श्री बालकवि बैरागी से देविन्दर कौर मधु की बातचीत
(दादा श्री बालकवि बैरागी का यह साक्षात्कार, आकाशवाणी के कार्यक्रम ‘बातें आपकी’ के लिए देविन्दर कौर मधु ने फोन पर, जुलाई 2011 के बाद किसी समय लिया था। इसमें बीच-बीच में दादा की पसन्द के फिल्मी गीत भी बजाए गए थे। बिना गानों का यह साक्षात्कार 29 मिनिट का है। इसे लिखवाना मेरे लिए टेड़ी खीर था। मैंने फेस बुक पर मदद माँगी तो मेरा साथी बीमा अभिकर्ता अमृत बिन्नी बामनिया प्रकट हुआ। उसने कहा कि उसकी बेटी निकिता बामनिया स्टेनोग्राफर है और वह यह साक्षात्कार लिपिबद्ध कर देगी। रतलाम जैसे छोटे से, कस्बेनुमा शहर में मेरे लिए यह किसी वरदान से कम नहीं था। यह साक्षात्कार पूरी तरह से प्रिय अमृत बिन्नी बामनिया और उसकी बिटिया निकिता बामनिया के कारण ही यहाँ दे पा रहा हूँ। इन दोनों बेटी-बाप को बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार।)
देविन्दर कौर मधु - नमस्कार बैरागीजी!
बैरागीजी - नमस्कार। प्रणाम।
देविन्दर कौर मधु - कैसे हैं आप?
बैरागीजी - मैं कुशल हूँ। स्वस्थ हूँ। प्रसन्न हूँ। अपने काम में लगा हूँ।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! इस समय बहुत सारे श्रोता आपको सुन रहे हैं। आज हम चाहते हैं कि अपने बारे में हमारे श्रोताओं का कुछ बताइये कि आप कहाँ रहते हैं और आपका बचपन कहाँ बीता है? आपका जन्म कहाँ का है? शुरुआत मैं आपके बचपन से ही करना चाहूँगी। अपने बचपन के बारे में हमें कुछ बताइये।
बैरागीजी - मेरा बचपन बहुत विपन्न अवस्था में बीता है। मैं बहुत गरीब घर का जेठा, सबसे बड़ा बेटा हूँ। लेकिन, जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, गरीब के घर बच्चा नहीं, हमेशा बूढ़ा पैदा होता है। तो, मैं मेरे घर का ऐसा, सबसे पहले जनमा बूढ़ा बेटा हूँ।
मेरे पिता जन्म से अपािहज थे। उनके दोनों पाँव और दाहिना हाथ, जन्म से, गर्भ से ही अपाहिज थे। शादी के समय मेरी माँ नौ वर्ष की थी और पिताजी 14 वर्ष के थे। शादी के 6 महीने के भीतर ही दोनों अनाथ हो गए। इस तरह, हमारे परिवार में मेरे माता-पिता के अलावा कोई नहीं बचा था। तो, मैं ऐसे अनाथ माँ-बाप का जेठा बेटा था।
हमारा परिवार भीख माँगता था। मेर साढ़े चार वर्ष की उम्र में मेरी माँ ने मुझे जो पहला ‘खिलौना’ खेलने के लिए मेरे हाथ में दिया था, वो था, भीख माँगने का बरतन। कहा - ‘बेटा! पड़ोस से कुछ माँग ला तो घर में चूल्हा जले।’ तो, साढ़े चार वर्ष की उम्र से मैंने गलियों में भीख माँगना शुरु किया और यह क्रम चलता रहा।
लम्बे वर्षों तक मेरे अपाहिज पिता, मेरी माँ, मैं और फिर, मेरे बाद मेरी छोटी बहन हुई तो वह भी, हम सारे परिवार के लोग भीख माँग कर अपना गुजारा करते थे। अपने ऐसे, इसी जीवन के आधार पर मैंने कई बार लिखा है कि अभाव से अच्छा कोई मित्र इस संसार में नहीं होता है। आपके पास यदि कोई अभाव है तो वह आपका अच्छा, आपका सच्चा मित्र है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे जनम से ही ऐसा मित्र मिल गया।
मैं माँ का निर्माण हूँ। सही बात यही है कि मुझे मेरी माँ ने बनाया। भीख माँगते हुए जब कभी मैं निराश होता तो माँ, अपने आँचल से मेरे आँसू पोंछते हुए कहती - ‘कोई बात नहीं बेटा! गरीबी ईश्वर की सबसे खूबसूरत, सबसे प्रिय बेटी होती है। और खूबसूरत बेटी को पिता किसी निकम्मे या आवारा वर को नहीं, हमेशा अच्छे, योग्य पर को ही सौंपता है। भगवान ने यदि गरीब बनाया है तो कोई बात नहीं। लेकिन अब, डटकर अपना काम करता रह। ठहाके लगा कर, हँस कर जीना सीख। रोने बैठ गया तो याद रखना, संसार के किसी भी मील (टेक्सटाइल मील) में, आँसू पोंछने के लिए रूमाल नहीं बना है।’ तो, मेरी जिन्दगी इस तरह अभावों से शुरु हुई।
आज जब मैं आपसे बातें कर रहा हूँ तो इस समय मेरी उम्र 81 बरस की हो रही है। अभावों की तो मुझे आदत हो गई। किन्तु जो एक बात मुझे आज सालती है वह यह कि मुझे मदरसे में भर्ती कराने के लिए न तो मेरे पिताजी साथ थे न मेरी माँ। एक पड़ौसी, पूर्बिया मित्र कँवर लाल ने मुझे भर्ती कराया था। (अपािहज होने के कारण) पिताजी आ ही नहीं सके थे। मैंने अपनी सारी पढ़ाई भीख माँग-माँग कर पूरी की। कपड़े भी माँग-माँग कर ही पहने। किताबें भी भीख माँग-माँग कर ही लीं। उस जमाने में एक पैसे में (पेन/कलम की) दो नीबें मिलती थीं। मेरे पास तो पैसे होते ही नहीं थे। तो, मैं सरकारी दफ्तरों की खिड़कियों के बाहर से, कर्मचारियों द्वारा उपयोग कर, फेंकी गई नीबें बीन-बीन कर अपना काम चलाता था।
मेरी माँ ने मुझे कभी निराश नहीं होने दिया। मेरे पिताजी थोड़े, क्रोधी, गुस्सैल थे। लेकिन, मेरी माँ ने यदि अपना पहला बेटा कोई पाला तो वह उसका स्वयं का पति था। आप कल्पना कर सकती है कि साढ़े नौ वर्ष की उम्र में, घर में, कोई बहू अनाथ हो जाए और उसका पति बिलकुल अपाहिज हो जो कोई काम नहीं कर सके, ऐसे पति को पालना कितना मुश्किल था?
जवानी तो मेरी माँ पर भी आई होगी, उसके ऊपर भी रूप आया होगा, लेकिन उस सबके बावजूद उसने अपने आप को कितना बचाया, कितना सुरक्षित रखा अपने आप को इस समाज में, कितने से प्रतिष्ठित रखा, मेरे जीवन को आकार दिया। तो, ये मेरे बचपन की कुछ बातें हैं। यदि मैं लम्बी बात करने लग जाऊँ तो शायद आपके श्रोता भी तंग हो जाएँ। कहेंगे कि बैरागीजी अपने जीवन की ये कैसी बातें कर रहे हैं? लेकिन ये बातें मेरे जीवन का सत्य हैं। यदि मैं इस सत्य को स्वीकार नहीं करता हूँ तो ईश्वर के प्रति अपराध करता हूँ।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपने आज जो मुकाम हासिल किया है, जिन्दगी में आज जहाँ आप हैं, वहाँ आपके पहुँचने के बाद मैं यकीनन कह सकती हूँ कि हम आपके बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं। और आप जो बता रहे हैं उसे, लोग शायद बहुत ही दिल से सुन रहे हैं
मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि इतने अभाव और ऐसी परिस्थितियों के बाद भी आपने बहुत अच्छी शिक्षा पाई है। वह (शिक्षा) आपने कहाँ पाई, कैसे पाई? किन स्कूलों में, किन लोगों से पाई? इसके बारे में कुछ बताएँ।
बैरागीजी - देखिए! मेरा जो पैतृक गाँव है, उसका नाम है मनासा। आज नीमच जिले में है। करीब 25-30 हजार की आबादी का गाँव है। मेरे जन्म के समय तो इसकी आबादी मुश्किल से 4 हजार या 5 हजार के बीच में रही होगी। मेरा जन्म स्थान, मेरा ननिहाल, मनासा के पास रामपुरा है। वहाँ, सुतारों के मन्दिर में मेरा जन्म हुआ। मेरी माँ रामपुरा की थी। मेरा जन्म स्थान रामपुरा है लेकिन मेरी पितृ भूमि, कर्म भूमि मनासा है। मनासा, होलकर स्टेट में था। इन्दौर हमारी राजधानी होती थी। लेकिन हमारा, सरकारी स्कूल किराये के मकान में चलता था। किराए के स्कूल में मैंने चौथी पास की। उसके बाद बड़े स्कूल में आया। वह स्कूल आज भी वहाँ जिसमें मैंने पाँचवीं, छठवीं, सातवीं पास की। सन 44 में मैंने पास की थी सातवीं। सातवीं की परीक्षा देने के लिए हमें मनासा से 300 किलो मीटर इन्दौर आना पड़ता था। न आने-जाने के पैसे थे, न कुछ था। लेकिन सौभाग्य से हमें शिक्षक अच्छे मिले। गुरु अच्छे मिले। माता-पिता अच्छे मिले। पड़ौसी अच्छे मिले।
देविन्दर कौर मधु - आपके किसी गुरु का ध्यान आता है आपको?
बैरागीजी - अरे! सबका ध्यान आता है। मैं किस-किस का नाम बताऊँ आपको? मुझे पढ़ाने वाले ऐसे गुरु मिले हैं जिनका निधन इन्दौर में हुआ लेकिन थे वो मनासा के। रामनाथजी उपाध्याय मास्टर सा’ब उनका नाम था। जब मैं सातवीं में था, वो रोज क्लास में मुझे कहते थे - ‘बाबल्या! तू लिख ले! विधाता भी आकर तुझे पास कराना चाहे तो तू पास नहीं हो सकता।’ लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं सातवीं की परीक्षा देने के लिए इन्दौर नहीं जा सकूँगा तो वे मेरे घर आये, मेरे पिताजी से लड़े। कहा - ‘चाहे मकान बेचना पड़े तो मकान बेच। लेकिन मेरे मेधावी विद्यार्थी को मैं इन्दौर जरूर ले जाऊँगा। चाहे जो हो जाए।’ तो, उन्हीं शिक्षक ने (जो कहते थे कि विधाता भी मुझे पास नहीं करा सकता) मुझे इन्दौर ले जाकर मुझे परीक्षा में बैठाया और मैं पास हुआ। ऐसे शिक्षक थे कि रात को कन्दील लेकर हमें घर तक छोड़ने आते थे। दिन भर पढ़ाते थे फिर रात को घर बुलाते और अभ्यास कराते थे और फिर घर छोड़ने आते थे और बाहर से आवाज लगाते - ‘बहू! देख! नन्दराम आया है। इसे सम्हाल कर सुलाना और सुबह स्कूल भेज देना।’ ऐसे गुरु मिले! ऐसे शिक्षक मिले! अच्छे लोग मिले। घासीरामजी शुक्ला, जिनके नाम पर आज भी ‘नईदुनिया’ इन्दौर की एजेंसी चल रही है, वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। वो पढ़ाते थे हमको। द्वारका प्रसादजी दीक्षित अंग्रेजी पढ़ाते थे। भैरवलालजी चतुर्वेदीजी चौथी में पढ़ाते थे। राधाकिशनजी व्यास, अभी-अभी दो साल पहले जिनका देहान्त हुआ है, ये सब वे गुरु थे जिन्होंने मुझे आकार दिया।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! मैं यहाँ पर आपको बीच में रोक रही हूँ। आपकी पसन्द का कोई गाना है जो आप हमारे श्रोताओं को सुनाना चाहते हैं? आप बताएँ! क्या सुनाएँ आपको और श्रोताओं को?
बैरागीजी - अगर आप सुनाना चाहती हैं तो मेरा ही लिखा हुआ एक गीत सुना दीजिए जो फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ में सुनील दत्त साहब और नर्गिसजी ने जयदेवजी के कम्पोजीशन में लताजी से गवाया है।
देविन्दर कौर मधु - तू चन्दा मैं चाँदनी?
बैरागीजी - हाँ। तू चन्दा मैं चाँदनी।
(रेडियो पर ‘तू चन्दा मैं चादनी’ गीत बजाया गया)
देविन्दर कौर मधु - तो, बैरागीजी! हमने आपका लिखा, आपका मनपसन्द गाना सुनवाया। इसे आपने हजारों बार सुना होगा लेकिन आपके साथ सुनने मे आज कुछ अलग ही आनन्द आया।
अब हम अपने प्रोग्राम को आगे बढ़ाते हैं।
तो, यही जानना चाहूँँगी, आपकी यंग एज के बारे में, आपने अपनी युवावस्था कहाँ और कैसे बिताई?
बैरागीजी - (देर तक, जोर-जोर से हँसते हैं। मधुजी भी साथ-साथ हँसती हैं।) आप इस देश के, गलियों के एक भिखारी से, भिखारी शब्द तो फिर भी बड़ा होता है मधुजी! भिखमंगा और भिखारी शब्द तो सम्मानजनक है! मैं तो ‘मंगता’ रहा जिसको लोग दुत्कार देते थे। ऐसे व्यक्ति से जवानी के बारे में पूछ रही हैं?
देविन्दर कौर मधु- बैरागीजी! यह तो आपका बड़प्पन है जो आप अपने बारे मे इस तरह बता रहे हैं। लेकिन लाखों, करोड़ो लोग आपसे मिलना चाहते हैं। उनमें मैं भी हूँ। ऐसा लगता है कि आपसे कब मिलूँ! कब आकर देखूँ? कब आपके चरण स्पर्श करूँ? इसलिए मैं.....चलिए! आप अपने तरीके से अपनी जवानी के बारे में बताइये।
बैरागीजी - किस उम्र को आप जवानी मानती हैं? मुझे (जवानी की उम्र के) वर्ष बताइये। (इस बीच मधुजी रुक-रुक कर हँसती हैं और बैरागीजी जोर-जोर से हँसते हैं) वो तो आप पर भी आई होगी।
(दोनों जोर-जोर से हँसते हैं।)
देविन्दर कौर मधु - मैं जवानी उस दौर को मानती हूँ जब दिल में कुछ-कुछ होने लगता है।
बैरागीजी - ऐसा तो मेरे साथ एक ही बार हुआ और मैंने उससे शादी कर ली और अब वो चली गई। इस दुनिया से निकल गई। अभी 18 जुलाई को चली गई। 57 वर्ष, दो महीने मेरे साथ रह कर चली गई।
कुल मिला कर बात यह है कि सन् 1944 में मनासा से 7वीं परीक्षा पास कर ली और 8वीं पढ़ने के लिए जब मैं जाने लगा रामपुरा। तब हाई स्कूल रामपुरा में होता था। होलकर राज्य में कुल तीन हाई स्कूल थे। एक रामपुरा में, एक खरगोन के आसपास कहीं और तीसरा इन्दौर में था। जब मैं जाने लगा तो पिताजी ने बहुत मार-पीट की। मुझे पीटा और बोले कि तू चला जाएगा तो हमें भीख माँग कर कौन खिलायेगा? किसी तरह से माँ ने मुझ वहाँ जाने की आज्ञा दी। तो, आपके श्रोताओं में यदि कोई विद्यार्थी, कोई बच्चे सुन रहे हों तो मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि मैं मनासा से रामपुरा 32 किलो मीटर 13 वर्ष की उम्र में, 8वीं पास करने के लिए जब मैं निकला तो 32 किलो मीटर मुझे पैदल जाना पड़ता था। हफ्ते में दो या तीन बार आना-जाना पड़ता था। यहाँ भी भीख मँगो, वहाँ भी भीख माँगो। यहाँ माता-पिता के लिए भीख माँगो। वहाँ खुद के लिए भी भीख माँगो। इस तरह से मैंने सन् 1947 में मेट्रिक पास किया।
तो, दसवीं पास की। फिर इन्दौर आना पडा परीक्षा देने के लिए। तो, हमें बात-बात में इन्दौर की तरफ भागना पड़ता था। पैसा था नहीं। गरीबी थी। लेकिन उसके बाद एक उम्र आई। किशोर काल निकला। तो, जीवन के ऐसे संघर्षों में, आप मुझे बताइये! मैं तो किसी को भी चाह लूँ लेकिन मुझे कौन चाहे? मेरे हाथ में तो भीख का कटोरा! कौन मुझे कहे कि चलो! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ या मैं तुम्हें चाहती हूँ?
देविन्दर कौर मधु - आपने तो किया होगा किसी से?
बैरागीजी - मैंने किया था तो मैं किसी से कह नहीं सकता था। अब वो इस दुनिया में है नहीं।
देविन्दर कौर मधु - नहीं। आपने किया तो हमें तो बता सकते हैं कि आपने किसी को चाहा।
बैरागीजी - मैंने कहा ना, कि मैंने किसी को चाहा था। मेरी एक कविता नईदुनिया में छपी। जिसे पढ़कर एक लड़की ने अपने पिताजी से कह दिया कि इस लड़के से मेरी शादी कर दो। और मेरी उससे शादी हो गई।
देविन्दर कौर मधु - (हँसते हुए) यह तो बहुत अच्छी बात हुई।
बैरागीजी - नईदुनिया में छपी। मैं नाम ले रहा हूँ अखबार का। कृष्णकान्तजी ने मेरी कविता छापी। उसके सम्पादक थे और मैं नन्दराम दास बैरागी ‘पागल’ के नाम से लिखता था। तब मैं बालकवि नहीं हुआ था।
देविन्दर कौर मधु - अरे? बालकवि कैसे हुए? यह भी बताइये कि कैसे हुए बालकवि?
बैरागीजी - डॉक्टर कैलाशनाथजी काटजू ने बनाया मुझे बालकवि। सन 1951 की 23 नवम्बर। तारीख मुझे याद है। मनासा में काँग्रेस की आम सभा थी। लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए वहाँ पधारे थे। जावरा में उनकी पैदाइश थी। काँग्रेस ने, जवाहरलालजी ने उनको यहाँ से काँग्रेस का टिकिट दे दिया है। तो, मनासा की, उस काँग्रेस की आम सभा में पहले मुझसे कहा गया कि एक गीत गा दो। तो, मैंने अपनी लिखी हुई एक कविता पढ़ दी। वो (कविता) चुनाव से सम्बन्धित थी। वो आपके, आकाशवाणी के लायक नहीं है। वो पढ़ दी। उसके बाद डॉक्टर साहब ने बोला कि एक और सुना दो। तो, मैंने एक और सुना दी। तो, (इस तरह, एक के बाद एक) मैंने तीन (कविताएँ) सुना दी। फिर उन्होंने कहा कि एक और सुना दो। तो मैंने एक और, चौथी भी सुना दी। पर मधुजी! मैं मन ही मन सोच रहा था कि अगर इन्होंने एक बार और कह दिया तो तब तो फिर द्रोपदी का चीर हरण हो ही जाएगा। शायद ही कोई भगवान कन्हैया आकर चीर बढ़ाए। क्योंकि लिखी कुल चार ही थीं। लिखी तो पाँचवी भी थी। उन्होंने धीरे से कहा - एक और सुनाओ। तब तक आकर उनके मिलिट्री सेक्रेट्री ने उनको घड़ी बताई और बोला कि सर! आप 45 मिनिट के लिए यहाँ आये हैं और 40 मिनिट से आप कविता सुन रहे हैं। अपने को चलना है आगे।
उन्होंने खड़े होकर भाषण दिया मनासा में। करीब-करीब 2-3 हजार लोग थे हमारे गाँधी चौक में, बद्रीविशाल मन्दिर के सामने। उन्होंने भाषण दिया कि ‘मुझे कोई भाषण देना नहीं हे। जवाहरलालजी ने कहा है तो मैं आपके यहाँ चुनाव लड़ने आ गया। मैं लोक सभा में काम करूँगा।’ उस समय वो अन्तरिम सरकार के, देश के गृह मन्त्री थे। उन्होंने कहा कि ‘ये जो है ना आपके सामने बैठा हुआ, (मैं उनके सामने जाजम पर बैठा हुआ था) ये लड़का? मैं इसका नाम नहीं जानता। ये जो आपका बालकवि है ना, इसने जो कहा है वो करना।’ उस दिन से हम बालकवि हो बैरागी हो गए। ये कैलाशनाथजी काटजू साहब की कृपा है।
देविन्दर कौर मधु - ये काटजूजी का दिया हुआ नाम है?
बैरागीजी - हाँ। मेरे माता-पिता ने इस नाम को स्वीकार कर लिया ये उनका बड़प्पन है।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! श्रोताओं को कुछ और सुनवाना चाहेंगे। बताइये! कौन सा गीत सुनवाएँ आपको?
बैरागीजी - चलिए! एक और सुनवा दीजिए। यदि हो आपके पास तो बहुत पुरानी गजल है मेरी। फिल्म ‘गोगोला’ में लिखी थी मैंने। जिसको बम्बई के, वो क्या है कृष्ण महल या कृष्णा महल, मेरीन ड्राइव पर, जिसमें सुरैया रहती थी, उसके किसी एक कमरे में बैठकर मैंने एक गजल लिखी थी - ‘जरा कह दो फिजाओं से, हमें इतना सताए ना’ तलत महमूद साहब और मुबारक बेगम ने इसे गाय है।
देविन्दर कौर मधु - जी। बहुत अच्छी गजल है ये बैरागीजी। मैं इसे कल से ढूँढ रही थी आपके लिए। मुझे लगा था कि आप इसकी फरमाइश करेंगे जरूर। लेकिन वो मिल नहीं रही थी। तो, मेरे एक साथी हैं, उद्घोषक प्रवीण शर्मा। उन्होंने इस गजल को ढूँढ कर दिया।
बैरागीजी - प्रवीणजी का मैं आभारी हूँ।
देविन्दर कौर मधु - तो, हम भी सुनते हैं आपके साथ। आप हमारे साथ बने रहिएगा। आपको अभी थोड़ी देर और कष्ट दूँगी।
बैरागीजी - इसमें कष्ट देने की क्या बात है?
(बैरागीजी की मनचाही गजल रेडियो पर सुनाई गई।)
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपसे हमने आपके बचपन की कुछ बातें सुनीं। कुछ आपकी युवावस्था की बातें हुईं। अब, इन दिनों आप क्या कर रहे हैं, इसकी कुछ बात करें।
बैरागीजी - लोग मुझसे पूछते हैं कि इन दिनों मैं क्या कर रहा हूँ तो मैं कहा करता हूँ कि जिस तरह पटवारी जमीन नापता फिरता है तो मैं सरस्वती का पटवारी हूँ। देश को नापता फिर रहा हूँ। अपने आप को सरस्वती का पटवारी मानता हूँ और जहाँ लोग, मित्र बुलाते हैं वहाँ जाता हूँ। वहाँ खड़ा होता हूँ और काम करता हूँ। लिखता हूँ। पढ़ता हूँ। इस समय भी मेरी टेबल पर लिखने का काम चल रहा है।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! मैं आपसे आपकी पहली कविता के बारे में पूछूँगी तो वो मुझे ठीक नहीं लग रहा। मुझे ऐसा लग रहा है कि आपकी पहली कविता के बारे में लोग शायद आपसे बहुत कुछ सुन चुके हैं। लेकिन इस समय आपने आखिरी कविता कौन सी लिख है? वह मुझे बताइए ना!
बैरागीजी - इन दिनों की कोई कविता? कविता कोई आखिरी थोड़ी ना होेती है!
देविन्दर कौर मधु - नहीं! नहीं! लेटेस्ट जो आपने लिखा है।
बैरागीजी - ये बड़ा मुश्किल है। मुझे मेरा ब्रीफ केस खलना पड़ेगा। मुझे नहीं पता था कि आप ये पूछ लेंगी।
देविन्दर कौर मधु - जो आपको याद हो वो सुनाइये।
बैरागीजी - चलिये! मैं आपको एक कविता सुना देता हूँ। मेरे श्रोता.....श्रोता आपके कहाँ हैं! श्रोता तो मेरे हैं। (दोनों खुल कर हँसते हैं।)
देविन्दर कौर मधु - जी! जी! आपके ही श्रोता हैं।
बैरागीजी - आप तो माध्यम मात्र हैं मधुजी! लेकिन लोग आपसे पूछते हैं। हमसे भी पूछते हैं। सबसे पूछते हैं। बड़ों से, बच्चों से, सबसे पूछते हैं। छोटों से भी पूछते हैं, बूढ़ों से भी पूछते हैं कि जीवन क्या है? तो, इस पर मैंने कुल मिला कर बारह पंक्तियाँ लिखी हैं। ये बारह पंक्तियाँ मैं अपने श्रोताओं तक पहुँचा कर मुझे प्रसन्नता होगी। मैंने लिखा है कि -
किरणों का कंचन बरसाता।
बड़े प्यार से तुमको-हमको,
जीवन का मतलब समझाता।।
अपनी ही आहुतियाँ देकर,
स्वयं प्रकाशित रहना सीखो।
यश, अपयश, जो भी मिल जाए
उसको हँसकर सहना सीखो।।
थकना, रुकना, चुकना, बुझना,
यह जीवन का काम नहीं है।
सच पूछो तो गति के आगे,
लगता पूर्ण विराम नहीं है।।
(कविता सुनाते हुए, बैरागीजी बीच-बीच में व्याख्या भी करते हैं और पंक्तियाँ दुहराते भी हैं।)
गति होती है जीवन में। उसके आगे कोई फुल प्वाइण्ट नहीं, कोई पूर्ण विराम नहीं लगता है। सतत् आगे बढ़ते जाओ। अपनी ही आग में जलो। किसी से रोशनी उधार मत माँगो। निराश मत रहो। ठहाके मार कर काम करो। इस तरह से जीवन जीयो कि लोग आपसे प्रेरित हों। आपसे प्रोत्साहित हों। जीवन में सकारात्मक रहो। नकारात्मक कभी मत रहो। ऐसी कुछ बातें सूरज हमें रोज सिखाता है। जबकि हम, एक असत्य रोज बोलते हैं। सूरज के खिलाफ बोलते हैं कि सूरज अस्त हो गया, सूरज उग गया। सूरज से हमने एक दिन पूछा भी कि ‘हे! प्रभो! आप डूब गय, आप अस्त हो गये।’ तो उन्होंने कहा कि मैं तो वहाँ का वहीं हूँ जहाँ पर तुमने खड़ा किया है! जहाँ मुझे रोक दिया था कि तुम यहीं पर रहना। मैं वहाँ का वहाँ खड़ा हूँ। एक इंच, एक सेण्टी मीटर भी इधर से उधर नहीं गया। फिर हमने पूछा ‘तो रात कैसे हो जाती है? अँधेरा कैसे हो जाता है?’ बोले - ‘तेरी माँ पृथ्वी से पूछ जिसकी गोद में तू बैठा हुआ है। कहीं उसी ने तो घूमते हुए मुझे पीठ नहीं दे दी? और उसके कारण अँधेरा हो जाए? तो, तू अपनी माँ को गाली नहीं दे सकता इसलिए तू रोज मुझे गालियाँ देता है। इसके बावजूद मैं तुझे रोशनी देता हूँ।’ तो, हम लोग सूरज से पूछते हैं।
(इसके बाद बैरागीजी पूरी कविता फिर दुहराते हैं।)
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपने अपनी कविता सुनाई। हमें बहुत-बहुत अच्छा लगा। और इसके पहले आपने एक बात कही कि मैं तो वाकई इस कार्यक्रम में माध्यम हूँ। (इस बात पर दोनों जोर से हँसते हैं।) श्रोता तो इस समय आपको सुनना चाहते हैं। और आपने जैसा कि बताया, मैं अपने श्रोताओं को बताना चाहती हूँ कि आप तो ये आकाशवाणी इन्दौर की जो स्थापना हुई थी तो उससे भी पहले जो पहली मीटिंग्स हो रही थीं, इसे स्थापित करने के लिए, उन मीटिंग्स मे आप शामिल थे। आपने ही इस आकाशवाणी केन्द्र की शुरुआत में एक तरह से बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।
बैरागीजी - अरे! मुझे तो आपके यहाँ (नौकरी के लिए) अपाइण्टमेण्ट मिल चुकी थी।
देविन्दर कौर मधु - जी! बैरागीजी, वही बातें मैं अपने श्रोताओें के साथ करना चाहती हूँ आपसे।
बैरागीजी - अरे! आप जब भी चाहें, पूछ लीजिएगा। मुझे प्रसन्नता हाती है कि हम लोग अपने मित्रों से इसी माध्यम से जुड़ जाते हैं, मिल जाते हैं। बातचीत हो जाती है। अब, सुनने के बाद कुछ लोग हमको भी टेलिफोन करेंगे। मुझे पत्र लिखेंगे। लेकिन मूल लक्ष्य मेरा यह है कि आपका, हमारा कोई भी श्रोता हमें सुनने के पश्चात् निराश नहीं हो जीवन के प्रति। थके नहीं और अपनी जीवन की यात्रा ठाठ के साथ पूरी करे।
देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपसे हमारा बहुत पुराना रिश्ता है। आकाशवाणी का रिश्ता आपके साथ बहुत पुराना है। कोई नया नहीं है। आपकी पसन्द का कोई गीत सुनवाना चाहती हूँ श्रोताओं को। बताइये! अब क्या सुनाएँ आपको?
बैरागीजी - अगर हो आपके पास तो पण्डित नरेन्द्र शर्मा का लिखा हुआ गीत, फिल्म ‘भाभी की चूड़ियाँ’ का, ‘ज्योति कलश छलके’।
देविन्दर कौर मधु - जी। ज्योति कलश छलके।
बैरागीजी - जी। मेरी पसन्द का गीत है। लताजी ने गाया है। क्या बढ़िया गाया है! वाह! वाह! वाह! और क्या लिखा है!
देविन्दर कौर मधु - जी। आपको सुनवाते हैं यह गीत और अपने श्रोताओं को भी सुनवाते हैं। और मैं आपसे विदा ले रही हूँ।
बैरागीजी - बहुत-बहुत धन्यवाद। बधाइयाँ। प्रणाम।
(रेडियो पर बैरागीजी का फरमाईशी गीत ‘ज्योति कलश छलके’ बजना शुरु होता है और बजते-बजते धीमा होते हुए शून्य में विलीन हो जाता है।)
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अमृत बिन्नी बामनिया और बिटिया निकिता बामनिया
देविन्दर कौर मधु - 30 नवम्बर को जन्मी, आकाशवाणी (इन्दौर) की जानी-मानी, लोकप्रिय रेडियो उद्घोषिका रही हैं। लगभग 40 वर्षों की सेवाओं के बाद सन् 2014 में सेवा निवृत्त हुईं। इन्दौर में रहती हैं। पता - 13, अहिल्यापुरी, रेसीडेंसी एरिया, इन्दौर - 452001 और मोबाइल नम्बर 94250 77372 तथा 87703 97736 है।
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श्री बालकवि बैरागी के अन्य साक्षात्कार
Nice post thank you Mary
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