने लगीं। विचार आया - मामा ने गलत क्या कहा? वे तो खुद को भी गुनहगार और पापी मान रहे हैं? अपने गुनाह की सजा भुगतने के लिए खुद को तैयार किए बैठे हैं। मैं तो उनसे बेहतर स्थिति में हूँ। मुझे तो पहले ही दिन से प्रायश्चित करने का अवसर मिल रहा है!
‘‘और बैरागीजी! उस रात, एक क्षण में ही मानो मेरा काया पलट हो गया। ईश्वर मुझ पर महरबान हो गया। मैंने नौकरी को साधा और इतने बढ़िया ढंग से साधा कि हर कोई दंग रह गया। मैंने कायदे-कानूनों की, काम की प्रक्रिया की, फाइल बनाने और उसे चलाने की, नोट शीट लिखने की, किस काम को पहले निपटाना इस बात की, याने सारी बातों की जानकारी लेने में खुद को खपा दिया। हालत यह हो गई कि जब भी कोई फाइल उलझती, मेरी राय ली जाती। मेरे सेक्शन ऑफिसर मुझसे सलाह लेते। शुरु के चार-पाँच सालों को छोड़कर बाकी पूरे सर्विस पीरीयड में मेरी सी. आर. हमेशा ‘आउटस्टैण्डिंग’ ही रही। मुझे मेरे सारे प्रमोशन तयशुदा वक्त पर मिले। विभागीय स्तर पर हुए मेरे पाँच-सात सम्मान समारोहों में तो आप भी शरीक हुए हैं। लेन-देन के मामले में मैंने पहले ही दिन कसम खा ली थी - भूखों मर जाऊँगा पर रिश्वत नहीं लूँगा। नहीं ली। कभी, किसी की फाइल, मिनिट भर भी नहीं रोकी। सूखी तनख्वाह में मेरी सारी जरूरतें पूरी हुईं। बेटा बी. ई., एम.बी. ए. कर अच्छी नौकरी कर रहा है। बेटी की शादी में तो आप शरीक हुए ही थे। माया नहीं कमाई किन्तु सद्भावनाएँ अटूट मिलीं। किसी गरीब की हाय नहीं ली और जबरे की नाराजी नहीं झेली। आज मुझे कोई कमी नहीं है। सब रामजी राजी है।
‘‘लेकिन किसी का हक मारकर नौकरी हासिल करने की फाँस आज तक कलेजे में गड़ी हुई है। एक मामा और दूसरे ओमजी, ये दो लोग इस बात को जानते थे। आज दोनों ही नहीं हैं। लेकिन सोते-जागते लगता है, कोई दो आँखें हैं जो बिना पलकें झपकाए मुझे देख रही हैं। देखती ही जा रही हैं। पता नहीं ये आँखें भगवान की हैं या उसकी जिसके हक की नौकरी मुझे मिली। यह हकीकत, ये आँखें अब मुझसे नहीं झेली जा रहीं। आठ-दस दिनों बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा। तब अकेलापन और बढ़ जाएगा। तब, इन आँखों की ताब झेलना, इस फाँस की कसक को सह पाना मेरे लिए और मुश्किल हो जाएगा। सोचा, किसी के सामने सब कुछ कबूल कर लूँ तो शायद थोड़ी राहत मिल जाए। इसलिए आपके पास आया। भगवान आपका भला करे कि आपने मेरी बात शान्ति से सुन ली। मैं हलका हो गया। मेरे इस कबूलनामे का आपको जो करना हो कर लें। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।’’
और, अपनी सुना कर वे सचमुच में फौरन ही चले गए। नहीं जानता वे मुक्त हुए या नहीं किन्तु वे मुझे बिंधा हुआ छोड़ गए हैं।
मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इसे आपने आत्मा की अनवरत चैतन्यता से साक्षात्कार क्यों कहा है?
ReplyDeleteआत्मा और चैतन्यता ये दोनों शब्द बहुत उलझाने वाले हैं। दोनों की इतनी व्याख्याएँ हैं कि जो भी इन दोनों को समझने की कोशिश करता है उलझ कर रह जाता है।
मुझे तो इस कथा में व्यवस्था का विद्रूप दिखाई देता है जिस में दो ईमानदार और योग्य व्यक्तियों को एक का जीवन चलाने का ठीक ठाक जुगाड़ करने के लिए एक छल करना पड़ता है। वह जीवन भर उस के पश्चाताप के बोझ तले दब कर जीता रहता है। अंत में उस बोझ को सहन न कर पाने के कारण एक व्यक्ति के पास जा कर आत्मस्वीकृति के माध्यम से बोझ को उतारने की कोशिश करते हैं।
यह अमानवीय व्यवस्था जिस में उन जैसे व्यक्तियों को ऐसा करना पड़ता है, और अधिक नंगी हो कर सामने आ रही है। जब तक मनुष्य जाति इस विद्रूपता से निजात पाने का मार्ग तलाश नहीं लेती और निजात नहीं पा लेती तब तक इस तरह का बोझिल जीवन चलता रहेगा।
दो आँखें तो हर किसी को हर वक्त देखती रहती हैं... पर चंद लोग हैं जो उन दो आँखों की उपस्थिति महसूस कर पाते हैं... तीन साल पहले कुछ इसी तरह का संकल्प मन ही मन लिया था। आज तक आफिस मे हाशिये पर हूँ क्योंकि मै भ्रष्टाचार के बहुमत मे अल्पसंख्यक हूँ। विष्णु जी आपके लेख पढ़ कर मुझे बहुत शक्ति भी मिली है और आत्म संतोष भी। सच के साथ जीना कठिन तो है परंतु असंभव नहीं।
ReplyDeleteव्यवस्था में ठीक ठाक जुगाड़ का मार्ग ईमानदार व्यक्तियों के जीवन को बोझिल करता है .और निजात नहीं मिलती .अच्छी पोस्ट
ReplyDeleteजिस मनोयोग से इन सज्जन नें अपना उत्तरदायित्व निभाया, और पुरी तरह कर्मठता से नोकरी की, 'योग्यता' और क्या होती होगी। प्रायश्चित के बाद भी यह अपराधबोध निर्थक है। निर्मल आत्माओं को ही नैतिकता से जरा सी फिसलन ता-उम्र सालती है।
ReplyDeleteभले मामा, ओमजी और इन्हें शोषक और किसी अनजान वंचित को शोषित कहलें पर घटनाओं को इसी तरह घट जाना था, कहानी का दूसरा अज्ञात पहलू यह भी हो सकता है कि इनकी जगह जो व्यक्ति नौकरी से वंचित रहा, नौकरी न पाने की कठिन परिस्थिति को समझ अपनी योग्यता से स्व-व्यवसाय में रत हुआ हो और आज सफल व्यवसायी हो। और अपनी सफलता का श्रेय उस रिजेक्शन को दे रहा हो।
अपनी अनैतिक चुक के कारण हमेशा सजग रहना आत्मा की अनवरत चैतन्यता ही है। जागृत आत्मा ही यह पुरुषार्थ कर पाती है।
अब तक ३६ वर्ष पुरानी फाँस को निकाल देना चाहिये, एक घटना पूरे जीवन का अवमूल्यन नहीं कर सकती।
ReplyDelete@मेरे इस कबूलनामे का आपको जो करना हो कर लें। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
ReplyDeleteचलिये, जो हुआ अच्छा हुआ। अब बीती को बिसार के आगे की सुध ली जाय.
ई-मेल से प्राप्त, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteविष्णुजी, ऐसे कम लोग हैं जो अपराध बोध से ग्रसित होकर जीवन को सही दिशा मैं मोड़ देते है। इन सज्जन ने कोई बड़ा पाप नहीं किया है। ये सज्जन उन आय.ए.एस. और आय.पी.एस. से अच्छे हैं जिनके यहॉं नोट गिनने की मशीनें मिली हैं और नकली स्टाम्प प्रकरण मैं लिप्त पाए गए हैं।