वे मेरे कस्बे में तो आते हैं किन्तु अब मेरे घर नहीं आते।
अगस्त 1977 में जब मैं इस कस्बे में आया तब वे यहाँ के स्थायी निवासी थे। स्थायी भी और अग्रणी, प्रतिष्ठित भी। यहाँ आने से पहले से ही उनसे पुराना परिचय था। सो, इस ‘नई जगह’ में वे ही मेरे ‘पुरानी पहचानवाले’ थे। डेरा-डण्डा रखने के बाद पहली ही फुर्सत में उनसे मिला। वे बड़े प्रसन्न हुए। हाथों-हाथ लिया मुझे। कालान्तर में, नौकरी की परवशता के अधीन वे यहाँ से कोई सवा सौ किलो मीटर दूर जाकर बसने को विवश हुए।
जब तक यहाँ रहे, स्नेह वर्षा करते रहे मुझ पर। मेरे काम आते रहे और मुझसे काम लेते रहे। मेरे कस्बे के साहित्यिक/बौद्धिक आयोजन सम्भव ही नहीं होते थे उनके बिना। ऐसे प्रत्येक आयोजन में वे सबसे पहले जिन ‘अपनेवालों’ को याद करते थे, उन्हीं में हुआ करता था मैं भी। उनके लिए उपयोगी और सहयोगी होकर मुझे अतीव आत्मीय प्रसन्नता होती थी। परम् आत्म सन्तोष मिलता था मुझे। उनके कारण और इन साहित्यिक/बौद्धिक आयोजनों के कारण मुझे जो अतिरिक्त प्रतिष्ठा मिलती थी, वह आज भी मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा की नींव बनी हुई है।
कस्बा छोड़ने के बाद वे जब भी मेरे कस्बे (याने, उनके ‘अपने’ कस्बे) में आते, मेरे यहीं ठहरते। आने से पहले ही फोन कर देते - ‘मैं फलाँ दिन, फलाँ गाड़ी से आ रहा हूँ। तुम्हारे यहीं रुकूँगा और भोजन भी करूँगा।’ हम दोनों पति-पत्नी को अच्छा तो लगता ही, अतिरिक्त गौरवानुभूति भी होती - ‘वे’ हमारे यहाँ जो ठहरेंगे!
उनका आना किसी न किसी साहित्यिक आयोजन को लेकर ही होता। या तो मुख्य अतिथि होते उस आयोजन के या अध्यक्ष। वे आते। मैं अपने दुपहिया वाहन पर उन्हें लेकर जाता। जिस समारोह में मेरी उत्तमार्द्ध भी जाना चाहती, उसके लिए हम तीनों ऑटो रिक्शा से जाते। हमें पहली ही पंक्ति में बैठने का विशेष अधिकार रहता। सबसे अगली पंक्ति में बैठा मैं, बार-बार पीछे देखता और सगर्व खुश होता - कितने लोग मुझे देख रहे हैं!
आयोजन समाप्ति के बाद हम साथ-साथ घर लौटते। अगली सवेरे वे अपने नगर लौटते। बिदा वेला में कहते - ‘यहाँ आकर किसी और के यहाँ रुकने का मन नहीं होता। किसी और के यहाँ जाने का विचार ही मन में नहीं आता। यहाँ आने का एक बड़ा लालच होता है - तुम लोगों से मिलना।’
बरसों तक ऐसा ही होता रहा। लेकिन जब से मैंने अपना निवास बदला है, तब से, उनका मेरे यहाँ आना, रुकना बन्द हो गया है। वे अब भी मेरे कस्बे में आते तो हैं किन्तु उनके आने की खबर अगले दिन, उनके चले जाने के बाद, अखबारों से मिलती है - उनके आयोजन के समाचारों से। ऐसा जब शुरु-शुरु में पाँच-सात बार हुआ तो मैंने विनीत भाव और दयनीय स्वरों में शिकायत की। मेरी प्रत्येक शिकायत को उन्होंने ‘जायज’ माना तो जरूर किन्तु अपने न आने का कोई कारण कभी नहीं बताया। आज तक नहीं बताया।
अब मैंने शिकायत करना बन्द कर दिया है। एक बार तनिक आक्रोशित हो, मुझे झिड़क दिया था उन्होनें मुझे-मेरी शिकायत सुनकर। उसके बाद से मैंने शिकायत करना ही नहीं, उनकी प्रतीक्षा करना भी बन्द कर दिया है।
लेकिन उनका न आने का मुझे बुरा लगता है। हर बार लगता है। लेकिन अब केवल इस बात का बुरा नहीं लगता कि वे अब मेरे यहाँ नहीं आते। मेरे यहाँ न आने का कारण जानने के बाद अधिक बुरा लग रहा है।
उनके नगर में ही रह रहे मेरे एक परिचित ने मेरी व्यथा-कथा सुनाकर जब उन्हें उलाहना दिया तो उनका जो जवाब आया वह जानकर मुझे अधिक बुरा लगा। मेरे परिचित से उन्होंने कहा - ‘यार! तुम और विष्णु कभी अपनी ओर से भी कुछ बातों को समझने की कोशिश किया करो। पहले विष्णु मेन रोड़ पर रहता था। रुपया-आठ आने में, टेम्पो से उसके घर पहुँच जाता था। अब वह स्टेशन से चार किलो मीटर दूर रहने लगा है। अब कम से कम तीस-पैंतीस रुपये लेता है ऑटो रिक्शावाला उसके घर जाने के लिए। यात्रा का किराया बीस रुपये ओर ऑटो रिक्शा का भाड़ा पैंतीस रुपये! सोने से घड़ावन मँहगी पड़ती है विष्णु के घर जाने में।’
सुनकर मुझे बुरा लगा है। उनके न आने से अधिक बुरा।
मैं तो समझ रहा था कि उनके-मेरे बीच सवा सौ किलोमीटर की दूरी है। लेकिन नहीं। यह दूरी तो पैंतीस रुपयों की है। सवा सौ किलो मीटर से कहीं अधिक। सवा सौ किलो मीटर तो आया जा सकता हे किन्तु पैंतीस रुपयों की दूरी पार करना पोसान नहीं खाता।
अब वे मेरे घर नहीं आते। सवा सौ किलो मीटर पर पैंतीस रुपये भारी पड़ गए हैं।
वो हिसाबी किताबी है.सारे काम समझ बूझ कर करते है
ReplyDeleteसुविधा भोगियों का यथार्थ!!
ReplyDeleteविष्णु जी, पहचान भले ही पुरानी रही हो, मगर पहचाना तो अब ही, पेंतीस रुपये में पहचान सस्ती ही पड़ी। शुभकामनायें!
ReplyDelete३५ रु का महत्व, पढ़कर दुख हुआ..
ReplyDeleteरिश्ता पैंतीस रुपयों की दूरी पाट न पाया :(
ReplyDeleteहोली की अनन्त शुभकामनाएँ
बात तो है कम से कम आवाजाही की, वरना दूरियां फोन में सिमटते क्या देर लगती है ?
ReplyDeleteBhaiji! jab aayojanon me laana-lejaana aur daana-paani sabka prabandh to kar hi rahe the,station se/tak laane-lejaane ka aur kar lete to ye sthiti nahi aati.
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