6 वर्षों तक ‘पागल’ रहे ‘बालकवि’


1950 के दशक में, शिप्रा-तट (उज्जैन) पर लगे, कार्तिक पूर्णिमा मेले में आयोजित कवि सम्मेलन में जुटे ‘मालवी’ के हरावलों/अलम्बरदारों की छवियों वाला यह सचमुच में एक दुर्लभ स्मृति चित्र है। चित्र में - नीचे बैठे हुए बाँये श्री हजेलाजी तथा दाहिने दादा श्री बालकवि बैरागी। कुर्सियों पर बैठे - बाँये से सर्वश्री हरीश निगम, आनन्दरावजी दुबे, श्रीनिवासजी जोशी, गिरिवरसिंहजी भँवर और शिल्पकारजी। पीछे खड़े हुए - बाँये से - सर्वश्री वागीशचन्द्रजी पाण्डे, सुलतान मामा तथा बसन्तीलालजी बम। मालवी साहित्य को प्रतिष्ठित करनेवाले, पण्डित श्री श्रीनिवासजी जोशी की स्मृति में, वर्ष 1997 में स्थापित ‘श्रीनिवास जोशी स्मृति सम्मान’ की बारहवीं कड़ी के रूप में, शनिवार, 7 अप्रेल 2018 को, इन्दौर में आयोजित सम्मान समारोह के निमन्त्रण-पत्र पर छपा यह चित्र मुझे मेरे आत्मीय, इन्दौरवाले धमेन्द्र रावल ने उपलब्ध कराया है। 

10 फरवरी 2023 को दादा का 93वाँ जन्म दिन और 92वीं जन्म वर्ष-गाँठ है। लेकिन दादा के चाहनेवालों के, उन्हें आत्मीयता से याद करनेवालों के फोन मुझे सप्ताह पहले से ही आने शुरु हो गए। यह अलेख मैं 6 फरवरी की रात को लिख रहा हूँ। अब तक बाईस-तेईस जगहों से फोन आ चुके हैं। लोग अपने-अपनेे तरीकों से कार्यक्रम, गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। मुझसे जानकारियाँ, सूचनाएँ माँग रहे हैं। मैं यथाशक्ति, यथासामर्थ्य उपलब्ध कराने केे जतन कर रहा हूँ। ऐसा करते हुए हर बार रोना आ रहा है। 

दादा की पहली कविता, दादा के कहे अनुसार ही, उनकी नौ वर्ष की आयु में, 1940 में सामने आई थी। तब वे चौथी कक्षा में थे। अपने गाँव मनासा में, अपने विद्यालय की अन्तरकक्षा भाषण प्रतियोगिता में उन्होंने अपनी पहली कविता ‘सभी करो व्यायाम’ पढ़ी थी। सार्वजनिक मंच पर उनकी पहली प्रस्तुति 1945 में, रामपुरा में, इन्दौर राज्य प्रजा मण्डल के अधिवेशन में हुई थी। उस समय दादा की उम्र 14 वर्ष थी। मध्य प्रदेश के नीमच जिले का गाँव रामपुरा, दादा का जन्म स्थान (हम भाई-बहनों का ननिहाल) है। कई लोग ‘रामपुरा’ को ‘रामपुर’ समझते, लिखते हैं। वह वास्तव में ‘रामपुरा’ है। 

दादा का ‘बालकवि’ नामकरण 23 नवम्बर 1951 को, भारत के तत्कालीन गृह मन्त्री डॉक्टर कैलाशनाथजी काटजू ने, हमारे गृहनगर मनासा में, काँग्रेस की एक आम-सभा में किया था। दादा उस समय अपने जीवन के इक्कीसवें बरस में चल रहे थे। दादा का कवि व्यक्तित्व वस्तुतः इस नामकरण के बाद ही व्यापक रूप से सामने आया। 

दादा ने कब, कौन सी कविता लिखी, इसकी कोई जानकारी हम परिवारवालों को बिलकुल नहीं रही। निरक्षर माँ और साक्षर पिताजी के बाद दादा ही घर में सबसे बड़े थे। हम सब भाई-बहन नामसझ, निरक्षर। समूचा परिवार भीख पर आश्रित। तो, ‘कवि’ और ‘कविता’ जैसे शब्दों की सूझ-समझ से कोसों दूर, अनजान, हम परिजन उनके लिखे को महत्पवूर्ण मानें, सहेज लें, सम्हाल लें या ऐसा करने का सोचें भी - यह कल्पना भी हम सबके साथ हास्यास्पद ज्यादति ही होगी। 1947 में मेट्रिक पास कर लेने के बाद वे, मनासा में ही, तब के अग्रणी वकील जमनालालजी जैन के मुंशी बन गए थे। हमारे समाज में आज भी ‘कवि’ को ‘कमाऊ’ नहीं माना जाता। लिहाजा, ‘वकील का मुंशी’ हो जाने पर दादा हम सबके लिए ‘घर का कमाऊ आदमी’ ही बने रहे। उनके ‘कवि’ से तब हमारा कोई लेना-देना नहीं रहा।

लेकिन, दादा का लिखना तो जारी रहा ही होगा। किन्तु 1945 से 1951 के 6-7 बरसों की अवधि में लिखी दादा की कविताओं के बारे में हममें से किसी को, कोई जानकारी नहीं। दादा के मुँह से भी, उनके इस काल की किसी कविता की बात सुनने को कभी नहीं मिली। 

किन्तु इन 6 बरसों में लिखा दादा का एक छन्द मुझे अपने स्कूली दिनों में पढ़ने को मिला था। उसी से मालूम हुआ था कि दादा ‘पागल’ के नाम से लिखते थे। अपना यह नाम उन्होंने खुद ही तय किया था। दादा के मुँह से इसका जिक्र मैंने पहली बार अभी-अभी, नवम्बर-दिसम्बर 2022 में उनके एक रेडियो साक्षात्कार में सुना। आकाशवाणी इन्दौर की सुपरिचित उद्घोषिका सुश्री रविन्दर कौर द्वारा, जुलाई 2011 के बाद किसी समय लिया गया यह साक्षात्कार मेरे ब्लॉग पर, दिनांक 11 दिसम्बर 2022 को प्रकाशित हुआ है।

वैसे, हममें से किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया (न ही कभी ध्यान गया) कि अपने ‘पागल’ होने की जानकारी दादा ने पता नहीं कब से सार्वजनिक कर रखी थी। मनासा में, हमारे पैतृक मकान के अगले हिस्से में पहली मंजिल पर बनी छोटी सी कोठरी (जिसे हम सब ‘मेड़ी’ कहते थे) की, मुख्य रास्ते की ओर खुलनेवाली खिड़की के एक पल्ले पर उन्होंने, चाक से ‘पागल कुटीर’ लिख रखा था। यह मैंने भी देखा था। लेकिन तब इसका मतलब नहीं समझ पाया था। इस ‘मेड़ी’ और ‘पागल कुटीर’ का उल्लेख डॉ बंसीधर ने अपने आलेख में किया है। दादा से 5-6 बरस छोटे बंसीधरजी, मनासा के पास ग्राम भाटखेड़ी के मूल निवासी हैं। पढ़ाई के लिए भाटखेड़ी से मनासा आते-जाते, ‘मेड़ी’ की खिड़की के एक पल्ले पर लिखा ‘पागल कुटीर’ उन्हें नजर आता था। बंसीधरजी इन दिनों बड़ौदा में, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के श्री सयाजी प्रतिष्ठान के संयोजक (कोआर्डिनेटर)हैं। ‘पागल कुटीर’ के उल्लेखवाला उनका, ‘बालकवि बैरागी: शब्दों से परे हैं ये सम्बन्ध’ शीर्षक संस्मरण भी मेरे ब्लॉग पर, 11 जुलाई 2022 को प्रकाशित हुआ है।

तो, दादा के कवि-व्यक्तित्व के अपने शुरुआती दौर के कम से कम 6 बरस तक दादा ‘पागल’ ही बने रहे। यह बात और है कि उनके ‘पागल’ होने की बात, दादा के मृत्युपर्यन्त कभी नहीं सुनी - न खुद दादा से न ही उनके किसी संगी-साथी से। ‘बालकवि’ ने ‘पागल’ को लील लिया।

अब वह छन्द पढ़ लीजिए जिसका जिक्र मैंने इस लेख के शुरु में किया है। यह छन्द सम्भवतः किसी ‘समस्यापूर्ति’ के लिए लिखा गया था। आज की पीढ़ी को ‘समस्यापूर्ति’ का अर्थ शायद ही मालूम हो। हिन्दी साहित्य में ‘समस्यापूर्ति विधा’ की लम्बी परम्परा रही है। यह, कवि की प्रतिभा और कौशल जाँचने की एक ढंग माना जा सकती है। इसमें, कविता की कोई पंक्ति दे दी जाती है जिसे आधार/केन्द्र बनाकर कविता लिखने का चुनौतीभरा निमन्त्रण होता है। उर्दू अदब में ऐसे उपक्रम को शायद ‘तरही नशिस्त’ कहा जाता है। होती है। समस्यापूर्ति वाली ऐसी रचना में कवि प्रायः ही अपने नाम की ‘छाप’ लगाते हैं। मेरे अनुमान से, इस समस्यापूर्ति की आधार पंक्ति ‘पनिहारिन क्यूँ लौट गई?’ रही होगी। मेरे तईं इस छन्द का अनूठापन यह है कि दस-ग्यारह बरस की उम्र में मैंने यह पहली बार (और अब तक केवल एक ही बार) देखा/पढ़ा था। लेकिन यह मुझे तत्क्षण जो कण्ठस्थ हुआ तो अब तक कण्ठस्थ है। मैं चकित भी हूँ और अब तक उलझन में हूँ कि ऐसा क्यों, कैसे हुआ?

बहरहाल, आप छन्द पढ़िए -

पनघट को लेन चली पनिहा, अरु सम्मुख ही इक छींक भई।
चोली में जियरा काँपी गयो, यह कौन सी विपदा हाय दई?
सोचती-सोचती, काँपती-काँपती, पनघट पर जब आ ही गई।
गागर फाँदी के भीतर झाँक्यो तो, पल भर सोच में डूबी गई।
निर्जीव कबूतर पानी पे तैरत, बैठी कबूतरी चीख रही।
‘पागल’ की मति बोल उठी या, यूँ पनिहारिन लौट गई।

दादा की रचनाओं का जितना ज्ञान और जानकारी मुझे अब तक है, उसके अनुसार दादा की यह इकलौती रचना है जिसमें दादा के ’पागल’ होने की छाप लगी है।

दादा का ब्याह मई 1954 में हुआ - दादा के ‘बालकवि बनने के ढाई-तीन बरस बाद। लेकिन उनके ब्याह का पहला सूत्र, उनका ‘पागल’ होना ही था। यह अपने आप में एक मजेदार और रोचक कहानी है।

लेकिन, यह कहानी फिर सही।

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