के अखबारों में, पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम देखकर मेरे मन में, बिना सोचे-विचारे आई बातें -
- जो जमीन से जुड़ा रहा, वो जमीन पर बना रहा।
- जिसने धरती छोड़ी, हवा में उड़ा, वह औंधे मुँह गिरा।
- जिसने लोगों की समझ पर भरोसा किया, उस पर लोगों ने भरोसा किया।
- जिसने लोगों को नासमझ समझा, लोगों ने उसकी नासमझी उजागर कर दी।
- लोग सुनते सबकी हैं किन्तु करते अपने मन की हैं।
- उत्तराखण्ड में सरकार बनाने की मूर्खतापूर्ण, दुस्साहसी कोशिश किसी ने नहीं करनी चाहिए। परिणाम चीख-चीख कर कह रहे हैं कि वहाँ कोई भी सरकार, चलना तो दूर, घिसट भी नहीं पाएगी। वहाँ फौरन ही चुनाव करा दिए जाने चाहिए।
- तीन राज्यों में लोगों ने स्पष्ट बहुमत देकर कहा है - ‘काम करके दिखाना। गठबन्धन की मजबूरी का बहाना नहीं चलेगा।’
- देश के ‘संघीय स्वरूप’ की वास्तविक शुरुआत इन चुनावों से ही हुई है। राजनीतिक दलों को बिना किसी हिचकिचाहट के अपने प्रान्तीय और राष्ट्रीय एजेण्डे उजागर करना चाहिए और अपनी सीमाएँ अनुभव कर, राष्ट्रीय स्तर पर हैसियत स्थापित करने की कोशिशों (और लालच) से बचकर अपने एजेण्डों पर ईमानदारी से काम करना चाहिए। याने -
डीएमके, एआईएमडीके, सपा, बसपा, तृणमूल काँग्रेस, राष्ट्रवादी काँग्रेस, शिवसेना, अकाली दल आदि जैसे तमाम दलों ने खुद को अपने-अपने प्रान्तों तक सीमित रखकर, दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से काम करना चाहिए और ऐसा करते समय राष्ट्रीय एकता को सर्वोपरि रखना चाहिए।
- काँग्रेस और भाजपा ही राष्ट्रीय स्तर के दल हैं। इन दोनों को अपने-अपने राष्ट्रीय और प्रान्तीय एजेण्डे अलग-अलग घोषित करने चाहिए। ऐसा करने में कुछ विसंगतियाँ नजर आ सकती हैं किन्तु अब इन विसंगतियों से बच पाना किसी के लिए सम्भव नहीं होगा। समय आ गया है कि खुलकर अपनी बात कहें और जो नहीं कर सकते, उसके लिए साफ-साफ इंकार करें। लोग साफ बात सुनने के लिए तैयार हैं - मूर्ख बनने के लिए नहीं।
- राजनीति में दम्भ, गर्व, अहंकार के दम पर कोई भी सत्ता हासिल नहीं कर सकता। भारत मूलतः मध्यममार्गी मानसिकता वाले समाजों का देश है। यहाँ ‘विनम्र और दयालु अपराधी’ भी स्वीकार कर लिए जाते हैं और ‘दम्भी, असहिष्णु ईमानदार/सज्जन’ खारिज कर दिए जाते हैं।
- अब दूसरों को गालियाँ देकर खुद को ईमानदार और साफ-सुथरा साबित कर पाना तनिक कठिन हो जाएगा। इसलिए, अपने घर की सफाई कीजिए और यदि ईमानदार और भले हैं तो वैसे ही नजर भी आईए।
कांग्रेस और भाजपा, कथित राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों से लोग उकता चुके हैं। जहाँ उन का कोई भी मजबूत विकल्प दिखाई दिया वहाँ उन्हें जनता ने ठुकरा दिया है। यह आगे के दिनों में अधिक दिखाई देने वाला है।
ReplyDeleteबिना सोचे-विचारे ध्यान में आ गई सार्थक बातें.
ReplyDeleteकल अखिलेश को पत्रकारों से बातचीत करते देखा तो अच्छा लगा। अंग्रेजी प्रश्नों के विनम्रता से हिन्दी भाषा में उत्तर देते देख मन खुश हो गया। उत्तरप्रदेश ही स्थिति इतनी नाजुक है कि अगर रूपयें में चार आने का भी काम कर दिया तो जनता दुआयें देगी।
ReplyDeleteमुलायम सिंह मुझे व्यक्तिगत रूप से अच्छे लगते हैं, सीधे सरल आदमी लगते हैं। दो साल पहले जब उनकी बहू उपचुनाव में हार गयी थीं तो उन्होने कहा था कि राष्ट्रीय स्तर के नेता को अपनी बहू के लिये उपचुनाव में प्रचार करना शोभा नहीं देता और न ही उन्होने चुनाव प्रचार किया। कल राहुल गांधी के लिये उन्होने कहा कि "उन्होने बहुत मेहनत की, परिणाम नहीं आया ये अलग बात है"। आज के राजनैतिक माहौल में इतनी सभ्यता भी बडी चीज है।
चुनाव बड़ा ही पेचीदा खेल है
ReplyDeleteविष्णु जी बिल्कुल सटीक आकलन किया है...
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गांधी परिवार को छोड़ कर आप किसी भी कांग्रेस नेता को देखिए, इनकी बाडी लैंग्वेज़ से ही अहंकार नज़र आता है...राहुल को अगर कुछ करना है तो पहले इन नेताओं को ठीक करे...सब कुछ खुद करने की जगह ऊर्जावान नए चेहरे लोगों के दुखदर्द समझने के लिए फील्ड में उतारे...तभी कुछ हो सकता है नहीं तो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे नतीजे बार-बार झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए...
जय हिंद...
bhaiji! short aur satik-- BURI NAZARWALE TERA MUNH ......k a a l a !
ReplyDeleteमगर चुनाव के नतीज़े आने के दो महीने बाद ही हर विजेता फिर से उड़ने लगता है, उसका क्या?
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