क्षमा-याचना करने और खेद प्रकट करने की सम्भावना तो वहीं होती है मनुष्य-हृदय हो, जहाँ झेंप, अपराध-बोध और शर्मिन्दगी जैसे भाव मन में आएँ। भारत संचार निगम लिमिटेड का अमला मुझे, ऐसी तमाम बातों से ऊपर उठ गया लग रहा है।
29 फरवरी की सुबह-सुबह पड़ौस से भैया साहब (श्रीयुत् सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) का फोन आया। पूछ रहे थे कि नवीन भाई ने उनके फोन के बिल की रकम जमा कराई या नहीं। नवीन भाई मेरे व्यवसाय में और घर के असंख्य कामों में मेरी मदद करते हैं। सच तो यह है कि मुझे मदद करने की हामी भरकर बेचारे फँस गए हैं। या तो गए जनम का कोई कर्जा चुका रहे हैं या फिर अगले जनम के लिए मुझे कर्जदार बना रहे हैं। बड़े निष्ठावान, विश्वस्त, चाक-चौबन्द और चुस्त आदमी हैं और सम्पूर्ण समर्पण भाव से काम करते हैं। सो, नवीन भाई से पूछे बिना ही कह दिया कि निश्चिन्त रहें, उन्होंने (नवीन भाई ने) फोन बिल की रकम जमा करा दी है। चूँकि भैया साहब घर के फोन से ही बोल रहे थे सो जिज्ञासा हुई। पूछा कि वे पूछताछ क्यों कर रहे हैं। भैया साहब ने बताया कि उनके बिल की रकम जमा न करने के नाम पर, उनके फोन पर सुबह से ‘जावक’ (फोन करने की) सुविधा समाप्त कर दी गई है। केवल ‘आवक’ सुविधा बनी हुई है।
नवीन भाई ने 21 फरवरी को ही बिल जमा करा दिया था और रसीद तथा मूल बिल मेरी टेबल पर ही रखा हुआ था। साढ़े दस बजते-बजते, गुड्डु (अक्षय छाजेड़) ने बिल और रसीद उठाई और भा. सं. नि. लि. के कार्यालय पहुँच कर, फोन चालू करने की माँग तो की ही, यह भी जानना चाहा कि रकम जमा कराने के नौवें दिन यह कार्रवाई क्यों और कैसे हुई? जवाब और जवाब देने के तरीके के कारण ही मैं यह सब लिख रहा हूँ।
कर्मचारी ने गुड्डु को कुछ इस तह देखा कि ‘सुबह-सुबह यह कौन सा सरदर्द आ गया।’ उसने बताया कि बिल की रकम डाक घर में जमा हुई किन्तु डाक घर से समय पर सूचना नहीं मिली। इस कारण रकम समयोजित नहीं हो पाई और ‘चूँकि सारा काम कम्प्यूटर से होता है’ इसलिए, फोन पर आवक सुविधा बन्द करने की यह कार्रवाई अपने आप ही हो गई। कर्मचारी ने जवाब इतनी भावहीनता, असम्वेदनशीलता और लापरवाही से दिया कि मशीन भी शरमा जाए। मानो कोई अपराध कर लिया हो, कुछ इसी मनोदशा में गुड्डु लौट आया। बची-खुची कसर इस तरह पूरी हुई कि कर्मचारी के ‘आपका फोन अभी चालू होता है’ के वादे के बाद भी फोन पर ‘जावक’ सुविधा देर शाम तक उपलब्ध हो पाई।
फोन बिल डाक घर में जमा कराने की व्यवस्था भा. सं. नि. लि. ने की है। इस काम के लिए डाक विभाग को प्रति बिल के मान से भा. सं. नि. लि. से पारिश्रमिक मिलता है। बिल की रकम लेने और रकम जमा हो जाने की सूचना देने का जिम्मा डाक घर का है। यदि समय पर जानकारी नहीं आए तो भा. सं. नि. लि. की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी ओर से पूछे। डाक विभाग ‘वितरण’ (डिलीवरी) के लिए और भा. सं. नि. लि. ‘सम्प्रेषण (कम्यूनीकेशन) के लिए पहचाने जाते हैं। लेकिन अपने-अपने काम में दोनों ही विफल रहे। दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और असुविधा झेलनी पड़ी उपभोक्ता को। (कोई ताज्जुब नहीं कि भैया साहब जैसे लोगों की संख्या अच्छी-खासी हो!) इसके लिए न तो डाक घर में किसी को फर्क पड़ा और न ही भा. सं. नि. लि. के कार्यालय में किसी को। होना तो यह चाहिए था कि कर्मचारी इस कार्रवाई के लिए खेद प्रकट करता, गुड्डु से क्षमा याचना करता और गुड्डु को प्रेमपूर्वक बैठा कर तभी बिदा करता जबकि गुड्डु की शिकायत दूर हो जाती। किन्तु हुआ इसके बिलकुल विपरीत। इस तरह बात की गई मानो ‘आपने फोन लगवाया है तो आप ही भुगतो।’ गुड्डु आहत और लगभग अपमानित दशा में ही लौटा। लौटते-लौटते उसने देखा, अपनी-अपनी रसीदें लिए अनेवालों की संख्या बढ़ने लगी थी।
यह कैसी स्थिति है? प्रोन्नत तकनीक और ऐसे ही उपकरण हमने इसलिए अपनाए हैं कि हमें, निर्दोष होने की सीमा तक की श्रेष्ठ सेवाएँ मिलें। किन्तु स्थिति यह हो गई है कि उपकरण हमारे लिए नहीं, हम उपकरण के लिए बन कर रह गए हैं। इस सीमा तक कि मानो हम भी निर्जीव-निष्प्राण उपकरण ही बन गए हैं। डाक घर ने अपना काम समय पर किया है या नहीं, यह देखने के लिए तो किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं। किन्तु हम क्यों सोचें? जानकारी हमें जब भेजनी होगी, भेजेंगे। या, जानकारी जब आएगी तब अगला काम कर लेंगे। अपनी नौकरी और तनख्वाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना। रोएगा तो ग्राहक। रोने दो। जब अपने पास आएगा, तब की तब देखेंगे। जो करना होगा, कर देंगे। रही बात उपकरणों के रख-रखाव और देख-भाल की, तो उनकी (उपकरणों की) ओर हम तभी देखेंगे जब वे काम करना बन्द कर देंगे या कोई समस्या उत्पन्न कर देंगे।
क्या हो गया है हमें? हमारी आत्मा तो नहीं मर गई? जो उपभोक्ता हमारा वेतन जुटाते हैं, जिनके लिए हमें बैठाया गया है, उन्हीं उपभोक्ताओं की, उनकी पीड़ा की, उनकी भावनाओं की चिन्ता करने का भाव, क्षणांश को भी हमारे मन में क्यों नहीं उपजता? विनम्रता, सदाशयता और सौजन्य बरतने के हमारे संस्कार कहाँ चले गए?
मुझे घबराहट हो रही है। केवल ये बातें सोच-सोच कर ही नहीं। इसलिए भी कि आज (5 मार्च) सुबह मुझे भी फोन पर टेपांकित सन्देश मिला है कि मैं मेरे फोन बिल की रकम जमा कराने की तारीख निकल चुकी है और मैंने रकम जमा नहीं की है सो रकम जमा करा दूँ।
मैं अपने कागजों में रकम जमा कराने की रसीद टटोल रहा हूँ।
नवीन भाई ने मेरे बिल की रकम भी 21 फरवरी को ही जमा कर दी थी।
Bhaiji! taknik badli hai,karnewale thode hi badle hain; we to we hi hain kal aane ka kahnewale.
ReplyDeleteek-doosre par dosharopan kar bach nikalana puraani aadat banee hui hai sabkee.
ReplyDeleteदूसरों के दुखों के बारे में इतनी ही संवेदना आ जाती तो क्या बात थी..
ReplyDeleteमशीनी कारोबार में संवेदना की तलाश ?
ReplyDeleteइन निकम्मों का क्या किया जाय, यह एक राष्ट्रव्यापी समस्या है। किसी वयस्थ की पेंशन खाते में जमा नहीं होती किसी कर्मचारी का इंक्रीमेंट महीनों से नहीं लग रहा है, किसी का बिजली का बिल वास्तविक उपयोग का 20 गुणा आ रहा है लेकिन मेज़ के उस तरफ़ बैठे हुए लोग बस अपनी तनख्वाह लेकर ही प्रसन्न हैं। आम आदमी कहाँ तक लड़े, बेचारा रोज़ एक अन्ना या रामदेव में आशा ढूंढता है।
ReplyDelete