कवि, चिन्तक, राजनीतिज्ञ बालकवि बैरागी से डॉक्टर सुनील देवधर की चर्चा
(आकाशवाणी के लिए यह साक्षात्कार डॉक्टर सुनील देवधर ने दिसबर 2004 में रेकार्ड किया था और कम से कम तीन बार प्रसारित हुआ था। यह साक्षात्कार, डॉक्टर देवधर के साक्षात्कार संग्रह ‘संवाद अभी जारी है’ में संग्रहीत है। आमने-सामने बैठकर लिए गए इस साक्षात्कार में, डॉटर देवधर के आग्रह पर, दादा ने अपनी कविताएँ कुछ इस तरह गा कर सुनाई थीं जैसे वे मंच पर सुनाते थे। इसीलिए, कुछ पंक्तियाँ एक से अधिक बार पढ़ीं। यहाँ प्रस्तुत साक्षात्कार में, पंक्तियों का यह दुहराव हटा दिया गया है।)
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संग्रह में प्रकाशित साक्षात्कार के साथ लेखकीय टिप्पणी
एक ऐसा कवि जो दुःख-दर्द और अभाव को सहलाता है, रदीफ-काफिये पर गुनगुनाता है, राजनीति को कविता का मर्म समझाता है और समाज के लिए सुन्दर और सुरभित गाता है - ऐसा कवि और सिर्फ कवि नहीं, एक चिन्तक, एक विचारक, एक राजनीतिज्ञ, एक तत्वज्ञ, एक शिक्षक और इस सबसे अलग एक बिलकुल सरल और सादा व्यक्तित्व बालकवि बैरागीजी।
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डॉ. देवधर - बैरागीजी! आप जो भी गाते हैं, जो भी कहते हैं, पंक्ति-पंक्ति पूजन लगती है, छन्द-छन्द चन्दन लगता है। कृपया बताएँ कि आपका यह बहुरंगी व्यक्तित्व कैसे बना? इसका गढ़न किस तरह हुआ? इसके पीछे कौन है? आप किसे श्रेय देना चाहेंगे?
बैरागीजी - मैं बार-बार कहता हूँ, दोहराता हूँ, इसका पहला श्रेय तो मैं अपनी माँ को देता हूँ। उसके बाद श्रेय देता हूँ तीन बातों को। मुझे तीन बातें, तीन तत्व एक साथ अच्छे मिले। आपको बिन माँगे जीवन में वो मिल जाता है कि आपका जीवन सफल हो जाता है। पहले तो आपको अच्छे गुरु मिलना चाहिए। दूसरा, आपको बहुत अच्छे मित्र मिलने चाहिए। और तीसरा आपको, आपका जीवन-साथी, सहचर अच्छा मिलना चाहिए। इन तीन में से यदि, इस त्रिभुज की एक भी भुजा टूट गई तो तीनों कोणों का योग फिर त्रिकोण के बराबर नहीं होगा। आप कहीं-कहीं भटक जाएँगे। मैं इन तीनों मामलों में सौभाग्यशाली हूँ मेरे पास अच्छे मित्र हैं। मुझे अच्छे शिक्षक और गुरु मिले हैं और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मेरा जीवन साथी अच्छा मिला है। माँ को तो मैं कह सकता हूँ कि - जो कहावत है वो मुझ पर चरितार्थ होती है कि ईश्वर सशरीर हम सबके साथ रहना चाहता था पर ऐसा नहीं कर पाया, इसलिए उसने माँ बना दी। और फिर जो आकार देता है व्यक्तित्व को, समय का प्रवाह बहुत ज्यादा आकार देता है। आप एक किसी अनगढ़ पत्थर को किसी नदी के प्रवाह में डाल दीजिए, वह भी आकार ले लेता है। कहीं वो तिकोना, चौकोना, तिकोना, शंकर, गोला - कुछ तो बन जाएगा। समय के प्रवाह ने भी मुझे बहुत आकार दिया है।
डॉ. देवधर - आपने माँ का उल्लेख किया है। कवि यशवन्त की पंक्ति मुझे स्मरण हो आती है - ‘स्वामी तिन्ही जगाचा, आई बिना भिखारी’ कि तीनों लोक का स्वामी भी माँ के बिना भिखारी है। बैरागीजी! आपका मूल नाम नन्दराम दास और नन्दराम दास से बालकवि बैरागी। तुलसी कहते हैं कि ‘देखिही रूप नाम बिनु जाने, करतल गति न परत पहिचाने’ - इस नाम को जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक है। हर एक के मन में होगी।
बैरागीजी - अब तो यह प्रश्न इतना प्रगाढ़ हो गया है मेरे जीवन से जुड़कर कि मेरे पोते-पोती भी मुझसे पूछते हैं। मेरा जन्म नाम, मेरे माता-पिता का दिया हुआ नन्दराम दास है और ये नन्दराम दास सन् 1931 में मुझे मेरे जन्म के साथ मिला था। लेकिन सन् 1951 में कुछ घटनाएँ ऐसी घटित हुईं कि मुझे सामना करना पड़ गया। मेरे आमने-सामने हो गए डॉक्टर कैलाशनाथ काटजू। भारत के तत्कालीन गृह-प्रतिरक्षा और विधि मन्त्री। वो हमारे यहाँ, मन्दसौर क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आये थे। तो, उन्होंने मेरे गाँव में एक आम सभा की, काँग्रेस पार्टी की। उसमें उन्होंने मुझे सुना। 45 मिनिट का कुल पड़ाव था, ठहराव था। उसमें वो 40 मिनिट मेरी कविताएँ सुनते रहे। जब उनके मिलिट्री सेक्रेट्री ने उनको घड़ी बताई और कहा - ‘सर! आप 45 मिनिट के लिए आए थे और 40 मिनिट से आप इस कवि की कविताएँ सुन रहे हैं। अपने को आगे भी चलना है। तो कृपा करके आप कुछ कहिए।’ तो वो खड़े होकर, मेरे ही अपने गाँव की बातें-मनासा मेरा गाँव है-होलकर स्टेट, पुराना, उसका गाँव है मनासा। छोटा सा। आज भी मेरे गाँव की आबादी पच्चीस-छब्बीस हजार है। उस वक्त तो बहुत कम थी।
तो, उन्होंने अपना कुल भाषण इतना सा दिया कि ये जो है ना, मेरे सामने बैठा हुआ आपका.......नाम उसका है ना? मेरा नाम उन्हें पता नहीं था। सन्त राजनेता थे, निष्कलंक, निष्कलुष थे। एक तरह से बिलकुल मातृवत थे। बोले, ‘ये जो है ना, मेरे सामने बैठा हुआ आपका.......बालकवि, इसने जो कहा है वो करना। आपके गाँव का भला होगा।’ तो, ‘बालकवि’ उस दिन से मेरे पीछे एक नाम उन्होंने चिपका दिया। तो अनुप्रास के लिहाज से ये मुझे काव्य के करीब लगा। कविता की समझ उस वक्त मुझमें नहीं थी। आज भी नहीं है। लेकिन ये नाम मेरे अनुकूल पड़ा और मैं अपने माता-पिता का आभार मानता हूँ कि उन्होंने ‘बालकवि’ नाम में नन्दराम दास को विसर्जित कर दिया। इस नाम को उन्होंने स्वीकार कर लिया।
तो, ये नाम इस तरह से मेरा ‘बालकवि बैरागी’ हुआ। बैरागी तो मैं जन्म से और जाति से बैरागी हूँ। बैरागी एक जाति होती है। हम लोग मन्दिरों की पूजा करते हैं। क्षमा कर देना। कई लोग मेरी आवाज को सुनते होंगे। अन्ततः कई जगह भीख माँगकर, हम (बैरागी) लोगों को भिक्षान्न पर पलना पड़ता है। मैं खुद भिक्षान्न पर पला हूँ। गलियों में भीख माँग-माँग कर, मेरी उम्र के लम्बे वर्ष उसमें बीते हैं। उन दिनों को मैं भूल नहीं जाऊँ, इसलिए आज भी मैं, कपड़े माँग कर पहनता हूँ। ज्यों ही मेरे कपड़े खर्च हो जाते हैं, खत्म हो जाते हैं, फट जाते हैं तो दोस्तों से कह देता हूँ कि- भाई! मुझे खादी चाहिए। वो लोग दे देते हैं। पचास वर्ष से खादी पहन रहा हूँ। करीब-करीब पचास साल पूरे हो गए हैं खादी पहनते हुए।
और दूसरा मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि मैं उस श्रेणी और कोटि में नहीं हूँ - मैंने खुद ने ही कहीं लिखा और कहा है - ‘गरीब के घर में बच्चा पैदा नहीं होता। गरीब के घर में हमेशा बूढ़ा पैदा होता है।’ तो, मैं बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ व्यक्ति हूँ - विपन्न व्यक्ति। गरीबी तो फिर भी सम्मानजनक शब्द है। उससे नीचे आ जाइये - दरिद्र। मैंने दरिद्रता से संघर्ष किया है। तो, ऐसी स्थितियों में ये नाम मुझे अनुकूल पड़ा और इस नाम ने - मैं हालाँकि इन बातों में ज्यादा विश्वास नहीं करता, लेकिन इस नाम ने भी थोड़ा-सा संभाला है।
डॉ. देवधर - आपकी बात का निष्कर्ष यह है कि अभाव ही भाव का जागरण है। इस भाव के जागरण में आपने भरपूर लिखा है। गद्य विधा पर भी कलम चलाई और कविता और पद्य तो ठीक ही है। इधर कविता लय से अलग होकर भी लिखी जा रही है। लय से अलग कविता। क्योंकि कविता, जनमानस की कविता है। क्या आप मानते हैं कि वह जनता की सहभागिता के बिना पूरी नहीं हो सकती? आप मुक्त-छन्द और छन्द-मुक्त कविता में किसको अधिक महत्व देना चाहेंगे? और, ऐसी कविता किस तरह से ‘जन की कविता’ होगी?
बैरागीजी - इस प्रश्न के लिए आपको धन्यवाद। कविता में शनैः-शनैः कुछ वे चीजें हमारे यहाँ से गई हैं जिनका उल्लेख आपने किया है। हमारे यहाँ कविता मूलतः छन्दोबद्ध कविता थी और पहली कविता ही छन्द में निकली। महाकवि वाल्मिकी का पहला छन्द जो निकला, महानिषाद वाला छन्द.......
डॉ. सुनील देवधर - क्रौंच वध पर?
बैरागीजी - (हाँ) क्रौंच वध पर। वह अनुष्टुप रूप छन्द था। पहली कविता का प्रस्फुटन ही छन्द में हुआ। तो, कविता हमारे यहाँ छन्द से चली। लेकिन शनैः-शनैः हमारी कविता पर जब दूसरे प्रभाव पड़ने शुरु हुए, विशेष तौर पर पाश्चात्य प्रभाव, तो कई चीजें हमारे पास से गईं। ऐसा नहीं कि भारत में पश्चिम नहीं था। पश्चिम भारत में तब भी था। लेकिन दूसरे रूप में था। तो, सबसे पहले गया हमारी कविता का व्याकरण और पिंगल। जिसे आपने छन्द कहा, वो चला गया। गण चला गया।
उसके बाद, आप ध्यान से दखेंगे तो पाएँगे कि कविता में से व्याकरण और पिंगल के जाने के बाद छन्द चला गया और यह जाना जो शुरु हुआ तो उसके बाद अलंकार चले गए। जब छन्द ही चला गया, जब अलंकार ही चला गया तो आपने देख होगा कि रस चला गया। और जब रस चला गया तो धीरे-धीरे ऐसा लगा कि आत्मा चली जा रही है। और जब आत्मा ही चली गई तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ कि कविता का सम्प्रेषण, जिसे आप कम्युनिकेशन कहते हैं, वही चला गया। तो अब ऐसा लगता है कि कविता प्रवाहित नहीं हो रही है। कविता ठोकी जा रही है। कील की तरह माथे पर ठोक रहे हैं, ऐसा लगता है।
तो, यदि आपके पास लय है, स्वर है, सारल्य है, सरलता है, तब तो वह सम्प्रेषण मे कहीं न कहीं बच जाएगी। पर यदि ये सब चीजें चली गईं तो उसे (कविता को) सम्प्रेषित करने में बहुत कठिनाई आ जाएगी।
और, भारतवर्ष तो मूलतः ‘श्रुति’ का देश है, पठन का देश नहीं। हमारे यहाँ तो वेद भी सात सौ वर्षों से श्रुति के आधार पर ही जीवित रहे! तो आप देखते होंगे कि श्रुति के इस देश में आपको श्रोता ज्यादा मिलते हैं, पाठक कम। हमारे बड़े से बड़े लेखकों की किताबों के पहले संस्करण जो छपते हैं, हजार-ग्यारह सौ (प्रतियों) के छपते हैं और उसके बाद भी किताबें गोदामों में पड़ी रह जाती हैं। रद्दी में बेचनी पड़ती हैं। तो? यदि हमने सम्प्रेषण जीवित रख लिया और हमारा काव्य संस्कार सम्प्रेषित हुआ तब तो लोग (कविता को) कविता के रूप मे स्वीकार करेंगे। वरना स्वीकार नहीं करेंगे। उसे एक तरफ रख देंगे।
और यह भ्रम हैं कि छन्द को किसी एक व्यक्ति विशेष ने तोड़ा है। यह गलत है। मैं इस मान्यता से असहमत हूँ। मैं आपको एक मालवी लोक गीत सुनाता हूँ। मेरा माँ गाती थी। आज भी, गंगा-यात्रा से लोग आते हैं, कन्धों पर कावड़ में गंगा-जल लाते हैं, तो उनका स्वागत करते हुए महिलाएँ जो गीत गाती हैं, उसे सुनिए और मुझे बताइए, समझाइए कि इसमें तुकान्त कहाँ है? छन्द कहाँ है? मैं पहली दो पंक्तियाँ सुना रहा हूँ। यह मालवी बोली में है लेकिन (श्रोता) लोग समझ लेते हैं -
मिल लो थाँ का सोई (सारे) परिवार
नाना कावड़्या रे वीर!
जल भर लाया सोरम घाट को।
यह इस गीत की ध्रुव पंक्ति है। मैं जानना चाहता हूँ, छन्द कहाँ है इसमें? लेकिन लय बराबर है। यह कम्यूनिकेट करती है। हमारे यहाँ छन्द की साधना विभिन्न रूपों में हुई है। अगर आप निराला की ‘जूही की कली’ पढ़ें तो वह लयबद्ध कविता है। अगर लयबद्ध नहीं होती तो निराला इसे सम्प्रेषित नहीं कर पाते। सम्प्रेषण कविता की एकमात्र शक्ति है।
डॉ. देवधर - आपने कहा, हमारी ‘श्रुति परम्परा’ है। उपनिषद् की परम्परा है। उपनिषद् का शाब्दिक अर्थ है, पास बैठना। यह (हमारा) सौभाग्य है कि हम आपके पास बैठे हैं। आपसे आग्रह है कि आप कोई कविता प्रस्तुत करें।
बैरागीजी - मैं एक कविता पढ़ देता हूँ। यह, नई पीढ़ी के बारे में है। इतना तो आप भी सहमत होंगे कि आज की पीढ़ी का सामना माता-पिता नहीं कर पा रहे। हमारे इन्हीं बच्चों ने हमारी नदियों की कछार में, एक-एक एकड़ में पचास-पचास क्विण्टल अनाज पैदा किया और भूख से लड़ाई लड़ी। तो, जब इन बच्चों के साथ पूरा न्याय नहीं हो पाया, तब भी इन बच्चों ने हम पर इतना उपकार किया है और बगैर किसी संकोच के किया है। तब, फिर, ये बच्चे यदि जद्दोजहद करके हमसे अपना हक माँगते हैं तो इसमें हमें बुरा नहीं मानना चाहिए। और मैं कहना चाहता हूँ कि मेरी इस कविता को सुनने के बाद, कृपा करके अपने इन बच्चों को गुण्डा या आवारा कहना बन्द कर दें। ये बच्चे समझदार हैं, सहनशील हैं और देश के प्रति जिम्मेदार हैं। इस कविता का शीर्षक है ‘कोई तो समझे’ -
क्या कहा, किरण के सारे कुनबे को लकवा मार गया?
नहीं-नहीं यह झूठ बात है, साजिश है, मक्कारी है।
इस पीढ़ी को आवारा कहना, गुस्ताखी है, गद्दारी है।
सड़कों पर आ गए क्यों जलते अंगारे?
हाय राम कोई विचार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
पीढ़ियाँ प्यार से चलती हैं, घृणा से नहीं चलेंगी। मेरे बेटे का नाम नन्दन है। मेरी इस कविता की शुरुआत ही अपने बेटे से की है -
(और) नागराज को कहाँ हक है, बेचे चन्दन को?
(ये) किसने हक दिया मावस को, पूनम की बदनामी का?
किसने हक दिया पतझड़ को, कोंपल की नीलामी का?
बाँझ नहीं है ये फुलवन्ती डाली।
(पर) माली सा कोई व्यवहार तो करे।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
(कि) हाथों में पत्थर....।
और देखिए, एक छन्द है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमारे बूढ़े, बुजुर्ग आज भी अकड़कर कहते हैं कि ‘क्या हमारा जमाना था कि एक रुपये का दो सेर घी खाते थे।’ तो हमारे बच्चे हमसे पूछते हैं कि ‘पिताजी! आप एक रुपये का दो सेर घी खाते थे तो अपनी कंगाली, गरीबी का ढिंढोरा क्यों पीटते हो? हमसे मिलो! हम 150/- रुपये किलो का घी खा रहे हैं! मर्द के बच्चे आप हो कि हम हैं?’
छन्द है कि -
इस तरुणाई का पुण्य जिन्होंने धोया पानी से।
(ये) किसने छोड़ा इन तीरों को कुटिल कमानों से?
पूछ रही है घायल पीढ़ी परम सयानों से।
आँखों में बालू और पाँवों में दलदल।
(इस) जीवट से कोई दुलार तो करे।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर....।
यह छन्द देखें! हम सब कहते है, बच्चे देश का भविष्य हैं। मैं भी कहता हूँ कि बच्चे देश का भविष्य हैं। लेकिन मेरा विचारक मुझसे पूछता है - ‘इस भविष्य का वर्तमान क्या है?’ सारा झगड़ा इस बात का है कि -
जब भविष्य के वर्तमान का केवल शोषण हो।
तब वो कैसा भी अतीत हो, सब बेमानी है।
हमसे ज्यादा दारुण किसकी राम कहानी है?
दो-चार सपने, वो भी बेचारे।
(इन) सपनों से कोई आँखें चार तो करे।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर....।
और, अनुशासन के बारे में मैंने एक बात कही है - हम बहुत पाठ पढ़ाते हैं अनुशासन का। लेकिन हमारे खुद के आचरण में अनुशासन कहाँ है? इसलिए कहा है। आपने देख होगा, नो पार्किंग पर गाड़ियाँ खड़ी कर देते हैं भाई लोग। भई! यहाँ गाड़ी नहीं खड़ी करनी है तो नहीं करनी हैै! ऐसे में, हम अनुशासन की बात अपने बच्चों तक कैसे पहुँचायेंगे? इसलिए कहा है -
सिंहासन की नहीं, यहाँ पूजा है आसन की।
(हाँ) खूब पता है हमको भी, ये देश हमारा है।
यह तुमसे भी ज्यादा, हमको प्यारा है।
(पर) जिसने हमें ये पलीता थमाया।
कोई उस पर जरा सा प्रहार तो करे।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर....।
और देखिये! यह जिम्मेदारी का छन्द है। इन बच्चों की ओर से मैं वादा करता हूँ आपसे -
सिवा हमारे काम देश का कौन चलाएगा?
सिवा हमारे संघर्षों को कौन नचाएगा?
सिवा हमारे इस बगिया को कौन बचाएगा?
क्यों-कर खुले हैं ये जलते दहाने?
(इस) ज्वाला का कोई श्रंगार तो करे।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....।
डॉ. देवधर - बालकविजी! कविता में जैसा आपने संकेत किया है, युवकों के प्रति आपकी करुणा, युवकों के प्रति आपकी भावना स्पष्ट हो रही है। पहली पंक्ति आपने कही ‘क्या कहा कि अंधेरा जीत गया’ आपकी एक और पंक्ति है - ‘क्या कहा कि दनकर डूब गया’ (बैरागीजी - ‘हाँ! हाँ!) यहाँ, एक प्रसंग कहने का लोभ मैं सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ। नेहरूजी के जमाने में महाकवि दिनकर, उनके पीछे-पीछे चले जा रहे थे और संसद की सीढ़ियों पर नेहरूजी जरा डगमगाए। यह प्रसंग यहाँ इसलिए जरूरी समझ रहा हूँ कि आप राजनीति और साहित्य, दोनों को साथ लेकर चलते हैं। नेहरूजी थोड़े से डगमगाए तो दिनकरजी ने आगे बढ़कर उनको संभाल लिया। नेहरूजी शिष्टाचार का बहुत ध्यान रखते थे। उन्होंने दिनकरजी को धन्यवाद कहा। तब दिनकरजी का उत्तर था - ‘इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है। जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे संभाल लेता है।’ इस प्रसंग में, चूँकि आप स्वयं राजनीतिज्ञ हैं, तो, साहित्य और राजनीति के बीच की भूमिका क्या है?
बैरागीजी - देखिए! मूल बात यह है कि यह तीन चीजों का त्रिभुज है। राजनीति दो जगह है। एक तो लोक जीवन में और एक प्रशासन में। लोक जीवन में तो राजनीति के पास बहुत खुला आकाश है। पर राजनीति जब प्रशासन में जाती है तो उसका आकाश थोड़ा सा संकुचित हो जाता है, सिकुड़ता है। जिसको कहते हैं कि उसके अधिकार तो बढ़ जाते हैं किन्तु उसका आकार थोड़ा सा सिमट जाता है। तब फिर, तीन तत्व भारत में मूलतः प्रशासन के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। इन तीन चीजों का सन्तुलन जिसके पास होगा, वह प्रशासन कर सकेगा - करुणा, बुद्धि, विवेक। यदि इनमें किसी एक का भी सन्तुलन टूट जाएगा - करुणा से समस्या उद्भूत होती है, बुद्धि से निर्णय होता है और विवेक से उसके ऊपर अमल होता है, जिसे कहते हैं, डिस्क्रूट होता है।
तो, यदि इन तीन का सन्तुलन हमारे राजनेताओं के पास या हमारे प्रशासकों के पास है तब तो बात व्यवस्थित चलती रहेगी। आप देखते होंगे, कई बार फैसले हो जाते हैं जो बुद्धिपूर्ण होते हैं लेकिन विवेकपूर्ण नहीं होते। कई बार ऐसा होता है कि उनमें बुद्धि और विवेक तो होता है पर करुणा उसमें से निकल जाती है। कई बार ऐसा होेता है कि इतने करुणामय फैसले हो जाते हैं कि बुद्धि और विवेक, दोनों हक्के-बक्के खड़े रह जाते हैं कि यह क्या हो रहा है! तो, इन तीनों को सन्तुलित करके जब राजनीति अपना काम करेगी और प्रशासन में उसका उपयोग होगा, तब जाकर हमें समझ आएगा कि हम लोग ठीक हैं कि नहीं हैं। आज इस देश में इस सूत्र की बहुत अधिक आवश्यकता है, मैं ऐसा महसूस करता हूँ। करुणा के आधार पर हम आते हैं, बुद्धि के आधार पर बैठते हैं लेकिन विवेक पर फैसला करने से हम कभी-कभी लड़खड़ा जाते हैं। तो, इसका सन्तुलन हमको फिर से बैठाना पड़ेगा और जहाँ यह सन्तुलन टूट रहा है, वहाँ हमको संकेत करना पड़ेगा और यही काम साहित्य का है कि सूचित कर दे कि देखो! यह गलत है। इंगित कर दे, सूचित कर दे कि भई! यह गलत है। साहित्य कोई हथौड़ा लेकर नहीं बैठता है। वह तो अंकुश लेकर बैठता है। अंकुश और हथौड़े के बीच में तो मैं समझता हूँ कि साइज का बड़ा फासला है, बल्कि बहुत बड़ा फासला है। लेकिन छोटा सा अंकुश मदोन्मत्त हाथी को वश में कर लेता है। और बड़े से बड़ा हथौड़ा यदि हाथी पर चलाएँ तो हाथी, हथौड़ा चलानेवाले की जान ले लेगा। तो अंकुश का काम साहित्य करता है और समय पर दिशा-बोध देता है।
मूल बात यह है कि साहित्य का काम साहित्य को करना चाहिए। लेकिन यदि साहित्य, साहित्य नहीं है, उसमें सबके हित नहीं हैं तो फिर राजनीतिवाले बहुत चतुर हैं। वो उसको भी पीछे टाल देते हैं। इसलिए हमको दोनों पक्ष देखने पड़ेंगे। यह तो श्रवणकुमार के काँधे की कावड़ है जिसके एक पलड़े में एक तरफ श्रवण की अन्धी माँ है, एक तरफ अन्धे पिता हैं और उसको निरन्तर एक तीर्थ-यात्रा करनी है। तो, फिर, श्रवणकुमार ही अन्धा है तो फिर कहाँ चलेगा? और अन्ततः यह बात पक्की है कि श्रवणकुमार को किसी न किसी के तीर से मरना है, यह निश्चित है। तो, जिसमें इतने उत्सर्ग की भावना हो, वह इस कावड़ को कन्धे पर उठाए। ऐसा नहीं है कि इस कावड़ को कन्धे पर उठाकर लोग न चले हों! चले हैं इस देश में! कई एक नाम लिए जा सकते हैं।
डॉ. देवधर - वो चले हैं, इसलिए देश चल रहा है।
बैरागीजी - हाँ। इसलिए देश चल रहा है। यह जो श्रवण-यात्रा है हमारी - क्षमा कर देना आप मुझे - मैं इसको कहा करता हूँ - यह श्रवण-यात्रा है हमारी। यह श्रवणकुमार की यात्रा है, जिसके कन्धे पर कावड़ है, जिसमें एक तरफ राजनीति है और एक तरफ साहित्य है और दोनों ने ही आँखें बन्द कर रखी हैं। वो तो आँखें खोलने से रहे! वो तो लोगों की आँखें खोल सकते हैं। श्रवणकुमार की आँखें खुली रहनी चाहिए और उसे यह निश्चित करना चाहिए कि कोई न कोई तीर उसका हन्ता बनेगा। आपके पास यदि उत्सर्ग की इतनी भावना है तो आइए! मैदान खुला हुआ है।
डॉ. देवधर - जो पंक्ति यहाँ चर्चा में आई थी - ‘क्या कहा कि दिनकर डूब गया’ - वह कविता, पूरी तो नहीं लेकिन थोड़ी-सी हम जरूर सुनना चाहेंगे।
बैरागीजी - देखिए! वो कविता, मेरी बहुत लम्बी कविता है। उस कविता में 29 छन्द हैं। कम कविता नहीं है। छोटी नहीं है कविता। उसमें तीन अलंकार विशेष हैं। दिनकरजी का अवसान मैं आज तक समझ नहीं पाया। दिनकरजी का स्वर्गवास आज तक मेरे गले नहीं उतरा। वो स्वर्गवासी हुए इसलिए हम प्रसन्न हों, ऐसी भी कोई बात नहीं है। और मेरी यह मान्यता है कि दिनकर के बाद आज हिन्दी के पास दिशा-बोध देनेवाला और कोई कवि नहीं है, मैं ऐसा मानता हूँ।
आपने देखा होगा! दिनकरजी ने हमें जो दिया है, जो अवदान दिया है, वह अद्भुत है। एक रास्ता बनाया उन्होंने। उनका निधन हुआ तो उसके कुछ तीन-चार दिन पहले, हम उनके साथ थे। दिल्ली के कवि सम्मेलन में। जब उनसे पूछा हमने कि ‘दद्दा! क्या कार्यक्रम है? क्या प्रोग्राम है? कहाँ का है?’ बोले - ‘तिरुपति जा रहा हूँ।’ हमने पूछा - ‘तिरुपति से हमारे लिए क्या लाओगे?’ तो बोले - ‘तेरे लिए कुछ नहीं लाऊँगा।’ पण्डित गोपाल प्रसादजी व्यास संचालन कर रहे थे कवि सम्मेलन का। उनने पूछा कि ‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ तो बोले - ‘गोपाल! तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं लाऊँगा।’ तब तक उनके सामने उनकी नातिन आ गई। बेटी की बेटी। शोभाजी की पुत्री। पूछा - ‘नाना! मेरे लिए क्या लाओगे?’ बोले - ‘बेटा! तेरे लिए भी कुछ नहीं लाऊँगा।’
तब वहाँ प्रश्न यह उठा - सम्मेलन समाप्त हो चुका था। हम लोग उठ रहे थे। सब बोले - ‘दिनकर! तुम वहाँ क्या लेने जा रहे हो?’ गोपाल प्रसाद व्यासजी ने पूछा - ‘इसके लिए भी कुछ नहीं? उसके लिए भी कुछ नहीं? मेरे लिए भी कुछ नहीं?’ तो उन्होंने बहुत विकलित होकर कहा था - ‘गोपाल! यह देश अब जीने लायक नहीं रह गया है। मैं भगवान व्यंकटेश, विष्णुजी से मृत्यु लेने जा रहा हूँ।’ और इसके तीन दिन बाद ही आप देखते होंगे, वे चले गए। और जाने से पहले उन्होंने दो घण्टे विष्णु व्यंकटेश बालाजी को कविताएँ सुनाईं। उसके बाद समुद्र के किनारे बैठ कर समुद्र को कविताएँ सुनाईं। और दोनों जगह बैठ कर उन्होंने मृत्यु की याचना की। उन्होंने कहा - ‘लाओ! हमें मौत दे दो।’ उसी रात, आधी रात को उनका निधन हो गया था।
तब फिर मुझे लगा कि पूरब में उगा हुआ सूर्य यदि पश्चिम में, कहीं यदि मुम्बई की तरफ जाकर डूबता है तो लगता था कि वो डूब गया। लेकिन यह ऐसा कैसे हो गया था कि दक्षिण में, तमिलनाडु में, जहाँ हिन्दी का संघर्ष था उन दिनों, आज तो तमिलनाडु सर्वथा बदल गया है, उस वक्त तो बात बहुत कड़वी थी, वहाँ जाकर हिन्दी का सूरज डूबा! मैंने एक कविता लिखी - ‘वंशज का वक्तव्यः दिनकर के प्रति’। तो, वो मैं आपको उनतीस छन्दों में से चार-छः छन्द पढ़ देता हूँ। ‘क्या कहा कि’ यह सन्देह अलंकार से शुरु करता हूँ - ‘क्या कहा कि दिनकर डूब गया, दक्षिण के दूर दिशांचल में’ - यह भाषा दिनकर के अनुकूल रखनी पड़ी मुझे। और यह कविता मेरे जीवन की एकमात्र कविता है। इसके पहले जो थी वो सब कविता का छलावा था। इसके बाद जो लिख रहा हूँ, वह कविता की कोशिश है। इसलिए, मेरे जीवन की यह एकमात्र कविता है जो मुझे सहारा देती है।
(इसके बाद साक्षात्कार में, ‘वंशज का वक्तव्य’ लगभग पूरी कविता छापी गई है। वह पूरी कविता यहाँ देने के बजाय मैं, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित इस कविता की लिंक दे रहा हूँ। ‘वंशज का वक्तव्य’ को आप यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं।)
मैं दिनकरजी को प्रणाम करता हूँ, उन्हें स्मरण करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि हम दिनकरजी के संकल्पों को कुँवारा नहीं मरने देंगे। इस देश को दिशा-बोेध देते रहेंगे।
डॉ. देवधर - बालकविजी! आप काव्य-पाठ कर रहे थे तो यह पंक्ति मन में आ रही थी - ‘नहीं होती कभी भी/खत्म कविता नहीं होती/कि वो आवेग त्वरित काव्य-यात्री है/वो विश्व शास्त्री हैं’ लेकिन इसी सन्दर्भ में अन्तिम प्रश्न यह है कि जैसा पुश्किन ने कहा था - ‘ब्यूटी विल सेव द वर्ल्ड’ सुन्दरता ही विश्व को बचायेगी। शास्त्र का सौन्दर्य क्या है? कविता यदि जीवन को ताकत देने के लिए पढ़ी जाती है तो आपसे यह भी प्रश्न है कि पढ़ना क्या चाहिए?
बैरागीजी - आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है और मैं समझता हूँ कि ये प्रश्न का कूट परीक्षण है एक तरह से। हमारे यहाँ साहित्य ने पहले ही तय कर दिया है। हमारे यहाँ, भारतवर्ष में इस बात का तो कोई विवाद ही नहीं है कि साहित्य की आत्मा क्या होनी चाहिए। उन्होंने, हमारे पुरखों ने, हमारे मनीषियों ने, हमारे मेधा और प्रज्ञा के पुरुषों ने पहले ही तय कर दिया है कि चाहे माँएँ रहीं हो, चाहे पिता रहे हों, उन्होंने तय कर दिया कि जो सत्यम् हो, वही शिवम् हो, सुन्दरम् हो, वही साहित्य है। इसलिए, भारतवर्ष में ये तो विवाद ही नहीं है कि साहित्य किसे कहते हैं? उसके पास सत्य होना चाहिए, उसके पास शिव होना चाहिए, सबका कल्याण करनेवाला होना चाहिए और उसको सुन्दर तो होना ही चाहिए।
तो, आपने पुश्किन को जो ‘कोट’ किया है, जिसका उद्धरण दिया है कि भाई! वो होना चाहिए सुन्दर। लेकिन भारत इससे दो कदम आगे चलता है कि वो सत्य भी होना चाहिए और शिव भी होना चाहिए। और इन सबको, तीनों शब्दों को एक शब्द में कहना चाहूँ तो अकेले भारत के पास वो शब्द है - अध्यात्म। यदि आपके पास अध्यात्म है तो वो सत्य भी है, शिव भी है, सुन्दर भी है। तो, हम इन तीनों को सामने रख कर साधना करें क्योंकि यहाँ भारतवर्ष में जो भी बहस है, लिखने-पढ़ने के मामले में, साहित्य के मामले में - वो फॉर्म पर बहस है, शरीर पर बहस है। कण्टेण्ट पर तो है ही नहीं। कण्टेण्ट तो सत्यम, शिवम्, सुन्दरम् होना ही चाहिए। यदि इनमें से कोई भी एक चीज, एक तत्व गायब है तो फिर वो साहित्य से हमारी परिधि और परिभाषा में नहीं आएगा। इसलिए हमको इस दिशा में, जो साधना हम कर रहे हैं, जो भी लोग लिख रहे हैं, पढ़ रहे हैं, सोच रहे हैं-उनसे हमारा आग्रह है कि हम ये करना चाहते हैं तो तीनों चीजों को ध्यान में रखें और हमेें कहीं बाहर ताका-झाँकी करने की, कोई खिड़की दूसरी खोलने की आवश्यकता नहीं है। हमारा तो आँगन समृद्ध है। हम लोग स्वयम् ही इस मामले में परम्पराओं से, चेतना से, ऊर्जा से, मनीषा से, मेधा से, और प्रज्ञा से बहुत ही सम्पन्न हैं। हमें कहीं, किसी दरवाजे पर याचक बन कर, पात्र लेकर जाने की आवश्यकता नहीं है। तो, हम तो बहुत आपके आभार मानते हैं, बहुत धन्यवाद देते हैं कि आपने कुछ बातें हमसे पूछीं और सुनी हमारी बात। हमको भी आपने जागृत रखा।
डॉ. देवधर - बालकविजी! इस तथ्य पर आकर, इस बातचीत को विराम दें। आप उनतीस पुस्तकों के रचयिता हैं और भारतीय संस्कृति के उद्गाता हैं। आप संस्कृति को गा रहे हैं। अन्तिम वाक्य में आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं। हमारे लिए। एक वाक्य। इस बातचित के अन्तिम वाक्य में अवश्य कहें।
बैरागीजी - मैं सिर्फ इतना भर कहना चाहता हूँ, और मेरा यह वाक्य आप लिख लीजिएगा। बहुत काम आएगा। हाँ, मैंने बार-बार कहा है और इसको दोहरा रहा हूँ और फिर दोहरा कर कह रहा हूँ कि - ‘आरती में, पूजा में सदैव जलते हुए दीये रखे जाते हैं। बुझा हुआ दिया किसी आरती और किसी पूजा में काम नहीं आता है। जलते रहो, उद्दीप्त रहो, प्रज्ज्वलित रहो। अपनी लौ को, मौसम से लड़ने के लिए सदैव प्रेरित करते रहो। बुझ जाओगे तो किसी काम नहीं आओगे। जलते रहोगे तो प्रकाशित, प्रभासित रोशनी देते रहोगे। किसी न किसी आरती में काम आ जाओगे।’
डॉ. देवधर - बैरागीजी! सतत् प्रकाशित रहने की इसी कामना के साथ ही मैं आभार व्यक्त करता हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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डॉक्टर सुनील देवधर: स्वरचित, सम्पादित, दस कविता-लेख-निबन्ध संग्रह प्रकाशित। मराठी से हिन्दी में अनुदित सात पुस्तकें। पुरुस्कार - महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा तीन बार पुरुस्कृत, मराठी भाषी हिन्दी लेखक का गजानन माधव मुक्तिबोध पुरुस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साौहार्द्र सम्मान, आचार्य आनन्द ऋषि साहित्य निधि हैदराबाद सम्मान, आकाशवाणी वार्षिक पुरुस्कार (डाक्यूमेण्ट्री वर्ग मे प्रथम पुरुस्कार) सहित अन्य कई संस्थाओं द्वारा पुरुस्कृत और सम्मानित। निवास - ए-101, कुणाल ‘बेलजा’ मराठा मन्दिर के पीछे, पेट्रोल पम्प के सामने, बावधन, पुणे-411021 (महाराष्ट्र), मोबाइल - 98235 46592। ई-मेल:sunilkdeodhar@gmail.com
संवाद अभी शेष है: डॉक्टर सुनील देवधर, प्रकाशक-राम प्रसाद एण्ड संस, अस्पताल रोड़, आगरा-3, फोन: (0562) 2744389, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल-1, फोन: (0755) 2744389, प्रथम संस्करण, ISBN:978-81906222-0-2, सर्वाधिकार: लेखक, मूल्य: एक सौ पच्चीस रुपये मात्र।
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अगला साक्षात्कार - नीमच निवासी श्रीराधेश्याम शर्मा से दादा श्री बालकवि बैरागी के प्रश्नोत्तर। यह, दादा का अन्तिम साक्षात्कार है।
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