महिला संगीत

वे अपने बेटे के विवाह का न्यौता दे कर अभी-अभी गए हैं। पूरे पाँच दिनों का आयोजन है। आमन्त्रित तो सब में कर गए हैं किन्तु ‘ध्यान रखिएगा! महिला संगीत और रिसेप्शन में तो आपको आना ही आना है’ का आग्रह विशेष रूप से कर गए हैं।

यह जानते हुए भी कि मेरे छोटे बेटे का विवाह अभी बाकी है - मैं लोगों के यहाँ नहीं जाऊँगा तो मेरे यहाँ कौन आएगा? और यह भी कि बीमा एजेण्ट का व्यवहार काफी व्यापक होता है, अब ऐसे आयोजनों से अरुचि होने लगी है। खान-पान से अलग हटकर कुछ आदतें ऐसी होती जा रही हैं कि जी करता है, घर पर ही रहा जाए और यदि जाना ही है तो घर से भोजन करके ही जाया जाए ताकि ‘वहाँ से’ जल्दी से जल्दी घर आया जा सके। एक वक्त था कि ऐसे आयोजनों में लोगों से मिलने-जुलने का या/और सम्पर्कों के नवीकरण का मोह हुआ करता था। किन्तु अब वह भी नहीं रहा। सबके सब वे ही जाने-पहचाने, परिचित, मिलनेवाले। लगता है, एक ठहराव सा आ गया है। भीड़-भड़क्के से, शोर-शराबे से अब चिढ़ आने लगी है। भोजन के दौरान, चिंघाड़ती, कानों के पर्दे फाड़ती, संगीत व्यवस्था सारा रस भंग ही नहीं करती, विकर्षण भी पैदा करती है। चाह कर भी किसी से बात नहीं कर सकते। सर्वाधिक घबराहट होती है - महिला संगीत से।

अपने, बीसियों बार के अनुभवों के आधार पर, विश्वासपूर्वक कह रहा हूँ यह ऐसा भोंडा, अभद्र, अत्यधिक खर्चीला प्रदर्शन बन कर रह गया है जिसे कोई भी पसन्द नहीं करता किन्तु सबके सब इसे किए जा रहे हैं। ‘आवश्यक बुराई’ बन चुका यह आयोजन प्रायः ‘ क्या करें? बच्चे नहीं मानते’ जैसे तर्क के दम पर बना हुआ है। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाँई’ की तर्ज पर, क्षमतावान इसे आँखें मूँद कर किए जाते हैं जबकि गरीब का मरण हो जाता है। मैंने ऐसे-ऐसे ‘महिला संगीत’ देखे हैं जिनमें, विवाह आयोजन का आधा बजट खपा दिया गया। गरीब, मध्यमवर्गीय परिवारों के दो-दो ब्याह इस खर्चे में हो जाएँ।

महिला संगीत के औचित्य को जब-जब भी समझने की कोशिश करता हूँ, तब-तब, हर बार विस्मित होता हूँ और गहरी हताशा से भर जाता हूँ। लगने लगता है कि परम्परा के नाम पर हमने अपनी आत्मा को, अपने विवेक को ही मार दिया है।

शादी-ब्याह के प्रसंग पर गली-मुहल्ले की महिलाएँ, किशोरियाँ, बच्चियाँ शाम को एकत्र हो, गणपति उगेर कर बन्ना-बन्नी गाती थीं। कभी ‘बनी खड़ी पेड़ के नीचे, अरज दादाजी से करती है - दादाजी मेरी मत करो शादी, उमर बारा बरस की है’ तो कभी ‘बना सा आपको मण्डप बण्यो भारी’ तो कभी ‘सड़क पर केसर की क्यारी, नवल बना सा की चली सवारी, हवा करो प्यारी’ गाती। लगता था, घर की सुहागिनों के गोटा-किनारी से सजे, ओढ़नों-लुगड़ों से तने, अनगढ़ मण्डप के नीचे, टिमटिमाती रोशनी में अनगिनत कोयलें कूक रही हों। लोकगीतों की मिठास पूरे मुहल्ले को अपने में बहा ले जाती। गली-मुहल्ले का पुरुष समुदाय वहाँ न हो कर भी वहीं होता। अपने-अपने घरों में बैठे, ढालियों में बतियाते पुरुषों के कान, इन गीतों पर ही लगे होते। जानते थे कि बन्ना-बन्नी का सत्र समाप्त होते ही ‘खेल’ शुरु होंगे। सयानी-बूढ़ी महिलाएँ इन खेलों की कमान थामतीं और उनकी बेटियाँ-बहुएँ, लजाती-झेंपती-खिलखिलाती उनके साथ हो लेतीं। किशोरियाँ औचक नजरों से यह सब देखतीं। इन ‘खेलों’ के बहाने, ‘पुरुष आरोपित वर्जनाओं का वाचिक मर्दन’ होता, ऐसे-ऐसे सम्वाद और अभिनय मुद्राएँ साकार होतीं कि अपने पौरुष का दम्भ भरनेवाले, अच्छे-अच्छे तीस मार खाँ, ढालियों में बैठे-बैठे ही झेंप जाते। सारी कुण्ठाएँ लोग-गीतों के जरिए अभिव्यक्त हो, मन निर्मल और तन ताजा दम कर देतीं। सबसे आखिरी में पतासे बँटते। यह काम जिस भी महिला को मिलता, वह ‘पटलन’ जैसी इठलाती-इतराती। अतिरिक्त प्रतिष्ठा और हैसियत मिलती थी इस काम से। लेकिन यह जिम्मेदारी भी अपने आप माथे चढ़ जाती थी कि कोई महिला पतासे से वंचित न रह न जाए। लोक गीतों की यह ‘कचहरी’ बड़ी मुश्किल से उठती थी। इसकी शुरुआत के लिए महिलाएँ जितनी फुर्ती-उतावली से आतीं, जाने में उतनी ही अनमनी होती थीं। उनका बस चलता तो वे रात भर गीत गाती रहती, खेल खेलती रहती।

लोक गीतों के ऐसे, गुड़ की मिठास को मात देनेवाले, कोयलों-पपीहों को प्रशिक्षण देनेवाले, आत्मीय आयोजन को हम किस मुकाम पर ले आए? पहले गाना-बजाना, सब कुछ ‘मानवीय’ होता था। आज यन्त्र ही यन्त्र हैं। पहले, गीतों को सुनने के लिए कानों को सतर्क होना पड़ता था। आज कानों को बचाए रखने के जतन करने पड़ रहे हैं। पतासों की मिठास, डीजे की चिंघाड़ में गुम हो गई है। पहले जहाँ लिहाज, आँखों की शरम और लोक-लाज का परदा था वहीं आज सब कुछ खुल्लम-खुल्ला है। आठवीं कक्षा में पढ़ रही, तेरह बरस की बच्ची को ‘निगोड़ी कैसी जवानी ये, जो बात न मेरी माने’ पर ठुमके लगाते देखना मर्मान्तक पीड़ादायक होता है। अभी-अभी, ग्यारह बरस की एक बच्ची को ‘उला ला, उला ला, छूना ना मुझे अब मैं जवान हो गई’ पर नाचते देखा तो अपने आप पर शर्म आ गई। लेकिन अचरज अभी बाकी था। मेरे पास ही बैठे सज्जन ने गर्वित होते हुए पूछा - ‘अच्छा नाच रही है ना? अपनी डिम्पी है।’ मुझसे जवाब देते नहीं बना। कहाँ लोक नृत्यों का लास्य और कहाँ पेड़ू उचकाते किशोर और नितम्ब मटकाती, वक्ष झटकाती बच्चियाँ?

एक परिचित के परिवार में विवाह प्रसंग आया। सोचा, मेरी बात सुनते हैं तो उनसे कहूँ कि महिला संगीत से बचें। पहुँचा तो पाया कि इसी मुद्दे पर विचार विमर्श चल रहा है। परिचित के एक अन्तरंग मित्र पहले से ही मौजूद थे और कह रहे थे कि महिला संगीत न करें तो अच्छा होगा। मेरी हिम्मत बढ़ी। मित्र के उन अन्तरंग मित्र से पूछा तो मानो ‘अब रोए कि तब’ वाली दशा में बोले - ‘क्या बताएँ सा’ब! परिवार में शादी थी। महिला संगीत के लिए बाहर से एक ट्रेनर बुलाया था। हम लोग तो अपने काम धन्धे में लगे रहते थे। ट्रेनर क्या कर रहा है, यह देखने-जानने की फुरसत नहीं थी। यह तो तकदीर अच्छी थी कि बच गए। वर्ना सा’ब! दो लड़कियाँ तो भाग ही गई थी उस ट्रेनर के साथ। इसीलिए भैया से कह रहा हूँ कि महिला संगीत मत करो।’

इस स्थिति की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मुझे घबराहट हो आई। मेरी बात को, मुझसे बेहतर ढंग से कहनेवाले भुक्त-भोगी, मुझसे पहले ही वहाँ मौजूद थे। मैंने कहा - ‘इनकी बात पर ध्यान दीजिएगा।’ घर-धणी ने जिन नजरों से देखा, उस पर दया आ गई। लगा, किसी तान्त्रिक अनुष्ठान में नर-बलि हेतु लाए व्यक्ति को देख रहा हूँ। मुझसे उनकी दशा नहीं देखी गई। उनकी आँखें कह रही थीं - ‘चाहता तो मैं भी नहीं। किन्तु क्या करूँ? बच्चे नहीं मान रहे।’
मैं चुपचाप चला आया। भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ कि महिला संगीत के नाम पर किसी की बच्ची के भागने का समाचार मुझे कभी न मिले।

11 comments:

  1. जितना उत्साह विवाह में देखने को नहीं मिलता है, उससे अधिक उत्साह महिला संगीत में दिख जाता है, और कभी कभी तो बहुत ही अधिक।

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  2. समय बदल रहा है, पुरानी इमारतें भरभराकर गिर रही हैं। समय की पुकार है कि नवनिर्माण हो और यथासम्भव बेहतर हो!

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  3. जीवन नर्तन का कहीं लास्‍य, कहीं ताण्‍डव.

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  4. परम्पराओं का निर्वहन!

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  5. दिखावे की महत्वाकांक्षा ने गीत-संध्या को भोंडा और करूप बना दिया है।

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  6. क्या कहें, क्या न कहें । आपने सही कहा, सिर्फ़ घर बैठना सुहाता है ।

    भला हो इस अख़बार की नौकरी का कि अपन तो शुरू से ही इन सार्वजनिक समारोहों से दूर हैं । पारिवारिक समारोहों में ही नहीं जाते तो मोहल्ला-पड़ोस की तो क्या बात है ।

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  7. Bhaijee! achchhe kaam ki shuruwat bhi apne hi ghar se karna hogi. Ch.Tathagat ke samay dhyaan rakhen.

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    1. महानुभाव,
      जैसा की श्रीमान बैरागी अपनी पिछली पोस्ट में बता चुके हैं, की उनके दोनों सुपुत्रों (वल्कल एवं तथागत) ने जिस तरह से उनके (बैरागी जी के) साले की सुपुत्री की शादी में महिला संगीत का आयोजन किया..
      उस से तो यह लगता है की श्रीमान बैरागी जी के घर में तो यह अच्छा काम शुरू हो ही चुका है..
      ज़रुरत अब हम जैसे लोगों को है जो औरों को उनकी ही नसीहतें देकर अच्छा बन पड़ने की कोशिश कर रहें हैं..

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  8. कृपया पृष्ठभूमि चित्र हटा दें. यह पढ़ने में बाधा पैदा करता है.

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  9. samay ke saath kya kya n badlav aata rahta hai.... ..ghar baar aur naukari se fursat by chance hi milti hain aise mein mahila sangeet ki jhalak dekhkar hi tasali kar lete hain ... han kabhi kabhi apne man mutabik n hota dekh koft to hoti hai par kiya bhi kya jaa sakta hai....

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  10. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ मेरा मानना हैं कि समय के साथ या यूँ कहे कि नई पीढ़ी के साथ बदलना ही समझदारी हैं
    अपने बच्चो कि ख़ुशी में खुश होना साथ ही उन्हें अपने संस्कारो का परिचय करवाना दोनों का सामूहिक रूप ही सही विकल्प हैं

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